Saturday, May 31, 2025

चमकती चीज़ों के युग में एक मृत्यु

 


अपनी मृत्यु के समय तक वह क़रीब-क़रीब

बीते हुए ज़माने के स्मृतिचिह्न बनकर

रह गये थे और शहर के संवेदनशील लोगों को

बीच-बीच में अचानक याद आता था कि अरे! 

अभी वह जीवित हैं! 

उनका इतिहास गौरवशाली कहा जा सकता था

लेकिन वर्तमान में उनकी उपयोगिता के बारे में

ज़्यादातर लोगों को संदेह था

जो ज़्यादातर प्रकट नहीं होता था

सार्वजनिक तौर पर

या छिपा होता था औपचारिक सम्मान-प्रदर्शन

के पुष्पगुच्छों की ढेरी के नीचे। 

उनकी विद्वत्ता पर संदेह करने वाले

या कम से कम उसकी सीमा बताने वाले

तो उनके कुछ समकालीन भी हुआ करते थे

लेकिन उनकी मनुष्यता के सभी क़ायल थे

यहाँ तक कि उनके दुश्मन भी। 

फिर यह समय आया धीरे-धीरे कि

मनुष्यता के साथ विद्वत्ता का संयोग

विरल होता चला गया और लोग यह मानकर

चलने लगे कि जहाँ विद्वत्ता होगी वहाँ दुष्टता

अनिवार्यतः उपस्थित होगी, ख़ास तौर पर 

हिंस्र, दुर्निवार महत्वाकांक्षा की शक़्ल में। 

आश्चर्य था कि कुटिलता, निराशा और

व्यवहारवाद के वर्चस्व के नये युग में भी

वह बरसों जीते रहे एक शापित सा जीवन

और महत्वाकांक्षाओं से चमकती

सोने के सिक्के जैसी आँखों वाले 

प्रभावशाली स्त्री-पुरुष निश्चिन्त थे

कि वह जीवित ही इतिहास बन चुके थे। 

फिर भी इतना तो था कि जिस दिन वह मरे

उस दिन पूरे शहर में उनकी चर्चा हुई 

और लोगों ने कुछ इसतरह की बातें कीं कि

बहुत बढ़िया इंसान थे और विद्वान भी थे

और उनका भी एक ज़माना था 

और वह भी क्या ज़माना था! 

*

हालाँकि उनकी शवयात्रा में श्मशान तक 

कुल तैंतीस लोग ही गये थे

लेकिन यह संख्या गर्मी और लू के मौसम को

देखते हुए सन्तोषजनक कही जा सकती थी। 

श्मशान तक तो गाड़ियों में ही जाना था सबको

और अन्तिम यात्रा में शववाहन में उनके

पार्थिव शरीर  के साथ बैठने के लिए

बस थोड़ी ही धक्कामुक्की हुई। 

जाहिर है कि सफलता उन्हें मिलनी  थी

जो पहले से तैयार थे, 

प्रत्युत्पन्नमति से सम्पन्न थे

और सही समय पर सही कदम उठाने की

योग्यता थी जिनके पास। 

फिर शववाहन से अर्थी उतारकर

कंधे पर उठाने में और आगे-आगे चलने में भी

वे ही आसानी से सफल हुए

जिनके पास योजना थी कि यथासमय

अपने को उनका सुयोग्य उत्तराधिकारी

सिद्ध कर सकें। 

अन्तिम क्रिया सम्पन्न हुई विद्युत शवदाह गृह में

आनन-फानन में। 

कई लोगों ने फेसबुक पर शोक संदेश

भेज दिया था वहीं से माला लदे

पार्थिव शरीर के साथ अपनी तस्वीर लगाते हुए।

अगले दिन शोकसभा में कुल इक्यासी लोग

उपस्थित थे और हर्षदायी होने की हद तक

सन्तोषजनक बात यह थी कि ढाई घण्टे के 

कार्यक्रम के दौरान कोई मजबूरी बताकर

बीच से उठकर जाने वाले सिर्फ़ तेरह थे। 

बाकी बचे अड़सठ लोगों में से

सत्ताइस वक्ता थे जिनके पास

एक से एक मार्मिक यादें थीं

जो दिवंगत से उनकी बेहद क़रीबी दिखलाती थीं। 

इसतरह नये ज़माने से पुराने ज़माने की

विदाई हुई और सभागार से बाहर निकलते हुए

किसी एक ने कहा दूसरे से, "चलिए, इसी बहाने

मिलना तो हो गया आपसे। 

कभी घर आइए न, 

थोड़ी बातें करेंगे तसल्ली से।"

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(31 May 2025)

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