Saturday, May 11, 2024


सुरजीत पातर की एक कविता:


मैं रात का आख़िरी जज़ीरा

घुल रहा, विलाप करता हूँ

मैं मारे गये वक़्त का आख़िरी टुकड़ा हूँ

ज़ख़्मी हूँ

अपने वाक्यों के जंगल में

छिपा कराहता हूँ

तमाम मर गये पितरों के नाख़ून

मेरी छाती में घोंपे पड़े हैं

ज़रा देखो तो सही

मर चुकों को भी ज़िन्दा रहने की

कितनी लालसा है। 

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