Thursday, March 26, 2020


जनता को सीमित ही सही, लेकिन कुछ जनवादी अधिकार और नागरिक आज़ादी देने वाले जो भी संवैधानिक और क़ानूनी प्रावधान हैं वे सत्ताधारियों से हमें तोहफ़े के तौर पर नहीं प्राप्त हुए हैं I वे लम्बे और कठिन जनसंघर्षों और क़ुर्बानियों के बाद हमें हासिल हुए हैं I

पूँजीवादी व्यवस्था का संकट जब बढ़ता है तो समाज में मौजूद सीमित जनवादी स्पेस भी संकुचित होने लगता है I ऐसे में नये-नये दमनकारी क़ानून बनाने लगते हैं, जनता को थोड़े-बहुत अधिकार देने वाले पुराने कानून बदले जाने लगते हैं और न्यायपालिका की ऊँची कुर्सियों पर बैठे हुए महामहिम लोग सरकारों के निर्देश पर फैसले देते हुए मौजूद क़ानूनों को भी ताक पर रख देते हैं, या उनकी उल्टी-सीधी व्याख्याएँ करने लगते हैं I कुछ आदर्शवादी न्यायाधीश अगर ऐसा नहीं करते तो उन्हें ठिकाने लगा दिया जाता है या हाशिये पर डाल दिया जाता है !

पूँजीवाद के चरम संकट के चलते जब फासिस्ट सत्ता में आ जाते हैं तो बुर्जुआ जनवादी स्पेस समाप्त हो जाता है, या उसका महज औपचारिक अस्तित्व रह जाता है I ऐसे में बुर्जुआ न्याय और न्यायपालिका की भी कलई पूरीतरह से उतर जाती है I एक फासिस्ट सत्ता के रहते अदालतों, तवायफ़ों के कोठों और शेयर दलालों के दफ़्तरों में कोई विशेष अंतर नहीं रह जाता I

तब एक समय आता है जब लोगों के भरम टूटने लगते हैं और धीरज जवाब देने लगता है I उन्हें यह बात समझ आने लगती है कि हक़ और इंसाफ़ की लड़ाइयाँ हर-हमेशा क़ानूनी दायरों तक सीमित रहकर नहीं लड़ी जातीं ! तब जन-संघर्षों का चरित्र सीधे सत्ता-विरोधी बनने लगता है I संघर्षों की पाठशाला में जनता अपने हरावलों की, अपने क्रान्तिकारी शिक्षकों की इस बात को आसानी से समझने लगती है कि बल द्वारा स्थापित, बल द्वारा संचालित और बल द्वारा सुरक्षित राज्यसत्ता का ध्वंस बल द्वारा ही किया जा सकता है और बल द्वारा ही एक सच्ची लोकसत्ता की स्थापना की जा सकती है I

जब ऐसे हालात बनने लगते हैं तो लोग तमाम चेतावनियों, बंदिशों, धमकियों, लाठी-गोली- जेलखानों, फर्जी मुठभेड़ों और मुक़दमों की परवाह किये बिना सडकों पर उमड़ने लगते हैं ! तब जनसंघर्ष इतिहास का न्यायालय बन जाते हैं और आम शोषित-उत्पीड़ित जनता न्यायाधीश बन जाती है I याद रखिये, इतिहास की तमाम क्रान्तियाँ उससमय मौजूद क़ानूनों के दायरे में क़ैद रहकर नहीं, बल्कि उनको तोड़कर हुई हैं !

.

कुछ बातें और जोड़ दें !

जाहिर है कि जन-क्रान्ति एक सचेतन, सुसंगत, सुनियोजित वैज्ञानिक क्रिया है और एक वैज्ञानिक ,दृष्टि-संपन्न नेतृत्व के बिना जन-विद्रोहों को क्रान्ति में नहीं तब्दील किया जा सकता ! अगर किसी देश में ऐसा देश-स्तरीय क्रान्तिकारी नेतृत्व मौजूद न हो, या पहले कभी मौजूद ऐसा नेतृत्व अपनी वैचारिक ग़लतियों-कमज़ोरियों के चलते पथभ्रष्ट हो गया हो या बिखर गया हो, तो वहाँ नया क्रान्तिकारी नेतृत्व गढ़ने की ज़रूरत होती है ! यह नया क्रान्तिकारी नेतृत्व क्रान्ति के विज्ञान, समाज की गतिकी और वर्ग-संघर्षों के इतिहास के गहन अध्ययन के साथ ही जनता के जीवन और संघर्षों की पाठशाला में भी पढ़ता-सीखता है ! जन-संघर्षों के दहन-पात्र में ही वह नया फौलाद ढलता है ! यह प्रक्रिया सामान्य दिनों में भी जारी रहती है, लेकिन जब ऐसे दौर आते हैं जब जन-संघर्षों की तूफानी लहरें उन्मत्त होकर चिग्घाड़ने और तटों से टकराने लगती हैं, तो नए क्रान्तिकारी नेतृत्व की तैयारी के लिए वह दुर्लभ ऐतिहासिक कालखंड होता है ! क्योंकि तूफ़ानी लहरों पर सवारी करने की कला उनपर सवारी करने का जोखिम उठाये बिना नहीं सीखी जा सकती !

(9मार्च, 2020)

No comments:

Post a Comment