मुश्किल यह है कि यह मनुष्यता अपनी लक्ष्य-प्राप्ति के लिए जिन संघर्षों की ओर व्यक्ति को ले जाना चाहती है , उसतरफ़ बहुत बार वह मुड़ता ही नहीं । और अगर मुड़ता है , तो गिरता-पड़ता । फलतः ज्ञान , इच्छा और क्रिया में सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता , न वह हो सकता है । मनुष्यता के संदर्भ के बिना यदि ज्ञान , इच्छा और क्रिया में सामंजस्य स्थापित भी हो , तो वह लक्ष्यहीन सामंजस्य है । रीता सामरस्य है । प्रत्येक काल में मनुष्यता के सम्मुख , अपने उद्धार के कुछ विशेष लक्ष्य रहे हैं । उन लक्ष्यों की ओर जिस आदमी की भीतरी मनुष्यता व्यावहारिक सामाजिक क्षेत्र में जैसा और जितना संघर्ष करती है , उसीके अनुसार वह मनुष्य अपना अंतर्बाहय संतुलन और सामंजस्य स्थापित कर सकता है । निश्चय ही , स्वभाव-भेदानुसार मनुष्य के विभिन्न पक्षों का संयोजन तथा संतुलन भी भिन्न होगा । मनुष्यता के संघर्ष में पड़े हुए एक कलाकार का आंतरिक सामंजस्य लक्ष्यहीन भी हो सकता है । उदाहरणतः , महाबलशाली स्वेच्छाचारी शासक अपने ज्ञान तथा इच्छानुसार , जनता-विरोधी कार्य भी कर सकता है । उसमें भीतरी विघटन नहीं होता । विघटन की क्रिया तो उन लोगों में सर्वाधिक होती है जो न पूरे लक्ष्यवान होते हैं , न गत-लक्ष्य ; जो अधकचरे होते हैं और प्रवृत्तियों के वशीभूत होकर इधर-उधर भागते फिरते हैं । लक्ष्यहीन सामंजस्य रिक्त सामंजस्य है ।
--- गजानन माधव मुक्तिबोध ( कामायनी : एक पुनर्विचार )
No comments:
Post a Comment