Sunday, March 29, 2020

जो आम मेहनतक़श और आम मध्य वर्ग की मुस्लिम आबादी है, उसे ठण्डे दिमाग़ से सोचना होगा और कुछ बातें भली-भाँति समझ लेनी होगी !



किसी भी देश में अगर किसी धार्मिक अल्पसंख्यक आबादी का धार्मिक बहुसंख्यावादी कट्टरपंथियों द्वारा दमन-उत्पीड़न होता है और उसके ख़िलाफ़ वह आबादी धार्मिक आधार पर संगठित होकर संघर्ष करती है तो उसे कामयाबी कत्तई नहीं हासिल होगी I अगर अपनी धार्मिक पहचान को आप संगठित होने और प्रतिरोध करने का आधार बनायेंगे तो इससे बहुसंख्यावादी कट्टरपंथियों को भी धार्मिक पहचान के आधार पर बहुसंख्यक धर्मावलम्बी आम आबादी को बरगलाकर अपने साथ लेने का मौक़ा मिल जाएगा !

यह बात भी समझी जानी चाहिए कि वहाबी-सलाफ़ी टाइप जो भी इस्लामी कट्टरपंथी राजनीतिक धाराएँ हैं वे हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथ को ही मज़बूत बनाने का काम करती हैं ! उनकी तक़रीरों के हवाले दे-देकर हिन्दुत्ववादी यह बात अपनी विशाल प्रोपेगण्डा मशीनरी के ज़रिये लोगों के दिलो-दिमाग़ में बैठाने की कोशिश करते हैं कि सभी मुस्लिम कट्टर होते हैं और वे भारत में इस्लामी हुकूमत क़ायम करना चाहते हैं ! इसलिए, इस्लामी कट्टरपंथ की जितनी भी प्रवृत्तियाँ हैं, उनके ख़िलाफ़ बुलंद-बेख़ौफ़ आवाज़ उठाना सबसे पहले मुस्लिम प्रबुद्ध तबकों की ज़िम्मेदारी बनती है ! याद रखिये, धार्मिक अल्पसंख्यकों का कट्टरपंथ हमेशा ही धार्मिक बहुसंख्यकों के कट्टरपंथ को ही मज़बूत बनाने का काम करता है !

किसी भी देश में अगर किसी धार्मिक अल्पसंख्यक आबादी का उत्पीड़न किया जाता है, तो उसका प्रतिरोध धार्मिक आधार पर संगठित होकर कत्तई नहीं किया जा सकता ! बल्कि इसका उलटा असर होगा ! इसके प्रतिक्रियास्वरूप धार्मिक बहुसंख्यक आबादी भी कट्टरपंथी नेतृत्व के प्रभाव में आ जायेगी ! कोई भी धार्मिक अल्पसंख्या अपने पूजा-पाठ, इबादत, विश्वास आदि की धार्मिक आज़ादी के लिए सेक्युलरिज्म के झंडे तले संगठित होकर ही लड़ सकती है और सिर्फ़ और सिर्फ़, एक सच्चे सेक्युलर समाज में ही वह अपने धार्मिक विश्वासों के अनुपालन की आज़ादी और बराबर के नागरिक अधिकार हासिल कर सकती है ! सेक्युलरिज्म का मतलब भी हमारे दिमाग़ में एकदम साफ़ होना चाहिए ! इसका मतलब न तो 'सर्व-धर्म-सद्भाव' होता है, न ही लोगों पर जबरन नास्तिकता थोपने जैसी कोई चीज़ होता है ! सेक्युलरिज्म का मतलब है कि प्रत्येक नागरिक को अपने निजी धार्मिक या नास्तिक विचारों को अपने निजी जीवन में मानने की पूरी और समान आज़ादी हो, पर शिक्षा, राजनीति सहित सम्पूर्ण सार्वजनिक जीवन में धर्म की कोई दखल न हो ! सिर्फ़ एक ऐसे ही सेक्युलर समाज में धार्मिक अल्पसंख्यक आबादी का धार्मिक आधार पर उत्पीड़न समाप्त हो सकता है और उसे समान नागरिक अधिकार प्राप्त हो सकते हैं !

चूँकि हमारा संविधान सेक्युलरिज्म की बात करते हुए भी सार्वजनिक जीवन में -- राजनीति, शिक्षा और विधि-निर्माण आदि में -- धर्म की दखलंदाज़ी को कत्तई नहीं रोकता, चूँकि यहाँ सेक्युलरिज्म की व्याख्या 'सर्व-धर्म-सद्भाव' के रूप में की जाती है, इसलिए यहाँ धार्मिक अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न का एक आधार पहले से ही मौजूद है जिसका फ़ायदा आजकल हिन्दुत्ववादी फासिस्ट उठा रहे हैं ! दूसरी बात, देश के गुलाम हो जाने के कारण पुनर्जागरण और प्रबोधन के प्रोजेक्ट यहाँ अधूरे रह गए और पूँजीवाद यहाँ क्रांतियों के द्वारा सत्ता में नहीं आया ! नतीज़तन, पूँजीवादी आधुनिकता का प्रोजेक्ट भी यहाँ खंडित-विरूपित ढंग में ही फलीभूत हुआ ! तमाम नयी तकनोलोजी, नयी उपभोक्ता सामग्रियों के इस्तेमाल के बावजूद हमारा समाज अन्दर से धार्मिक-जातिगत और लैंगिक दकियानूसी के बंधनों में जकड़ा हुआ है ! इन चीज़ों का समूल नाश किये बिना भारतीय समाज को सच्चे अर्थों में एक सेक्युलर समाज बनाया ही नहीं जा सकता ! और यह काम एक रेडिकल तूफानी सामाजिक आन्दोलन की तथा क्रांतिकारी राजनीतिक बदलाव की माँग करता है ! धर्मों और जातियों की पहचान के आधार पर संगठन बनाकर, कुछ सुधारवादी धार्मिक सम्प्रदाय बनाकर या पूँजीवादी चुनावी राजनीति की गटरगंगा में उतरकर यह काम किया ही नहीं जा सकता ! इसके लिए पूँजीवादी राजनीति की सीमाओं का अतिक्रमण करना होगा !

आज हम जिस रुग्ण और सड़ी-गली बूढ़ी पूँजीवादी दुनिया में जी रहे हैं, उसमें नए सिरे से कोई "स्वस्थ जनवादी सेक्युलर पूँजीवाद" ला पाना नामुमकिन है ! जो ज्यादा स्वस्थ ढंग से विकसित हुए पूँजीवादी समाज थे, वे भी मंदी और ढाँचागत संकट के इस दौर में निरंकुश तानाशाहियों और फासिज्म की दिशा में आगे बढ़ते जा रहे हैं ! आज के युग में फासिस्ट बर्बरता के अतिरिक्त इंसानियत के सामने अगर कोई और विकल्प है तो वह है -- समाजवाद ! सिर्फ़ और सिर्फ़, समाजवादी समाज ही सच्चे अर्थों में सेक्युलर समाज हो सकता है जहाँ धर्म के आधार पर राजनीति और धार्मिक आधार पर उत्पीड़न की कोई गुंजायश ही नहीं होगी ! आपको लगता होगा कि भारत के ये आरामतलब, दुरंगे, चुनावबाज़ कम्युनिस्ट भला कैसे इस काम को नेतृत्व दे सकते हैं ? आपका सोचना ठीक है ! ये गत्ते की तलवारों वाले, लिल्ली घोड़ी पर सवार नकली योद्धा ये काम नहीं कर सकते ! पर यह ऐतिहासिक कार्यभार खुद अपना कर्ता गढ़ लेगा ! जो लोग मूल समस्या को और आज के ऐतिहासिक कार्यभार को समझते हैं, वे अवाम के संघर्षों में तपते-निखरते हुए एक नए क्रांतिकारी नेतृत्व का निर्माण करेंगे ! मुस्लिम और दलित समाज की जो प्रबुद्ध और तर्कशील युवा पीढ़ी है, उसे इस बात को समझना होगा और चुनावी राजनीति और पहचान राजनीति (आइडेंटिटी पॉलिटिक्स) की घुमावदार गलियों से बाहर निकलकर इस मुहिम में शामिल होना होगा ! मुस्लिम और दलित आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा गरीब मेहनतक़श है ! इस आबादी को इन्हीं के बीच से उभरे कुछ पढ़े-लिखे खुशहाल मध्यवर्गीय लोग पहचान राजनीति के आधार पर अपने साथ इकट्ठा करते हैं और बौद्धिक-राजनीतिक दुनिया में अपनी गोट लाल करते हैं ! ये भितरघाती सबसे खतरनाक होते हैं ! आप उन तमाम दलित और मुस्लिम नेताओं को देखिये जो आज गरमागरम बातें करते हैं और कल या तो सीधे उछलकर हिन्दुत्ववादी फासिस्टों की गोद में बैठ जाते हैं या परदे के पीछे से उन्हीं की मदद करने लगते हैं ! बात एकदम साफ़ है कि लड़ाई को वर्गीय आधार पर संगठित करना होगा ! निश्चय ही इस राह में एक बाधा यह है कि मुस्लिम मेहनतक़श को हिन्दू मेहनतक़श के धार्मिक पूर्वाग्रहों से, और दलित मेहनतक़श को गैर-दलित मेहनतक़श के जातिगत पूर्वाग्रहों से टकराना पड़ सकता है ! पर इसका जवाब धार्मिक और जातिगत आधार पर गोलबंदी कत्तई नहीं है ! वह कहीं नहीं ले जायेगी ! वर्गीय आधार पर गोलबंदी को मज़बूत बनाने के लिए मेहनतक़शों के बीच धार्मिक-जातिगत रूढ़ियों, पूर्वाग्रहोंऔर पार्थक्य की दीवारों के विरुद्ध जुझारू सामाजिक आन्दोलन चलाने होंगे ! ऐसे जुझारू, आमूलगामी सामाजिक आन्दोलनों के बिना कोई क्रांतिकारी राजनीतिक-आर्थिक आन्दोलन न तो समाज में जड़ पकड़ पायेगा, न ही आगे डग भर पायेगा !

आम मेहनतक़श मुस्लिम आबादी को इस या उस चुनावी पार्टी का वोट बैंक बनने से बचना होगा ! उसे अपने बीच के धार्मिक कठमुल्लों और मौकापरस्त कैरियरवादी धूर्त पढ़े-लिखे बौद्धिकों से भी बचना होगा जो धार्मिक आधार पर जत्थेबंदी करके नेतागीरी करने के सपने लिए आन्दोलनों में घुसते हैं और उन्हें दिशाहीन कर देते हैं और बिखरा देते हैं ! न सिर्फ़ धार्मिक कट्टरपंथियों और मौकापरस्त कैरियरवादियों के विरुद्ध, बल्कि आम मुस्लिम आबादी में व्याप्त धार्मिक रूढ़ियों, अशिक्षा, संकीर्णता और दकियानूसीपन के ख़िलाफ़ भी एक सामाजिक-सांस्कृतिक-शैक्षिक आन्दोलन खड़ा करने के लिए प्रबुद्ध और तर्कशील, आधुनिक और खुले विचारों वाले मुस्लिम युवाओं को आगे आना होगा !

सी ए ए-एन पी आर-एन आर सी विरोधी जनांदोलन में शिरक़त करते हुए हमलोगों को कई बुरे और कड़वे अनुभव भी हुए ! कई जगह ऐसे धार्मिक तत्व नेतृत्व पर वर्चस्व के लिए इतने आतुर दीखे कि वे आन्दोलन को सिर्फ़ मुस्लिमों के आन्दोलन का रंग देना चाहते थे और गैर-मुस्लिम सेक्युलर तत्वों को किनारे करने की कोशिश करते थे ! ऐसा ही काम कुछ पढ़े-लिखे मुस्लिम उच्च-मध्यवर्गीय तत्व भी कुछ अलग ढंग से करते थे, जिनकी अपनी निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ हुआ करती थीं ! ऐसे तत्वों की चिंता आन्दोलन की सफलता से अधिक मुस्लिम समाज का नेता बनाने की, या बुर्जुआ चुनावी राजनीति में अपना वज़न और भाव बढ़ाकर मोल-तोल करने की हुआ करती है ! हमलोग लगातार लोगों को यह बताने की कोशिश करते हैं कि सी ए ए-एन पी आर-एन आर सी की मार सिर्फ़ मुस्लिम आबादी पर ही नहीं बल्कि देश की समूची गरीब आबादी पर पड़ेगी, चाहे वे मज़दूर और अन्य मेहनतक़श हों या आम मध्य वर्ग के लोग हों ! यह समूची आम जनता की लड़ाई है ! जो लोग इसे सिर्फ़ मुस्लिमों की लड़ाई बताते हैं वे प्रकारांतर से मुस्लिम आबादी को अलग-थलग करने और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की संघी साज़िश के मददगार ही साबित होते हैं ! माना कि हिन्दुत्ववादी अपने इस कदम के द्वारा मुस्लिम आबादी को विशेष रूप से टारगेट कर रहे हैं, लेकिन इसके ख़िलाफ़ भी सिर्फ़ मुस्लिमों को गोलबंद करके नहीं लड़ा जा सकता ! इसमें तमाम प्रगतिशील और सेक्युलर तत्वों को अपने साथ लेना होगा I ज्यादा से ज्यादा आम मेहनतक़श आबादी और सुलझे ख़यालात वाले मध्य वर्ग के लोगों को साथ लिए बिना यह आन्दोलन मज़बूत और दीर्घजीवी हो ही नहीं सकता और न ही इसे फासिज्म-विरोधी क्रांतिकारी संघर्ष की एक कड़ी बनाया जा सकता है !

(16मार्च, 2020)

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