Friday, August 09, 2024

 बेमतलब की कविता


कभी वह रिसते हुए नासूर की तरह होती है

एक तकलीफ़ जिसके हम आदी हो जाते हैं

कभी एक पुराने ज़ख़्म का निशान भर होती है

कभी ऐसा जैसे कि हम किसी जंगल में भटक गये हों

कभी उदास चाँद की एक भारी सी रात

और एक खुली हुई पुरानी खिड़की

और कभी शताब्दियों पुरानी ह्विस्की

हलक से नीचे उतरती हुई

कभी एक अधूरी कविता जो पूरी न होना चाहती हो

कभी जैसे कहीं दूर सितार पर 

कोई बजा रहा हो राग मधुवंती, 

कभी लम्बे सफ़र के बाद की उतरती हुई थकान

कभी अकारण की ख़ुशी और कभी

जैसे हम जानबूझकर अतार्किक हो जायें

कभी जैसे यूँ ही फूट पड़े रुलाई

कुछ इसतरह जैसे एक सोता फूट निकला हो

चट्टानों के बीच से

और कई बार तो ऐसा भी जैसे 

शहर की सुनसान सड़क पर भाग रहे हों

और कलेजे में धँसी पड़ी हो

नक़्क़ाशीदार मूठ वाली कोई टेढ़ी कटारी

कभी ऐसी ही बेमतलब की बातें

जैसी अभी हम कर रहे हैं

लेकिन ऐसी ही बेमतलब की बातों के जरिए

कई बार हृदय के कई गुप्त रहस्य

उजागर हो जाते हैं और कम से कम

कुछ लोग तो इस सोच में पड़ ही जाते हैं

कि कब उन्होंने कुछ बीत चुकी चीज़ों के बारे में

मसलन बीते दिनों के प्यार के बारे में

कुछ-कुछ इसतरह से सोचा था

**

(8Aug2024)


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