-- कविता
न सिर्फ़ आम मज़दूरों में बल्कि ज्यादातर आगे बढ़े हुए और जुझारू चेतना वाले मज़दूरों में भी स्त्री मज़दूरों की माँगों के प्रति सहानुभूति या समर्थन के रवैये का अभाव दिखायी देता है।
चाहे स्त्री-पुरुष मज़दूरों के लिए समान कार्य के समान वेतन की माँग हो, चाहे मातृत्व अवकाश और नवजात पालन-पोषण अवकाश की माँग हो, चाहे कारख़ानों-वर्कशॉपों में शिशुशाला (क्रेच) और बाल शिक्षा (प्री-नर्सरी और नर्सरी) की व्यवस्था की माँग हो, चाहे कार्यस्थलों पर स्त्री मज़दूरों के लिए अलग टॉयलेट और रेस्टरूम की माँग हो, चाहे रात की पाली में काम करने वाली औरतों के आने-जाने और सुरक्षा के इन्तज़ाम की माँग हो, ज्यादातर पुरुष मज़दूर अक्सर स्त्री मज़दूरों की इन माँगों की या तो उपेक्षा और अनदेखी करते हैं या मन ही मन इनके प्रति विरोध भाव रखते हैं। जो मज़दूर पीस रेट की व्यवस्था को ख़त्म करने और पीस रेट पर काम करने वालों से जुड़ी तमाम माँगों को उचित मानते हैं, उन्हीं में से ज्यादातर ऐसे भी हैं जो चाहते हैं कि उनकी पत्नी, बहन या बेटी घर में ही रहकर तमाम घरेलू ज़िम्मेदारियाँ सम्हालते हुए पीस रेट पर काम करके कुछ कमा लिया करें। इस प्रकार स्त्री मज़दूर चूल्हे-चौखट की ग़ुलामी के साथ-साथ पूँजीपतियों के लिए सबसे सस्ती दरों पर श्रम-शक्ति बेचने वाली और सबसे अधिक हाड़तोड़ मेहनत करने वाली उजरती ग़ुलाम बनकर रह जाती है।
उत्पादन और जीने के तौर-तरीक़े में तकनोलॉजी ने जो भारी बदलाव पैदा किये हैं, उनसे आधुनिक मज़दूर वर्ग का जीवन भी अछूता नहीं है, लेकिन जहाँ तक सोच-विचार-संस्कार का सवाल है, सदियों पुराने स्त्री-विरोधी मर्दवाद (पुरुष स्वामित्ववाद) से उनका पीछा अभी भी छूटा नहीं है। इन पुराने मूल्यों को आज के पूँजीवाद ने न केवल बनाये रखा है, बल्कि खाद-पानी देने का काम भी किया है। केवल एक उदाहरण काफ़ी होगा। आप उन तमाम टीवी सीरियलों और फ़िल्मों को याद कर सकते हैं जो परम्परागत स्त्री की छवि, पुरातनपंथी रीति- रिवाजों और पुरुष स्वामित्ववादी धर्मिक रूढ़ियों को महिमामण्डित करके परोसते रहते हैं। जो पूँजीवाद मुनाफ़ा बढ़ाने और माल बेचने के लिए नयी से नयी तकनोलॉजी के इस्तेमाल के लिए तत्पर रहता है, वहीं मेहनतकश आम जनता को पूँजी की सत्ता के ख़िलाफ़ बग़ावत करने से रोकने के लिए अन्धविश्वास, भाग्यवाद, धार्मिक रूढ़ियों और पुरातनपंथी मूल्यों को न सिर्फ़ अपना लेता है, बल्कि नये-नये ढंग से उनकी पैकेजिंग करके प्रस्तुत करता रहता है। इतिहास पर यदि निगाह डालें तो यूरोप में सत्तासीन होते ही पूँजीपति वर्ग ने न सिर्फ़ 'स्वतंत्रता-समानता-भातृत्व' के झण्डे को धूल में फ़ेंक दिया बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के स्तर पर भी तर्क, विज्ञान और भौतिकवादी मूल्यों को तिलांजलि देकर धार्मिक रूढ़ियों-अन्धविश्वासों को बढ़ावा देने लगा था। फ़िर भी उन्नीसवीं सदी के यूरोपीय पूँजीवादी समाजों में एक हद तक जनवादी मूल्य और स्पेस बने हुए थे। बीसवीं सदी साम्राज्यवाद की सदी थी जब पूँजीवादी पतनशीलता की ऐतिहासिक ढलान की शुरुआत हुई। बुर्जुआ जनवादी मूल्य विघटित होने लगे और समाज में जनवादी स्पेस सिकुड़ता चला गया। बीसवीं सदी के आखिरी दशकों से लेकर अब तक का समय, जिसे भूमण्डलीकरण का दौर कहा जा रहा है, वह पूरी दुनिया के उन्नत और पिछड़े सभी पूँजीवादी समाजों में चरम पतनशील, निरंकुश, सर्वसत्तावादी सांस्कृतिक-सामाजिक मूल्यों के वर्चस्व के साथ ही धार्मिक कट्टरपंथ, पुनरुत्थानवाद और रूढ़िवाद के व्यापक फ़ैलाव का दौर है। एक तो आज का चरम पतनशील पूँजीवादी समाज अपनी स्वतन्त्र गति से इन चीजों को जन्म दे रहा है, दूसरे, शासक पूँजीपति वर्ग मेहनतकश जन-समुदाय को अपनी नारकीय जीवन-स्थितियों के ख़िलाफ़ बग़ावत करने से रोकने के लिए भी भाग्यवाद, अन्धविश्वास और धार्मिक रूढ़ियों को बढ़ावा देता है। आज ऐसा करने में नयी तकनोलॉजी आधरित मीडिया (टीवी, इण्टरनेट आदि) का वह विशेष उपयोग कर रहा है। यानी विज्ञान के सहारे अन्धविश्वास और रूढ़ियों का विज्ञान-विरोधी घटाटोप फ़ैलाया जा रहा है।
भारतीय समाज में ऐसा विशेष तौर पर हो रहा है, जहाँ पूँजीवाद के म(मि और क्रमिक विकास के चलते आम जनजीवन में पूँजीवाद पूर्व अवस्थाओं के धार्मिक मूल्यों, सामाजिक रूढ़ियों, भाग्यवाद, अन्धविश्वास आदि की प्रभावी उपस्थिति बनी रही है। यहाँ बीसवीं सदी में जनवादी मूल्यों का जो विकास हुआ, वह अति सीमित था और आज के पूँजीवादी पतनशीलता के दौर में (जिसे उदारीकरण -निजीकरण-भूमण्डलीकरण का दौर कहा जाता है), रहे-सहे जनवादी मूल्य भी सिकुड़ते-बिखरते जा रहे हैं। पूँजी की गति दोहरे प्रभाव वाली है। पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली एक ओर आम जनता को आधुनिक ढंग से जीने-रहने की चेतना दे रही है, दूसरी ओर वह स्वस्थ जनवादी मूल्यों और तर्कणा के विकास को रोक भी रही है। किसी भी समाज में शासक वर्ग की संस्कृति ही हावी और प्रभावी होती है। अत: आश्चर्य नहीं कि आम जनता भी पतनशील और ग़ैर-जनवादी पूँजीवादी मूल्यों- मान्यताओं और पण्यपूजा की संस्कृति की शिकार है। साथ ही, पूँजीपति वर्ग, सचेत रूप से, अन्धविश्वास, भाग्यवाद और रूढ़िवाद का प्रचार-प्रसार करता है ताकि मेहनतकश जनता की वर्ग चेतना को कुण्ठित करते रहा जा सके।
आइये, अब इसी बात को आम मेहनतकशों के जीवन पर और स्त्री मज़दूरों के प्रति पुरुष-मज़दूरों के दृष्टिकोण पर लागू किया जाये। ज्यादातर मज़दूर गाँव की पृष्ठभूमि (उजड़े हुए या उजड़ते हुए किसान) से आते हैं। इनमें सवर्ण, मधय जातियों और दलित जातियों तीनों पृष्ठभूमि के लोग हैं। एक ओर इन मज़दूरों में औरतों को 'पैरों की जूती' और घरेलू दासी समझने की मानसिकता अभी भी बनी हुई है। दूसरी ओर, शहरों में जो स्त्री-विरोधी आधुनिक बर्बरता अनेक रूपों में फ़ली-पफूली है, उससे पुरुष मज़दूर भी गहराई से प्रभावित हैं। लोकगीतों के पफूहड़ आधुनिक संस्करणों से लेकर पोर्न फ़िल्मों की सी.डी. और मोबाइलों में पोर्न क्लिपिंग्स आदि के ज़रिए बहुत सारे पुरुष मज़दूर जो सांस्कृतिक नशे की खुराक लेते रहते हैं, वह उन्हें मानसिक रुग्णता और स्त्री-विरोधी मानसिकता का शिकार बनाता रहता है। इसकी अभिव्यक्ति उनके पारिवारिक और सामाजिक जीवन में आती रहती है। पिछड़ी वर्ग चेतना वाले ज्यादातर मज़दूर अपने घरों में स्त्रिायों को घरेलू हिंसा का शिकार बनाते हैं, और कार्यस्थलों पर स्त्री मज़दूरों के प्रति यौन उत्पीड़न का रवैया (अश्लील बातें व इशारे, छेड़छाड़ आदि) अपनाते हैं। यह एक कड़वी सच्चाई है कि मालिकों-मैनेजरों-सुपरवाइज़रों के खुले एवं परोक्ष यौन-उत्पीड़न के अतिरिक्त साथ में काम करने वाले पुरुष मज़दूरों के भी ऐसे रवैये का सामना स्त्री-मज़दूरों को करना पड़ता है। जो मज़दूर कार्यस्थलों पर स्त्री-विरोधी रवैया अपनाते हैं वही उस घटिया परिवेश से अपने घर की स्त्रियों को सुरक्षित बचाना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि उनकी पत्नियाँ या बेटियाँ घरों में ही रहकर परिवार सँभालें और साथ ही पीस रेट पर काम करके कुछ कमाई भी कर लिया करें (क्योंकि एक की मज़दूरी की आमदनी से जैसे-तैसे घर चला पाना भी काफ़ी मुश्किल होता है)। ज्यादातर मज़दूर स्त्रियाँ भी अपने पुराने संस्कारों व पिछड़ेपन के चलते घरेलू गुलामी के साथ-साथ पूँजीपतियों के मनमाने अतिशोषण का शिकार होने के लिए तैयार हो जाती हैं। जो स्त्रियाँ (ज्यादातर ठेका, दिहाड़ी या कैज़ुअल मज़दूर के रूप में या पीस रेट पर) कारख़ानों-वर्कशॉपों में काम करने जाती हैं, उन्हें प्राय: स्वास्थ्य पर भीषण प्रभाव डालने वाले काम (पेशागत स्वास्थ्य की समस्या पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों में अधिक होती है) करने होते हैं और मज़दूरी पुरुष मज़दूरों के मुकाबले कम होती है। अपनी पिछड़ी चेतना के चलते और छोटे-छोटे कारख़ानों-वर्कशापों में बिखरे होने के चलते वे अपनी माँगों को लेकर संगठित आवाज़ नहीं उठा पातीं और पुरुष मज़दूरों की द्वेष-भावना के चलते भी उनकी लड़ाई संगठित नहीं हो पाती। इससे न केवल स्त्री-मज़दूरों का पक्ष कमज़ोर होता है, बल्कि पूरे मज़दूर आन्दोलन का पक्ष भी कमज़ोर होता है। आधी आबादी की पहलक़दमी और भागीदारी के बिना कोई भी आर्थिक-राजनीतिक संघर्ष मज़बूत नहीं हो सकता। मज़दूर आन्दोलन और सर्वहारा क्रान्तियों के इतिहास के तथ्य इस सच्चाई की पुरज़ोर तस्दीक करते हैं।
बहुतेरे मज़दूर ऐसे भी हैं जिन्होंने अपनी पत्नियों को गाँव में छोड़ रखा है जहाँ उनकी पत्नियाँ संयुक्त परिवार की पीस डालने वाली घरेलू ग़ुलामी में जी रही हैं, या फ़िर अपने पारिवारिक मालिकाने की ज़मीन या बटाई पर ली गयी ज़मीन पर हाड़ गला रही हैं। ये वे मज़दूर हैं, जिनकी वर्ग चेतना में अभी भी छोटा मालिक किसान होने के संस्कार और ख़ुशहाल मालिक किसान बन जाने के भ्रम मौजूद हैं। इस भ्रम की क़ीमत सबसे अधिक उनके घरों की औरतें चुकाती हैं। यह जगज़ाहिर सी बात है कि शहरों की अपेक्षा गाँवों में औरतों की घरेलू ग़ुलामी ज्यादा उबाऊ, नीरस, दमघोंटू और हाड़तोड़ होती है, सामाजिक परिवेश में पुरुष स्वामित्व के बर्बर पुरातन रूप (बर्बर नये रूपों के साथ-साथ) ज्यादा हावी रहते हैं, ज्यादा कठिन कृषि कार्यों में (रोपाई-बुवाई-निराई आदि) स्त्रियाँ खटती हैं और मज़दूरी भी उन्हें पुरुषों के मुकाबले काफ़ी कम मिलती हैं।
इन सारी बातों का मूल निचोड़ यह है कि समूचे मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए, ज़रूरी है कि सामाजिक गतिविधियों और आर्थिक राजनीतिक संघर्षों में उस आधी आबादी की भागीदारी को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाया जाये जो घरेलू ग़ुलामी के बन्धनों में जकड़ी हुई है। पुरुष मज़दूरों की राजनीतिक शिक्षा का यह एक बुनियादी मुद्दा है कि शेष आधी आबादी को सच्चे मायने में बराबरी का दर्जा देकर पूँजी के विरुद्ध संघर्ष में भागीदार बनाये बिना मज़दूर मुक्ति का लक्ष्य कभी भी हासिल नहीं किया जा सकता। इसके लिए सतत् राजनीतिक शिक्षा और प्रचार के साथ ही सभी पुरुष-स्वामित्ववादी मूल्यों-मान्यताओं-संस्कृति के विरुद्ध एक निरन्तर अभियान चलाना होगा। साथ ही स्त्री मज़दूरों को भी अपनी गुलाम मानसिकता, संस्कार और रूढ़ियों से छुटकारा पाना होगा। न सिर्फ़ सामाजिक उत्पादन के क्षेत्र में सर्वहारा घरों की स्त्रियों को ज्यादा से ज्यादा संख्या में प्रवेश करने के लिए प्रेरित करना होगा, बल्कि मज़दूरों के रोजमर्रा के संघर्षों और दूरगामी राजनीतिक संघर्ष की प्रक्रिया (पूँजी की सत्ता का ध्वंस करके मज़दूर सत्ता की स्थापना का संघर्ष) में भी उन्हें अपनी भागीदारी बढ़ानी होगी। स्त्री मज़दूर अपने अधिकारों के लिए भी सफ़लतापूर्वक तभी लड़ सकती हैं जब समूचे मज़दूर वर्ग के अधिकारों की लड़ाई में भी उसकी भागीदारी हो, यानी उसकी माँग समूचे मज़दूर वर्ग के माँगपत्रक का एक भाग हो। निश्चय ही सामाजिक उत्पादन के साथ ही सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में अपनी भागीदारी बढ़ाने के लिए स्त्री मज़दूरों को अपने रूढ़िगत संस्कारों और ''घरेलूपन'' की मानसिकता के साथ-साथ अपने घरों और समाज में पुरुष मज़दूरों की मर्दवादी धक्कड़शाही एवं चौधराहट की मानसिकता से जूझना होगा। लेकिन यहाँ सवाल मर्द बनाम औरत का नहीं, बल्कि सारे मज़दूरों की मुक्ति का है। स्त्रियों की मुक्ति के बिना मज़दूर मुक्ति सम्भव नहीं और मज़दूर मुक्ति के बिना स्त्रियों की मुक्ति सम्भव नहीं। इसलिए, बुनियादी सवाल यहाँ यह है कि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली, समाज व्यवस्था और राज्यतंत्र का हित साधने वाली पुरुष-आधिपत्य की संस्कृति के विरुद्ध संघर्ष करके स्त्री और पुरुष दोनों ही समुदायों के सर्वहारा की जुझारू वर्ग चेतना किस प्रकार जागृत और संगठित की जाये।
''...उसके शरीर को कुछ विशेष काम करने पड़ते हैं, इसलिए मेहनत करने वाली स्त्री को पूँजीवादी शोषण से बचाने के लिए विशेष व्यवस्था की ज़रूरत है, यह चीज़ मुझे सर्वथा स्पष्ट लगती है। वे अंग्रेज़ स्त्रियाँ जो नारी जाति के इस औपचारिक अधिकार के लिए लड़ रही थीं कि पूँजीपतियों द्वारा शोषण कराने की उन्हें भी उतनी ही छूट मिल जाये जितनी कि पुरुषों को प्राप्त है, उनकी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस बात में दिलचस्पी थी कि पूँजीपति वर्ग को स्त्रियों और पुरुषों का समान शोषण करने की सुविधा हासिल हो जाये। ...मेरा विश्वास है कि स्त्रियों और पुरुषों के बीच वास्तविक समानता केवल तभी स्थापित हो सकती है जबकि पूँजी द्वारा किये जाने वाले दोनों के शोषण को मिटा दिया जाय और गृहस्थी के घरेलू काम-काज को एक सार्वजनिक उद्योग बना दिया जाये।''
-- फ़्रेडरिक एंगेल्स
उत्पादन और जीने के तौर-तरीक़े में तकनोलॉजी ने जो भारी बदलाव पैदा किये हैं, उनसे आधुनिक मज़दूर वर्ग का जीवन भी अछूता नहीं है, लेकिन जहाँ तक सोच-विचार-संस्कार का सवाल है, सदियों पुराने स्त्री-विरोधी मर्दवाद (पुरुष स्वामित्ववाद) से उनका पीछा अभी भी छूटा नहीं है। इन पुराने मूल्यों को आज के पूँजीवाद ने न केवल बनाये रखा है, बल्कि खाद-पानी देने का काम भी किया है। केवल एक उदाहरण काफ़ी होगा। आप उन तमाम टीवी सीरियलों और फ़िल्मों को याद कर सकते हैं जो परम्परागत स्त्री की छवि, पुरातनपंथी रीति- रिवाजों और पुरुष स्वामित्ववादी धर्मिक रूढ़ियों को महिमामण्डित करके परोसते रहते हैं। जो पूँजीवाद मुनाफ़ा बढ़ाने और माल बेचने के लिए नयी से नयी तकनोलॉजी के इस्तेमाल के लिए तत्पर रहता है, वहीं मेहनतकश आम जनता को पूँजी की सत्ता के ख़िलाफ़ बग़ावत करने से रोकने के लिए अन्धविश्वास, भाग्यवाद, धार्मिक रूढ़ियों और पुरातनपंथी मूल्यों को न सिर्फ़ अपना लेता है, बल्कि नये-नये ढंग से उनकी पैकेजिंग करके प्रस्तुत करता रहता है। इतिहास पर यदि निगाह डालें तो यूरोप में सत्तासीन होते ही पूँजीपति वर्ग ने न सिर्फ़ 'स्वतंत्रता-समानता-भातृत्व' के झण्डे को धूल में फ़ेंक दिया बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के स्तर पर भी तर्क, विज्ञान और भौतिकवादी मूल्यों को तिलांजलि देकर धार्मिक रूढ़ियों-अन्धविश्वासों को बढ़ावा देने लगा था। फ़िर भी उन्नीसवीं सदी के यूरोपीय पूँजीवादी समाजों में एक हद तक जनवादी मूल्य और स्पेस बने हुए थे। बीसवीं सदी साम्राज्यवाद की सदी थी जब पूँजीवादी पतनशीलता की ऐतिहासिक ढलान की शुरुआत हुई। बुर्जुआ जनवादी मूल्य विघटित होने लगे और समाज में जनवादी स्पेस सिकुड़ता चला गया। बीसवीं सदी के आखिरी दशकों से लेकर अब तक का समय, जिसे भूमण्डलीकरण का दौर कहा जा रहा है, वह पूरी दुनिया के उन्नत और पिछड़े सभी पूँजीवादी समाजों में चरम पतनशील, निरंकुश, सर्वसत्तावादी सांस्कृतिक-सामाजिक मूल्यों के वर्चस्व के साथ ही धार्मिक कट्टरपंथ, पुनरुत्थानवाद और रूढ़िवाद के व्यापक फ़ैलाव का दौर है। एक तो आज का चरम पतनशील पूँजीवादी समाज अपनी स्वतन्त्र गति से इन चीजों को जन्म दे रहा है, दूसरे, शासक पूँजीपति वर्ग मेहनतकश जन-समुदाय को अपनी नारकीय जीवन-स्थितियों के ख़िलाफ़ बग़ावत करने से रोकने के लिए भी भाग्यवाद, अन्धविश्वास और धार्मिक रूढ़ियों को बढ़ावा देता है। आज ऐसा करने में नयी तकनोलॉजी आधरित मीडिया (टीवी, इण्टरनेट आदि) का वह विशेष उपयोग कर रहा है। यानी विज्ञान के सहारे अन्धविश्वास और रूढ़ियों का विज्ञान-विरोधी घटाटोप फ़ैलाया जा रहा है।
भारतीय समाज में ऐसा विशेष तौर पर हो रहा है, जहाँ पूँजीवाद के म(मि और क्रमिक विकास के चलते आम जनजीवन में पूँजीवाद पूर्व अवस्थाओं के धार्मिक मूल्यों, सामाजिक रूढ़ियों, भाग्यवाद, अन्धविश्वास आदि की प्रभावी उपस्थिति बनी रही है। यहाँ बीसवीं सदी में जनवादी मूल्यों का जो विकास हुआ, वह अति सीमित था और आज के पूँजीवादी पतनशीलता के दौर में (जिसे उदारीकरण -निजीकरण-भूमण्डलीकरण का दौर कहा जाता है), रहे-सहे जनवादी मूल्य भी सिकुड़ते-बिखरते जा रहे हैं। पूँजी की गति दोहरे प्रभाव वाली है। पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली एक ओर आम जनता को आधुनिक ढंग से जीने-रहने की चेतना दे रही है, दूसरी ओर वह स्वस्थ जनवादी मूल्यों और तर्कणा के विकास को रोक भी रही है। किसी भी समाज में शासक वर्ग की संस्कृति ही हावी और प्रभावी होती है। अत: आश्चर्य नहीं कि आम जनता भी पतनशील और ग़ैर-जनवादी पूँजीवादी मूल्यों- मान्यताओं और पण्यपूजा की संस्कृति की शिकार है। साथ ही, पूँजीपति वर्ग, सचेत रूप से, अन्धविश्वास, भाग्यवाद और रूढ़िवाद का प्रचार-प्रसार करता है ताकि मेहनतकश जनता की वर्ग चेतना को कुण्ठित करते रहा जा सके।
आइये, अब इसी बात को आम मेहनतकशों के जीवन पर और स्त्री मज़दूरों के प्रति पुरुष-मज़दूरों के दृष्टिकोण पर लागू किया जाये। ज्यादातर मज़दूर गाँव की पृष्ठभूमि (उजड़े हुए या उजड़ते हुए किसान) से आते हैं। इनमें सवर्ण, मधय जातियों और दलित जातियों तीनों पृष्ठभूमि के लोग हैं। एक ओर इन मज़दूरों में औरतों को 'पैरों की जूती' और घरेलू दासी समझने की मानसिकता अभी भी बनी हुई है। दूसरी ओर, शहरों में जो स्त्री-विरोधी आधुनिक बर्बरता अनेक रूपों में फ़ली-पफूली है, उससे पुरुष मज़दूर भी गहराई से प्रभावित हैं। लोकगीतों के पफूहड़ आधुनिक संस्करणों से लेकर पोर्न फ़िल्मों की सी.डी. और मोबाइलों में पोर्न क्लिपिंग्स आदि के ज़रिए बहुत सारे पुरुष मज़दूर जो सांस्कृतिक नशे की खुराक लेते रहते हैं, वह उन्हें मानसिक रुग्णता और स्त्री-विरोधी मानसिकता का शिकार बनाता रहता है। इसकी अभिव्यक्ति उनके पारिवारिक और सामाजिक जीवन में आती रहती है। पिछड़ी वर्ग चेतना वाले ज्यादातर मज़दूर अपने घरों में स्त्रिायों को घरेलू हिंसा का शिकार बनाते हैं, और कार्यस्थलों पर स्त्री मज़दूरों के प्रति यौन उत्पीड़न का रवैया (अश्लील बातें व इशारे, छेड़छाड़ आदि) अपनाते हैं। यह एक कड़वी सच्चाई है कि मालिकों-मैनेजरों-सुपरवाइज़रों के खुले एवं परोक्ष यौन-उत्पीड़न के अतिरिक्त साथ में काम करने वाले पुरुष मज़दूरों के भी ऐसे रवैये का सामना स्त्री-मज़दूरों को करना पड़ता है। जो मज़दूर कार्यस्थलों पर स्त्री-विरोधी रवैया अपनाते हैं वही उस घटिया परिवेश से अपने घर की स्त्रियों को सुरक्षित बचाना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि उनकी पत्नियाँ या बेटियाँ घरों में ही रहकर परिवार सँभालें और साथ ही पीस रेट पर काम करके कुछ कमाई भी कर लिया करें (क्योंकि एक की मज़दूरी की आमदनी से जैसे-तैसे घर चला पाना भी काफ़ी मुश्किल होता है)। ज्यादातर मज़दूर स्त्रियाँ भी अपने पुराने संस्कारों व पिछड़ेपन के चलते घरेलू गुलामी के साथ-साथ पूँजीपतियों के मनमाने अतिशोषण का शिकार होने के लिए तैयार हो जाती हैं। जो स्त्रियाँ (ज्यादातर ठेका, दिहाड़ी या कैज़ुअल मज़दूर के रूप में या पीस रेट पर) कारख़ानों-वर्कशॉपों में काम करने जाती हैं, उन्हें प्राय: स्वास्थ्य पर भीषण प्रभाव डालने वाले काम (पेशागत स्वास्थ्य की समस्या पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों में अधिक होती है) करने होते हैं और मज़दूरी पुरुष मज़दूरों के मुकाबले कम होती है। अपनी पिछड़ी चेतना के चलते और छोटे-छोटे कारख़ानों-वर्कशापों में बिखरे होने के चलते वे अपनी माँगों को लेकर संगठित आवाज़ नहीं उठा पातीं और पुरुष मज़दूरों की द्वेष-भावना के चलते भी उनकी लड़ाई संगठित नहीं हो पाती। इससे न केवल स्त्री-मज़दूरों का पक्ष कमज़ोर होता है, बल्कि पूरे मज़दूर आन्दोलन का पक्ष भी कमज़ोर होता है। आधी आबादी की पहलक़दमी और भागीदारी के बिना कोई भी आर्थिक-राजनीतिक संघर्ष मज़बूत नहीं हो सकता। मज़दूर आन्दोलन और सर्वहारा क्रान्तियों के इतिहास के तथ्य इस सच्चाई की पुरज़ोर तस्दीक करते हैं।
बहुतेरे मज़दूर ऐसे भी हैं जिन्होंने अपनी पत्नियों को गाँव में छोड़ रखा है जहाँ उनकी पत्नियाँ संयुक्त परिवार की पीस डालने वाली घरेलू ग़ुलामी में जी रही हैं, या फ़िर अपने पारिवारिक मालिकाने की ज़मीन या बटाई पर ली गयी ज़मीन पर हाड़ गला रही हैं। ये वे मज़दूर हैं, जिनकी वर्ग चेतना में अभी भी छोटा मालिक किसान होने के संस्कार और ख़ुशहाल मालिक किसान बन जाने के भ्रम मौजूद हैं। इस भ्रम की क़ीमत सबसे अधिक उनके घरों की औरतें चुकाती हैं। यह जगज़ाहिर सी बात है कि शहरों की अपेक्षा गाँवों में औरतों की घरेलू ग़ुलामी ज्यादा उबाऊ, नीरस, दमघोंटू और हाड़तोड़ होती है, सामाजिक परिवेश में पुरुष स्वामित्व के बर्बर पुरातन रूप (बर्बर नये रूपों के साथ-साथ) ज्यादा हावी रहते हैं, ज्यादा कठिन कृषि कार्यों में (रोपाई-बुवाई-निराई आदि) स्त्रियाँ खटती हैं और मज़दूरी भी उन्हें पुरुषों के मुकाबले काफ़ी कम मिलती हैं।
इन सारी बातों का मूल निचोड़ यह है कि समूचे मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए, ज़रूरी है कि सामाजिक गतिविधियों और आर्थिक राजनीतिक संघर्षों में उस आधी आबादी की भागीदारी को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाया जाये जो घरेलू ग़ुलामी के बन्धनों में जकड़ी हुई है। पुरुष मज़दूरों की राजनीतिक शिक्षा का यह एक बुनियादी मुद्दा है कि शेष आधी आबादी को सच्चे मायने में बराबरी का दर्जा देकर पूँजी के विरुद्ध संघर्ष में भागीदार बनाये बिना मज़दूर मुक्ति का लक्ष्य कभी भी हासिल नहीं किया जा सकता। इसके लिए सतत् राजनीतिक शिक्षा और प्रचार के साथ ही सभी पुरुष-स्वामित्ववादी मूल्यों-मान्यताओं-संस्कृति के विरुद्ध एक निरन्तर अभियान चलाना होगा। साथ ही स्त्री मज़दूरों को भी अपनी गुलाम मानसिकता, संस्कार और रूढ़ियों से छुटकारा पाना होगा। न सिर्फ़ सामाजिक उत्पादन के क्षेत्र में सर्वहारा घरों की स्त्रियों को ज्यादा से ज्यादा संख्या में प्रवेश करने के लिए प्रेरित करना होगा, बल्कि मज़दूरों के रोजमर्रा के संघर्षों और दूरगामी राजनीतिक संघर्ष की प्रक्रिया (पूँजी की सत्ता का ध्वंस करके मज़दूर सत्ता की स्थापना का संघर्ष) में भी उन्हें अपनी भागीदारी बढ़ानी होगी। स्त्री मज़दूर अपने अधिकारों के लिए भी सफ़लतापूर्वक तभी लड़ सकती हैं जब समूचे मज़दूर वर्ग के अधिकारों की लड़ाई में भी उसकी भागीदारी हो, यानी उसकी माँग समूचे मज़दूर वर्ग के माँगपत्रक का एक भाग हो। निश्चय ही सामाजिक उत्पादन के साथ ही सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में अपनी भागीदारी बढ़ाने के लिए स्त्री मज़दूरों को अपने रूढ़िगत संस्कारों और ''घरेलूपन'' की मानसिकता के साथ-साथ अपने घरों और समाज में पुरुष मज़दूरों की मर्दवादी धक्कड़शाही एवं चौधराहट की मानसिकता से जूझना होगा। लेकिन यहाँ सवाल मर्द बनाम औरत का नहीं, बल्कि सारे मज़दूरों की मुक्ति का है। स्त्रियों की मुक्ति के बिना मज़दूर मुक्ति सम्भव नहीं और मज़दूर मुक्ति के बिना स्त्रियों की मुक्ति सम्भव नहीं। इसलिए, बुनियादी सवाल यहाँ यह है कि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली, समाज व्यवस्था और राज्यतंत्र का हित साधने वाली पुरुष-आधिपत्य की संस्कृति के विरुद्ध संघर्ष करके स्त्री और पुरुष दोनों ही समुदायों के सर्वहारा की जुझारू वर्ग चेतना किस प्रकार जागृत और संगठित की जाये।
(शेष अगले अंक में)
(मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2012 अंक से साभार)
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