Sunday, August 18, 2019

महापरिनिर्वाण-यात्रा पर निकल चुके आचार्यश्री का दर्शन

महापरिनिर्वाण-यात्रा पर निकल चुके आचार्यश्री का दर्शन

जब मैं पहुँची मिलने के लिए,
लोगों ने बताया,’वह तो निकल चुके हैं
अपनी अंतिम यात्रा पर !’
सोचा, मिल ही लेती हूँ एक बार साहित्य के इस पुराने
यशस्वी, प्रतापी आचार्य से |
निकट अतीत चाहे जैसा भी रहा हो
सुदूर  अतीत तो था ही गरिमामय और
कुछ ईमानदार सत्कर्मों से भरा हुआ |
सो लपकी मैं निगमबोध घाट जाने वाली सड़क पर |
उसदिन हड़ताल में सूनी थीं राजधानी की सड़कें
कहीं से आग लगने और कहीं से गोली चलने की खबरें भी आ रही थीं |
कश्मीरी गेट आई.एस.बी.टी. के पास
लेकिन कुछ चहल-पहल थी
जीवन की कुछ हलचल थी |
सहसा वहीं मैंने देखा उन्हें
पटरी पर एकदम किनारे झुके हुए
पैरों को धीरे-धीरे घसीटते हुए, निगमबोध की ओर जाते हुए |
वह एक पुरानी जर्जर चादर ओढ़े हुए थे अपने यश-कीर्ति की
पुरस्कारों-सम्मानों के बेरंग हो चुके गोटों-बेलबूटों से सजी हुई
जो अपनी सारी चमक खो चुकी थी और
भिखमंगे की कथरी बन चुकी थी |
पुरानी स्मृतियों में लिथड़ा हुआ उनका सिर बेतहाशा हिल रहा था
और कभी आशीर्वाद देते-देते थक जाने वाले हाथ इसतरह
काँप रहे थे कि सहारे की लाठी छूट-छूट जा रही थी |
नज़दीक जाकर देखने पर पाया कि उनकी छाती में
धँसा हुआ था अपने घोषित उसूलों और प्रतिबद्धताओं के साथ
विश्वासघात का जंग लगा पुराना चाकू |
उनके पूरे शरीर से समझौतों के नासूर रिस रहे थे
सड़क की पटरी पर खून और मवाद की
एक लकीर सी बनाते हुए |
प्रशंसा और सम्मान के शोर और चकाचौंध में
अपने ज़मीर से की गयी सारी वायदाखिलाफ़ियाँ
उनके सिर पर हथौड़े की तरह बज रही थीं
और वह सिर पकड़कर बैठ जा रहे थे बीच-बीच में |
आँखों के आगे छा गए अँधेरे में
भूतिया कंकालों की तरह नाचती थीं
उनकी कायरता और शातिराना चालाकियाँ,
पद-लिप्सा और सम्मान-लोलुपता |
अपने अंतिम समय में वह अकेले थे
शायद अपनी ग्लानि के साथ,
या शायद, इतनी जल्दी भुला दिए जाने और अप्रासंगिक
हो जाने के शोक में डूबे हुए थे |
मैंने उन्हें देखा और
उन्हें और अधिक तक़लीफ़
और शर्मिन्दगी में डुबोने के बजाय
उल्टे पैर वापस लौट आयी |

(13अगस्‍त, 2019)

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