Sunday, March 29, 2020

बुरे समय की बुरी कविता

बुरे समय की बुरी कविता

अच्छा ! धमकी दे रहे हो !

चेतावनी दे रहे हो कि आइन्दा से चीज़ों को

इतने साफ़ शब्दों में बयान न करूँ,

लोगों की भीड़ में, जुलूसों-प्रदर्शनों में दिखाई न दूँ,

बस्तियों में मीटिंगें न करूँ !

डराते हो कि क़ानून की संगीन धाराएँ लगाकर

कालकोठरी में धकेल दोगे,

धर्म-ध्वजाधारी गुंडों से सड़क पर ह्त्या करा दोगे !

तो यह लो,

मैं कविता से विदा लेती हूँ और फिर से कहती हूँ बुलंद आवाज़ में

एक-एक शब्द पर ज़ोर देते हुए,

हत्यारे को हत्यारा,

बर्बर को बर्बर,,

गधे को गधा,

भेड़िये को भेड़िया,

बलात्कारी को बलात्कारी,

दंगाई को दंगाई,

नरसंहार को नरसंहार,

गुण्डे को गुण्डा,

तड़ीपार को तड़ीपार,

फेंकू को फेंकू,

पूँजीपतियों के चौकीदार को पूँजीपतियों का चौकीदार

और फासिस्ट को फासिस्ट !

बिना किसी रूपक या बिम्ब के,

बिना किसी तरह की नफ़ासत या शालीनता के,

मैं ऐसा कहती हूँ साफ़-साफ़ शब्दों में

जैसे कहना चाहिए ब्रेष्ट के बताये मुताबिक़, गू को गू !

कविता की भाषा को तिलांजलि देकर मैं

सपाट भाषा में और साफ़-साफ़ कहती हूँ अपनी बात !

उन्मादी भीड़ की चीखों और गालियों,

तुम्हारे आई.टी. सेल के भाड़े के टट्टुओं के कुत्सा-प्रचारों,

तुम्हारी गोदी मीडिया के भौंकते कुत्तों,

ह्त्या और फ़र्ज़ी मुक़दमों की तमाम धमकियों के बावजूद,

तुम्हारी तमाम जेलों, क़त्लगाहों, फ़र्ज़ी मुठभेड़ों,

न्याय की कुर्सियों पर विराजमान कठपुतलियों

और बुर्जुआ संविधान की उड़ती चिंदियों के बीच

मैं खुले गले से सच कहती हूँ

गाँव की उस दीवार के बारे में सोचते हुए

जहाँ लोर्का को गोली मारी गयी थी,

जेल की उस कोठरी के बारे में सोचते हुए

जहाँ ग्राम्शी क़रीब आती मौत के बारे में नहीं,

वर्ग-युद्ध की नयी रणनीतियों के बारे में सोच रहे थे !

मैं सच बयान करती हूँ

नाज़िम हिकमत और नेरूदा की और तमाम फिलिस्तीनी कवियों की

जलावतनी और देश-निकाला के बारे में सोचते हुए,

ईरानी, लातिन अमेरिकी और अफ़्रीकी -- तमाम कलम के सिपाहियों को

फाँसी के तख्ते पर या फायरिंग स्क्वाड के सामने

बेख़ौफ़ हँसता हुआ देखते हुए !

तुम्हारे तमाम नरमेध-यज्ञों के बावजूद,

अनवरत बजती तुम्हारी विजय-दुन्दुभि के कानफाडू शोर के बावजूद

मैं कभी नहीं मान सकती कि यह देश

यूँ ही सन्नाटे और लहू में डूबा रहेगा,

यूँ ही धीरे-धीरे मौत की घाटी में बदलता रहेगा !

इतिहास के झरोखों से अभी भी देखा जा सकता है

एक फासिस्ट को काँपते हाथों से

अपनी कनपटी से पिस्तौल सटाते हुए

और एक और फासिस्ट को सड़कों पर घसीटे जाते हुए

और चौराहे पर उलटा लटकाए जाते हुए !

इतिहास खुद को दुहराता है

हालाँकि हूबहू वैसे ही नहीं !

इतिहास अपने फैसले देता है

हालाँकि कभी-कभी कुछ ज्यादा देर से !

(15मार्च, 2020)

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