कहीं सूखे काठ पर चल रही है आरी।
सड़क पार झोपड़ी के सामने बैठी एक औरत
मोढ़े की बुनाई कर रही है।
हरे पत्तों के झुरमुट में ठुनक रही है गिलहरी।
प्रेमातुर बुलबुल चीख रही है।
चिलकती धूप में भटकते हुए इधर-उधर
बहुत दिनों से नहीं देखा था सूरज का उगना।
हत्या और आतंक के मौसम में
बस एक ज़िद थी न झुकने की
और घृणा, बस घृणा
तमाम समझौतों और दुरभिसंधियों से।
इस बीच बादल आते रहे और
बरस-बरस कर जाते रहे।
ऐतिहासिक दुर्दिनों से गुज़रते हुए
फिर भी कहीं दबी रही ज़िन्दगी के
कोमल हाथों की छुअन।
फुर्सत की इस विरल सुबह
जैसे कि युगों बाद
सुन रही हूँ जगती हुई ज़िन्दगी की आवाज़ें।
देख रही हूँ सूरज का उगना।
परे हटो तुच्छ चाहतों और कलंकित प्रसिद्धियों से
मण्डित महत्वाकांक्षी छायाओ!
सुबह की धूप आने दो
मेरी कोठरी और दिल के कोने-कोने तक।
ज़िन्दगी मुझे बहुत सुन्दर लग रही है
और संघर्ष का संगीत मेरे पोर-पोर को
संतृप्त कर रहा है।
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(1 Oct 2025)
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