Sunday, December 03, 2017






राबर्ट फ्रास्ट ने अपने एक निबंध में कहा है कि कविता का एकमात्र आधार दुख होना चाहिए: 'कविता में सिर्फ दुख रहने दो।' लेकिन मुझे नहीं मालूम राबर्ट फ्रास्ट तब क्या सोचते जब कोई नवयुवक आत्महत्या करता और अपने खून के निशान फ्रास्ट की किसी किताब पर छोड़ जाता। मेरे साथ ऐसा हुआ है-- यहाँ, इसी मुल्क में। ज़िंदगी से भरपूर एक नौजवान ने मेरी पुस्तक के बगल में अपने को मार डाला। उसकी मृत्यु में मेरा कोई दोष नहीं था, लेकिन खून के धब्बों से भरा वह कविता-पृष्ठ तमाम कवियों को चिंतित कर देने के लिए काफी है। मैंने अपनी पुस्तक के खिलाफ जो कुछ कहा उसका मेरे विरोधियों ने राजनीतिक इस्तेमाल किया, जैसाकि वे मेरे हर कथन का करते आए हैं। यह उन्हींकी देन है कि मेरे भीतर सिर्फ आस्थावान कविताएँ लिखने की इच्छा जागी। उन्हें इस प्रसंग की जानकारी नहीं थी। ऐसा नहीं कि अकेलेपन, व्यथा या विषाद की अभिव्यक्ति मैंने बिल्कुल वर्जित कर दी हो। लेकिन मैं चाहता हूँ कि अपने लहजों को बदलता रहूँ, तमाम आवाज़ें पाऊँ, तमाम रंगों की तलाश करूँ, और जहाँ कहीं भी जीवन शक्तियाँ रचना या विनाश में लगी हों, उन्हें देखूँ।
जो दौर मेरे ज़िंदगी में आए हैं वे मेरे कविता में भी आए हैं। मैंने एकाकी बचपन और दूरदराज़ सबसे कटे हुए देशों में बीती किशोरावस्था से एक विराट मानव-समूह में शरीक़ होने तक की यात्रा की है। इससे मुझे पूर्णता हासिल हुई, बस। कवियों का पीड़ितात्मा होना पिछली सदी की बात थी। ऐसे भी कवि हो सकते हैं जो जीवन को जानते हों, उसकी समस्याओं को जानते हों, जो विभिन्न धाराओं को पार करते हुए जीवित रहते हों और निराशा से गुजरकर एक परिपूर्णता तक पहुँचते हों।

--- पाब्लो नेरूदा (रीता लेवेत से एक बातचीत)

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