Wednesday, January 08, 2020



इतने में अँधेरे भीतरी घर से
निकल कर काल पीड़ित सत्य (ऊंचा क़द ,
जमाकर नाक पर टूटा हुआ चश्मा ,
दिखा अखबार ) कहता है
सुना तुमने !!
धधकती जा रही है ग्रंथशाला भी
हमारे पर्सिपोलिस की !!
कहाँ फ्रामरोज़ ( पण्डितराज )
केटायून (कवयित्री )
कहाँ बहराम ( संपादक )
कहाँ रुस्तम
उन्होंने सिर्फ नालिश की

अरे रे , सिर्फ़ नालिश की अंधेरी उस अदालत में
जहां मुंशी और मुंसिफ पी रहे थे
लुटेरे के अर्दली के साथ
रम , शैम्पेन , ह्विस्की --जब
उड़ेले जा रहे थे खून कैरोसीन के पीपे
लगाई जा रही थी सींक माचिस की
कहाँ थे तुम

कहाँ थे तुम
कि जब दस मंजिलों , दस गुंबदों वाली
सुलगती जा रही थी लायब्रेरी पर्सिपोलिस की
हमारे गहन जीवन-ज्ञान
मानव -मूल्य के उस एक्रोपोलिस की !!
... ...

-- मुक्तिबोध ('उस दिन')

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