Tuesday, May 28, 2024

आपका यूँ जाना...


आपका यूँ जाना... 

... चुनांचे मैंने रुकने का तय किया। 

आप तो यूँ गये

इस शहर से या कि ज़िन्दगी से

गोया कभी आये ही न थे। 

यूँ मुब्तिला हुए

ख़ुद को एक अच्छा शहरी साबित करने में

कि हमें ख़तरनाक बाग़ी बताने से भी 

बाज न आये

दुनिया-जहान के सामने। 

बीते मंगलवार को आप अपने नये शहर में

हनुमान मंदिर के बाहर भण्डारे में

हलवा-पूरी खाते देखे गये, 

ऐसा आपके भूतपूर्व दोस्तों ने

मुझे बताया 

और मुझे यह भी मालूम हो चला है कि

आप हँसते हुए कचहरी में लोगों को

बता रहे थे किसी दिन कि आप

उस ज़माने के जीवजंतुओं में से एक हैं

जब प्रेमपत्रों का चलन आम हुआ करता था। 

और आप उदास होकर कहा करते हैं अक्सर

कि अब तो वे बढ़ई भी ढूँढ़े नहीं मिलते

जो खूँटा चीरकर उसमें फँसा हुआ दाना

निकालकर  चिड़िया को दे दिया करते थे।

कहना तो नहीं चाहिए पर बता ही दूँ 

कि आपके बारे में सोचती हूँ तो

किसी खूँटे की याद आती है। 

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(28मई, 2024)

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