(वे 1945-46 के तूफानी वर्ष थे। उपनिवेशवाद के विरुद्ध भारतीय जनता के मुक्ति-संघर्ष के निर्णायक दिन थे। किसानों-मज़दूरों के साथ छात्र-युवा भी सड़कों पर संघर्ष कर रहे थे और शौर्य और क़ुर्बानी के नए कीर्तिमान गढ़ रहे थे ! उसीसमय, जब गया से प्रकाशित साप्ताहिक 'उषा' के सम्पादक ने पत्रिका के होली विशेषांक के लिए निरालाजी से रचना की माँग की तो उन्होंने यह कविता उनको भेजी जो 'उषा' के मार्च'1946 में प्रकाशित होलिकांक में छपी थी!)
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ख़ून की होली जो खेली
युवकजनों की है जान ;
ख़ून की होली जो खेली ।
पाया है लोगों में मान,
ख़ून की होली जो खेली ।
रँग गये जैसे पलाश;
कुसुम किंशुक के, सुहाए,
कोकनद के पाए प्राण,
ख़ून की होली जो खेली ।
निकले क्या कोंपल लाल,
फाग की आग लगी है,
फागुन की टेढ़ी तान,
ख़ून की होली जो खेली ।
खुल गई गीतों की रात,
किरन उतरी है प्रात की ;-
हाथ कुसुम-वरदान,
ख़ून की होली जो खेली ।
आई सुवेश बहार,
आम-लीची की मंजरी;
कटहल की अरघान,
ख़ून की होली जो खेली ।
विकच हुए कचनार,
हार पड़े अमलतास के ;
पाटल-होठों मुसकान,
ख़ून की होली जो खेली ।
-- निराला
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