Monday, August 05, 2024

 गुप्त मानवीय रहस्यों, कमज़ोरियों, सच्चाई भरे दिलों, इन्तज़ारों, रोमानी बुखारों, यथार्थवादी मोहब्बतों और कठिनतम दिनों के कम्युनिस्ट संकल्पों  वगैरह के बारे में बतकही


जब पहली बार 

किसी तज़ुर्बेकार साथी ने मुझे बताया 

कि चीज़ों को, लोगों को, हालात को

देखा जाना चाहिए

गहराई, बारीकी और सरोकार के साथ, 

और तार्किकता के साथ, 

तो मैंने उसे देखा लम्बे समय तक

उसीतरह, 

गहराई, बारीकी, सरोकार और तार्किकता के साथ

और फिर मैंने उसे प्यार करने के बारे में सोचा

जो शायद एक तार्किक नतीजा नहीं था। 

फिर मैंने दुनिया को, 

अपने लोगों की ज़िन्दगी को भी देखना सीखा

उसी गहराई, सरोकार और तार्किकता के साथ,

और इतिहास के गहराते अँधेरे को भी। 

धीरे-धीरे जाना कि प्यार करना, यानी

अतार्किकता के किसी न किसी भूभाग पर

हर रोज़ तर्क के फौजी दस्तों का

क़ाबिज़ होते जाना और फिर भी अतार्किकता के

एक बड़े भूभाग का बचा रह जाना। 

यथार्थ को उद्घाटित करती और साथ ही

 उससे लगातार टकराती कला को

जितने झूठ की ज़रूरत होती है

ठीक उतनी ही ज़रूरत प्यार को भी होती है

वरना चीज़ें और हालात जैसे हुआ करते हैं

उन्हें हूबहू कह देने से

न तो कोई कविता बन पाती है

और न किसी हृदय में छुपे प्यार का कोई ऐसा बयान

जो किसी आदिवासी शिकारी के तीर की तरह

दूसरे हृदय में इसतरह धँस जाये कि

उसकी ज़हर बुझी नोंक उसमें से कभी

बाहर न निकल पाये

और ताउम्र इसतरह तकलीफ़ देती रहे

कि आदत बन जाये। 

इन तज़ुर्बात-ओ-हवादिस ने सिखाया

प्यार को तर्कपूर्ण बनाते जाने का सलीक़ा

और जब दरबदर होते लोगों के साथ 

भटकती रही मैं बस्ती-बस्ती, शहर-शहर

तो आवारा और संजीदा ख़यालों का कारवाँ भी न जाने कितने

मुसीबतों से दो-चार होता हुआ 

साथ-साथ चलता रहा। 

अब शायद मैं भी कह सकती हूँ कि

फ़ासिस्टी उभार के दशकों में, 

जब फुर्सत के रात-दिन ढूँढ़ने के बारे में

सोचा तक नहीं जा सकता था, 

तब ब्रेष्ट की तरह जूतों से भी अधिक 

शहर भले न बदले हों मैंने लेकिन

उम्र और भूगोल का एक लम्बा बीहड़ फ़ासला

ज़रूर तय किया। 

जाहिर सी बात है कि आज जैसे दिनों में, 

चंद दिनों के ठिकानों, छोटी दूरियों के

हमसफ़रों, खेतों के बीच से

होकर जाते रास्तों, पहाड़ी पगडंडियों, 

जंगल के बीचोबीच की प्रशांत रहस्यमयी झीलों, 

किसी अनजान पक्षी की आतुर पुकारों, 

रात के दुखों, भावनात्मक विभ्रमों और

आकस्मिक-अप्रत्याशित, निर्दोष बेवफ़ाइयों के बारे में तो

कुछ कहना ही निरर्थक है, 

एक ऐसे समय में जब कविताओं के लिए

लोगों ने दिलों के दरवाज़े बंद कर रखे हैं

और कविगण उज्ज्वल अथाह प्यार भरी कविताएँ

इसलिए लिखते हैं कि दुनिया बदलने के बारे में

सोचना भी उन्हें एक असम्भव स्वप्न देखने जैसा

महापागलपन लगता है। 

ऐसे ठहरे हुए दिनों में अगर किसी के लिए

प्यार एक इंतज़ार बना रहा

स्थायी भाव की तरह

जैसे सपने हो गये अश्मीभूत, 

तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है

किसी यायावर के लिए। 

पहाड़ पर वह लालटेन अब

जलती नहीं दिखाई देती

जिसे मंगलेश डबराल ने देखा था

एक तेज़ आँख की तरह

टिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनती हुई, 

लेकिन जंगलों में आग

पहले से अधिक लगने लगी है

पहाड़ों से लेकर मैदानों और पठारों तक

और यह राज़ भी कितने लोग जानते हैं

कि ऐसे असंख्य दिल हैं जहाँ

प्यार की या बग़ावत की आग अहर्निश

चुपचाप जलती रहती है, 

कलावादी उत्सवधर्मी कवियों के लिए

सर्वथा अविश्वसनीय। 

सच्ची मानवीय कविताओं के लिए

इस नये शीतयुग में गरमी

वहीं से मिलती रहती है

और पुराने जीवाश्मों के जीन्स की पहचान में

अश्मीभूत पुरातन प्रेम के पुनर्जीवन की

उम्मीदें भी बनी रहती हैं

जो साकार न भी हों तो कविता को

स्मृतियों से ऊर्जा देती रहती हैं। 

और प्यार का क्या, वह तो कहीं भी, कभी भी

आ धमकता है कम्बख़्त

युद्ध के ऐन बीचोबीच भी

या फाँसी दिये जाने से तीन दिनों पहले भी

या उम्र के किसी भी मुकाम पर

या किसी भी बीहड़ चढ़ान या ढलान पर

और अगर ऐसा नहीं भी होता है तो कम से कम

एक सस्पेंस तो बना ही रहता है

और उम्मीदें फुरसत के लमहों में

थोड़ी धमाचौकड़ी तो मचाती ही रहती हैं। 

इन चीज़ों की कोई उम्र थोड़े ही हुआ करती है! 

और प्यार कोई हार-जीत का खेल

थोड़े न हुआ करता है! 

**

(4 Aug 2024)

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