हिन्दी के एक प्रगतिशील माने जाने वाले आलोचक अपनी वाल पर अध्यात्मवाद को धर्म से अलग बताते हुए मार्क्सवाद की कमी बता रहे हैं और चमत्कार को नमस्कार कर रहे हैं। मैंने टिप्पणी की तो जवाब दिया कि वे मार्क्सवादी नहीं हैं , उन्होने मार्क्सवाद पढ़ा भी नहीं है ( लेकिन उसकी कमी निकाल रहे हैं, शायद 'दिव्य चक्षु' से देखकर)। उन्होने यह भी बताया है कि वे दक्षिणपंथी विचारों के जितने विरोधी हैं उतने ही वामपंथियों-मार्क्सवादियों के भी। ख़ैर, यह तो ग़नीमत है। साहित्य की दुनिया में दर्जनों ऐसे घोषित मार्क्सवादी हैं जो धर्म में गहरी आस्था रखते हैं।
मुंबई में एक जाने-माने जनवादी कवि हैं जो घनघोर पूजा-पाठ करते हैं और दबे-छिपे तौर पर जाति में भी विश्वास रखते हैं। पटना में एक धुरंधर साहित्येतिहास-शोधक और आलोचक हैं जिनके साथ यदि आप सड़क पर चलें तो वे अक्सर पीछे छूट जाते हैं क्योंकि वे रास्ते के हर मंदिर, बरगद-पीपल को सिर झुकाकर प्रणाम करने लगते हैं। मैनेजर पांडे को भागवत कथा सुनते तो पूरे देश ने सोशल मीडिया पर देखा ही।
निजी और पारिवारिक जीवन में ज़्यादातर मार्क्सवादी जातिगत और धार्मिक रूढ़ियों का पालन इसलिए करते हैं कि वे सामाजिक रूप से कायर होते हैं, लेकिन यदि वे दिल से धर्म और अध्यात्म में आस्था रखते हैं तो इसका अर्थ यह है कि वे मार्क्सवादी दर्शन का 'क-ख-ग' पढे बिना ही स्वयं को मार्क्सवादी घोषित किए हुए हैं। हिन्दी में ऐसे महामहिम विचारक आलोचकों और रचनाकारों की भरमार है। साहित्य और आलोचना की भीषण दुर्गति का यह एक बुनियादी कारण है (रही-सही कसर गुटबंदी-हदबंदी-चकबंदी और पद-पीठ-पुरस्कारों की जोड़-तोड़ पूरी कर देती है)। साहित्यकार साहित्य पढ़कर साहित्य लिख देते हैं और आलोचक आलोचना और थोड़ी-बहुत साहित्य-सैद्धांतिकी पढ़कर आलोचना लिख देते हैं। मार्क्सवाद हमें विश्व-दृष्टि और पद्धतिशास्त्र देता है। अतः, मार्क्सवादी दर्शन का अध्ययन किए बिना वास्तव में कोई मार्क्सवादी आलोचक हो ही नहीं सकता। हिन्दी की प्रगतिशील आलोचना की दयनीय दुर्दशा के लिए अपढ़-कुपढ़ कथित मार्क्सवादी जिम्मेदार हैं। ये कैरियरवादी लोग हैं, इनकी प्रगतिशीलता और जनवादी प्रतिबद्धता नकली है। ऐसे लोगों के कुकर्मों को इतिहास और आने वाली पीढ़ियाँ कभी माफ नहीं करेंगी।
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