ज़माने ने नगर से यह कहा कि
ग़लत है वह , भ्रम है
हमारा अधिकार सम्मिलित श्रम और
छीनने का दम है !
शायद है , ज़िंदगी की , मन की
तसवीरें फ़िलहाल
इससमय हम
नहीं बना पायेंगे
अलबत्ता पोस्टर हम लगा जायेंगे ।
हम धधकायेंगे ।
मानो या मानो मत
आज तो चंद्र है , सविता है ,
पोस्टर ही कविता है !!
वेदना के रक्त से लिखे गए
लाल-लाल घनघोर
धधकते पोस्टर
गलियों के कानों में बोलते हैं
धड़कती छाती की प्यार भारी गरमी में
भाफ़-बने आँसू के खूँखार अक्षर !!
.....
मुझपर क्षुब्ध बारूदी धुएँ की झार आती है
व उनपर प्यार आता है
कि जिनका तप्त मुँह
संवला रहा है
धूम लहरों में
कि जो मानव भविष्यत-युद्ध में रत है ,
जगत की स्याह सड़कों पर ।
कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
सभी प्रश्नोत्तरी की तुंग प्रतिमाएँ
गिराकर तोड़ देता हूँ हथौड़े से
कि वे सब प्रश्न कृत्रिम और
उत्तर और भी छलमय
समस्या एक --
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव
सुखी , सुंदर व शोषण-मुक्त
कब होंगे ?
कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
उमगकर
जन्म लेना चाहता फिर से
कि व्यक्तित्वांतरित होकर
नये सिरे से समझना और जीना
चाहता हूँ , सच !!
.....
अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे ।
तोड़ने ही होंगे
मठ और गढ़ सब ।
पहुँचना होगा दुर्गम पर्वतों के उस पार
तब कहीं देखने मिलेंगी बाहें
जिसमें कि प्रतिपल कांपता रहता
अरुण कमल एक ...
.....
अनाशा की इन अँधेरी खाइयों में
अब वनस्पति उग रही है !!
लाल किंशुक , पीत चम्पा ,
आम्र तरुवर !!
अब मनस्पति सिर उठाता जा रहा है
अब गगन में फिर गरजती स्वर्णशम्पा
मुग्ध अन्तर !!
अनाशा की इन अँधेरी खाइयों में
चमचमाती हैं खदानें
थोरियम की
हो गया व्यक्तित्व का परिहार पूरा
खो गई सत्ता हमारे इस अहं की ।
गमकता है सत परछाइयों में ।
अनाशा की इन अँधेरी खाइयों में
अब वनस्पति उग रही है
अब मनस्पति सिर उठाता जा रहा है !!
.....
नहीं होती , कहीं भी खत्म कविता नहीं होती
कि वह आवेग-त्वरित काल-यात्री है ।
व मैं उसका नहीं कर्ता ,
पिता-धाता
कि वह कभी दुहिता नहीं होती
परम स्वाधीन है वह विश्व-शास्त्री है ।
गहन-गम्भीर छाया आगमिष्यत की
लिये , वह जन-चरित्री है ।
नए अनुभव व संवेदन
नए अध्याय-प्रकरण जुड़
तुम्हारे कारणों से जगमगाती है
व मेरे कारणों से सकुच जाती है ।
.....
अगर मेरी कविताएं पसंद नहीं
उन्हें जला दो ,
अगर उसका लोहा पसंद नहीं
उसे गला दो ,
अगर उसकी आग बुरी लगती है
दबा डालो ,
इस तरह बला टालो !
लेकिन याद रखो
यह लोहा खेतों में तीखे तलवारों का जंगल बन सकेगा
मेरे नाम से नहीं , किसी और के नाम से सही ,
और यह आग बार-बार चूल्हे में सपनों-सी जागेगी
सिगड़ी में ख़यालों सी भड़केगी , दिल में दमकेगी
मेरे नाम से नहीं किसी और नाम से सही ।
लेकिन मैं वहाँ रहूँगा ,
तुम्हारे सपनों में आऊँगा ,
सताऊँगा
खिलखिलाऊंगा
खड़ा रहूँगा
.....
ज़िन्दगी की कोख से जनमा
नया इस्पात
दिल के खून में रंगकर ।
तुम्हारे शब्द मेरे शब्द
मानव देह धारण कर
असंख्य स्त्री-पुरुष-बालक
बने , जग में भटकते हैं
कहीं जनमे नए इस्पात को पाने ।
झुलसते जा रहे हैं आग में
या मुंद रहे हैं धूल-धक्कड़ में ,
किसी की खोज है उनको ,
किसी नेतृत्व की ।
.....
"जिनके स्वभाव के गंगाजल ने ,
युगों-युगों को तारा है ,
जिनके कारण यह हिंदुस्तान हमारा है ,
कल्याण-व्यथाओं में घुलकर
जिन लाखों हाथों-पैरों ने यह दुनिया
पार लगाई है ,
जिनके कि पूत-पावन चरणों में
हुलसे मन -
से किए निछावर जा सकते
सौ-सौ जीवन ,
उन जन-जन का दुर्दांत रुधिर
मेरे भीतर , मेरे भीतर ।
उनके बाँहों को अपने उर पर
धारण कर वरमाला-सी
उनकी हिम्मत , उनका धीरज ,
उनकी ताकत
पायी मैंने अपने भीतर ।
.....
खुले हुए ग्रन्थों पर जबतक
किरनें फैलें नहीं
हमारे ग्रहणशील संवेदित मन की
तबतक वे सब ग्रंथ-पोटलियाँ
मात्र ग्रंथियां हैं
इसीलिए तुम रचनाकर
महामूर्तियों से न प्रभावित
आतंकित हो
उनकी महानता की चाहे
जितनी गाथाएँ रच दी हों
आलोचक-आत्माओं ने , तुम स्तंभित मत हो ।
.....
इतने में
समंदर में कहीं डूबी हुई जो पुण्य गंगा वह
अचानक कूच करती सागरी तल से
उभर ऊपर
भयानक स्याह बादल-पाँत बनकर
फन उठाती है दिशाओं में ।
( व मेरे कुंद कमरे के अँधेरे में
निरंतर गूँजती तड़-तड़ तड़ातड़ तेज टाइप हो रहे हैं शब्द )
बाहर धूल में भी शब्द गड़ते हैं
कि मुद्रित कर रहा है आसमानी हाथ
( तिरछी मार छीटों की! )
घटाओं की गरज में ,
बिजलियों की चमचमाहट में ,
अँधेरी आत्म-संवादी हवाओं से
चपल रिमझिम
दमकते प्रश्न करती है --
मेरे मित्र ,
कुहरिल गत युगों के अपरिभाषित
सिंधु में डूबी
परस्पर , जो कि मानव-पुण्य धारा है ,
उसीके क्षुब्ध काले बादलों को साथ लायी हूँ ,
बशर्ते तय करो ,
किस ओर हो तुम
.....
अरे ! जन-संग-ऊष्मा के
बिना , व्यक्तित्व के स्तर जुड़ नहीं सकते ।
प्रयासी प्रेरणा के स्रोत ,
सक्रिय वेदना की ज्योति ,
सब साहाय्य उनसे लो ।
तुम्हारी मुक्ति उनके प्रेम से होगी ।
कि तदगत लक्ष्य में से ही
हृदय के नेत्र जागेंगे ,
व जीवन-लक्ष्य उनके प्राप्त
करने की क्रिया में से
उभर ऊपर
विकसते जाएंगे निज के
तुम्हारे गुण
कि अपनी मुक्ति के रास्ते
अकेले में नहीं मिलते ।
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