बेमतलब की कविता
कभी वह रिसते हुए नासूर की तरह होती है
एक तकलीफ़ जिसके हम आदी हो जाते हैं
कभी एक पुराने ज़ख़्म का निशान भर होती है
कभी ऐसा जैसे कि हम किसी जंगल में भटक गये हों
कभी उदास चाँद की एक भारी सी रात
और एक खुली हुई पुरानी खिड़की
और कभी शताब्दियों पुरानी ह्विस्की
हलक से नीचे उतरती हुई
कभी एक अधूरी कविता जो पूरी न होना चाहती हो
कभी जैसे कहीं दूर सितार पर
कोई बजा रहा हो राग मधुवंती,
कभी लम्बे सफ़र के बाद की उतरती हुई थकान
कभी अकारण की ख़ुशी और कभी
जैसे हम जानबूझकर अतार्किक हो जायें
कभी जैसे यूँ ही फूट पड़े रुलाई
कुछ इसतरह जैसे एक सोता फूट निकला हो
चट्टानों के बीच से
और कई बार तो ऐसा भी जैसे
शहर की सुनसान सड़क पर भाग रहे हों
और कलेजे में धँसी पड़ी हो
नक़्क़ाशीदार मूठ वाली कोई टेढ़ी कटारी
कभी ऐसी ही बेमतलब की बातें
जैसी अभी हम कर रहे हैं
लेकिन ऐसी ही बेमतलब की बातों के जरिए
कई बार हृदय के कई गुप्त रहस्य
उजागर हो जाते हैं और कम से कम
कुछ लोग तो इस सोच में पड़ ही जाते हैं
कि कब उन्होंने कुछ बीत चुकी चीज़ों के बारे में
मसलन बीते दिनों के प्यार के बारे में
कुछ-कुछ इसतरह से सोचा था
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(8Aug2024)
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