Friday, June 14, 2024

डायरी के कुछ इन्दराज

पुनर्नवा होने के लिए अनुभव के खजाने को हमेशा नयी-नयी चीज़ों से भरते रहना होता है। बार-बार जनसमुदाय की ज़िन्दगी की सरगर्मियों में शामिल होना होता है, ज़िन्दगी के बदलावों को समझना होता है। बार-बार नयी-नयी किताबों तक, ज्ञान के नये-नये भण्डारों तक जाना होता है, और नयी पीढ़ी के अधिक ऊर्जस्वी लोगों से भी सीखना होता है। बार-बार नये मंसूबे बाँधने होते हैं और नये लक्ष्य तय करने होते हैं। 

मैंने ऐसे लोगों को देखा है जो उम्र बढ़ने के बावजूद आत्मिक तौर पर बूढ़े नहीं हुए, जिन्होंने सपने देखने, सीखने और नये अनुभव अर्जित करने का काम कभी नहीं छोड़ा। और मैं ऐसे लोगों को भी जानती हूँ जो समय बीतने के साथ ही बीतते और रीतते चले गये और वक़्त से पहले ही बूढ़े हो गये। ऐसे लोगों के पास जब नये लोगों को देने के लिए कुछ नहीं रह जाता तो वे अपने गुज़रे हुए ज़माने के किस्से बार-बार सुनाते हैं और उन्हें यह पता भी नहीं चलता कि वे बीती हुई घटनाओं के वैचारिक मर्म को खोकर सिर्फ़ ठिठोली वाले तत्वों को ही च्युइंगम की तरह चुभलाते रहते हैं और किस्सों को बार-बार किस कदर उबाऊ ढंग से दुहराते रहते हैं। ऐसे लोग फेसबुक पर भी अक्सर नकली आत्मीयता का प्रदर्शन करते और बात-बात पर ठिठोली करते नज़र आते हैं। संजीदगी के अभाव और  वैचारिक कंगाली के कारण ऐसे लोग अक्सर आभासी दुनिया में ठिठोलीबाज़ी को पी.आर. के उपकरण के रूप में इस्तेमाल करते हैं। और मध्यवर्गीय बौद्धिक समाज में अलगाव, अकेलापन, बेगानगी और वैचारिक खोखलेपन के वर्चस्व के कारण ठिठोलीबाज़ी को पसन्द करने वाले लोग अच्छी-ख़ासी संख्या में मिल भी जाते हैं। 

मैंने अपने अनुभव में ऐसे तमाम ठिठोलीबाज़ों को निहायत ग़ैर जनवादी और निरंकुश स्वेच्छाचारी पाया है। ये मृदुभाषी तभी तक होते हैं जबतक आपकी कोई बात इनके कमज़ोर मर्मस्थल पर चोट नहीं करती। अगर आपकी कोई बात इनकी कमज़ोरियों के ख़िलाफ़ हो, या आप इनकी किसी भयंकर ग़लती की हल्की सी भी आलोचना कर दें तो ये फनफनाकर फन काढ़ लेते हैं और फुफकारने लगते हैं। इनकी खोखली आक्रामक मुद्रा इनकी अपनी कमज़ोरियों के बचाव के लिए ढाल और कवच के समान होती है। 

थोथे अनुभवों के घिसे-पिटे किस्सों से पकाने वाले भयंकर उबाऊ भारतीय नागरिक ठिठोलीबाज़ी करते हुए और उबाऊ लगने लगते हैं। वे इसतरह आउटडेटेड हो जाते हैं कि पुरातात्विक महत्व की सामग्री भी नहीं बन पाते। ऐसे लोगों को देखकर अक्सर मुझे ऐसा लगता है कि भारतीय समाज में बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जिनमें गरिमा और आत्मसम्मान के साथ बूढ़े होने की तमीज़ होती है। 

खोखली, उबाऊ ठिठोलीबाज़ी से बोरियत मिटाने और वक़्त काटने के आदी हो चुके लोगों को मार्क ट्वेन को पढ़ना चाहिए, लू शुन को पढ़ना चाहिए और भारतीय लेखकों में हरिशंकर परसाई को पढ़ना चाहिए। और भी बहुतेरे हैं। लगभग सभी महान साहित्य में हास्य और व्यंग्य के ख़ूबसूरत प्रसंग और पुट मिलते हैं। साहित्य और जीवन के दिलचस्प और ख़ुशनुमा प्रसंगों को आधार बनाकर किस्सागोई करना माहौल की बोरियत और एकरसता को तोड़ता है और यह एक अच्छी बात होती है। लेकिन बस यूँ ही, ठिठोलीबाज़ी करना तो बकवास है। यह इस बात का प्रमाण है कि आप गंभीर बातों से रोचक और रचनात्मक माहौल नहीं बना सकते हैं। और तब आप और कर ही क्या सकते हैं, कभी एक नौकरशाह तो कभी एक भाँड़-विदूषक बन जाने के सिवा। 

(यूँ ही कुछ पर्यवेक्षण : डायरी के कुछ इन्दराज) 

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(14 Jun 2024)

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