Monday, October 29, 2018

इक्कीसवीं सदी के उजाड़ में प्यार

इक्कीसवीं सदी के उजाड़ में प्यार

बात वर्षों पुरानी है !
जो मुझे बहुत चाहने लगा था
उसने भी तंग आकर घोषित कर दिया एक दिन कि
आने वाले दिनों की एक
अंधी प्रतीक्षा हूँ मैं I
और यह उससे भी बहुत-बहुत पहले की बात है I
जब मेरी आत्मा के पंख उगने लगे थे
तो मैंने किसी धूमकेतु से
प्यार करना चाहा था
पर मुझसे प्यार करना चाहता था
क़स्बे का घंटाघर
या कोई शाही फरमान
या कोई सजावटी साइन बोर्ड
या पंक्चर लगाने की दूकान के बाहर पड़ा
कोई उदास, परित्यक्त टायर I

जिन दिनों तमाम क़रार ढह रहे थे,
वायदे टूट रहे थे
और धीरज के साथ सपने कूटकर
सड़कें बनाई जा रही थीं,
मैं किसी पुरातन प्रतिशोध की तरह
जंगलों में सुलग रही थी I
फिर सूखे पत्ते धधक कर जलने लगे
और एक लंबा समय आग के हवाले रहा I
जलते हुए रास्ते से एक बार फिर मैं
प्यार की खोज में निकली
पर तबतक बहुत देर हो चुकी थी I
तब सपनों के अर्थ बताने वाले लोग
सड़कों पर मजमे लगा रहे थे,
दार्शनिक ताश के पत्ते फेंट रहे थे,
वैज्ञानिक सिर्फ अनिश्चितता के बारे में
अनुमान लगा रहे थे
और महाविनाश को लेकर
साइन्स फिक्शन लिख रहे थे,
मार्क्सवाद के प्रोफ़ेसर पंचांग बाँच रहे थे
और कविगण उत्तर-सत्य का आख्यान रच रहे थे
या देवकन्याओं के बारे में
अलौकिक वासनामय कविताएँ लिख रहे थे
और सोच रहे थे कि क्या अमर प्रेमी भी
कभी पा सके थे एक वास्तविक स्त्री का दिल ?

अगर कहीं थोड़ा-बहुत प्यार
शायद बचा रह गया था
तो बेहद मामूली,
नामालूम चेहरों वाले चन्द
आम नागरिकों के पास
पर उसे भी खोज पाना
इतना आसान नहीं था !

( 15 अक्टूबर, 2018 )

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