Tuesday, December 04, 2012

फ़ैज अहमद फ़ैज की दो नज्‍़में


इधर न देखो

इधर न देखो कि जो बहादुर
क़लम के या तेग़ के धनी थे,
जो अज्‍़मों हिम्‍मत के मुद्दई थे,
अब उनके हाथों में सिंदक़ो-ईमां की
आज़मूदा पुरानी तलवार मुड़ गई है
जो कजकुलह साहिबे-हशम थे
जो अहंले-दस्‍तार मोहतरम थे
हवस के पुरपेच रास्‍तों में
कुलह किसी न गिरौ रख दी
किसी ने दस्‍तार बेच दी है
उधर भी देखो
जो अपने रख्‍़शां लहू के दीनार
मुफ़्त बाज़ार में लुटाकर
नज़र से ओझल हुए
और अपनी लहद में इस वक्‍़त तक ग़नी हैं,
उधर भी देखो
जो हर्फे़-हक़ की सलीब पर अपना तन सजाकर
जहाँ से रुख्‍़सत हुए
और अहले जहाँ में इस वक्‍़त तक नबी हैं


तुम ही कहो क्‍या करना है

जब दुख की नदि‍या में हमने
जीवन की नाव डाली थी
था कितना कसबल बाहों में
लोहू में कितनी लाली थी
यों लगता था, दो हाथ लगे
और नाव पूरम पार लगी
ऐसा न हुआ, हर धारे में
कुछ अनदेखी मंझधारें थीं
कुछ मांझी थे अनजान बहुत
कुछ बेपरखी पतवारें थीं
अब जो भी चाहो छान करो
अब जितने चाहो दोष धरो
नदि‍या तो वही है नाव वही
अब तुम ही कहो क्‍या करना है
अब कैसे पार उतरना है
जब अपनी छाती पर विश्‍वास बहुत
और याद बहुत से नुस्‍ख्‍़ो थे
यों लगता था बस कुछ दि‍न में
सारी बिपदा कट जायेगी
और सब घाव भर जायेंगे
ऐसा न हुआ कि रोग अपने
कुछ इतने ढेर पुराने थे
वेद उनकी टोह को पा न सके
और टोटके सब बेकार गये
अब जो भी चाहो छान करो
अब जितने चाहो दोष धरो
छाती तो वही है घाव वही
अब तुम ही कहो क्‍या करना है
यह घाव कैसे भरना है 

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