Saturday, April 13, 2024

अतिशयोक्ति अलंकार

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अतिशयोक्ति अलंकार

अतिशयोक्ति अलंकार दुनिया की सबसे अधिक चिढ़ पैदा करने वाली चीज़ होती है। कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है। 

'इस सदी का सबसे बड़ा कवि', 'हिन्दी आलोचना का शिखर पुरुष', 'सबसे मौलिक कवि', 'सबसे दिलचस्प व्यक्ति', 'जनता की पीड़ा से अबतक का सबसे विकल कवि', 'हमारे समय का सबसे बड़ा विचारक', 'सबसे विलक्षण और सबसे साहसी युवा कवि', दुनिया की सबसे आकर्षक व्यक्तित्व और साहसी हृदय वाली स्त्री रचनाकार ... आजकल ऐसे 'सबसे बड़ों' और 'सबसे श्रेष्ठों' की धकापेल मची रहती है, लेकिन इससे हिन्दी साहित्य का तो कोई अला-भला होता नज़र नहीं आता। 

हिन्दी साहित्य में 'मन तुरा हाजी बगोयम तू मुरा हाजी बगो' का स्वर्ण युग चल रहा है। तुम मुझे एक मामले में श्रेष्ठ बताओ तो मैं भी तुझे दूसरे मामले में श्रेष्ठ सिद्ध कर दूँगा। तुम मुझे मुक्तिबोध का वारिस सिद्ध कर दो तो मैं तुम्हें आज का महावीर प्रसाद द्विवेदी या रामचन्द्र शुक्ल सिद्ध कर दूँगा या विस्तार से लेख लिख दूँगा कि तुम्हारे होते रामविलास शर्मा और नामवर सिंह की कमी नहीं खलती। तुम मेरे बारे में दिलचस्प संस्मरण लिखो तो तुम्हारे बारे में मैं उससे भी दिलचस्प लिखूँगा। 

कई बार कुछ लोगों ने मुझे समीक्षार्थ अपनी किताबें भेजीं। मैंने कभी भी किसी की समीक्षा नहीं लिखी क्योंकि पुस्तक-समीक्षा में सुन्दर से सुन्दर शब्दों में सिर्फ़ प्रशंसा लिखनी होती है और पुस्तक को एक 'मील का पत्थर' सिद्ध करना होता है। सच्ची समीक्षा ताउम्र जानी दुश्मनी का सबब बन सकती है। और जानते-बूझते इतना बड़ा जोखिम मैं भला क्यों मोल लूँ! 

अतिशयोक्ति अलंकार मामूलीपन, सामान्यता और सच्चाई के विरुद्ध एक गंदा युद्ध है। अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा या चापलूसी किसी को चूतिया बनाने के लिए, उससे कोई काम निकालने के लिए या उसे किसी षड्यंत्र का हिस्सा बनाने के लिए की जाती है। चापलूसों और दरबारियों ने इतिहास में मौलिकता और सृजनशीलता का सबसे अधिक नुकसान किया है। समस्या यह है कि अपनी प्रशंसा मनभावन भला किसे नहीं लगती! 

आज एक व्यक्ति ने मेरे ऊपर अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा की झड़ी लगा दी। उसकी कोई भी बात सच नहीं थी। मुझे अपनी औक़ात पता है। तबसे मैं सोच रही हूँ कि वह शख़्स मेरे ख़िलाफ़ क्या साज़िश कर रहा है और क्यों कर रहा है! आख़िर मैंने उसका क्या बिगाड़ा है? 

कुंठित, हीनभावना से ग्रस्त और सृजनात्मकता से रिक्त लोगों की दुनिया में अतिशयोक्तियों का शोर गगनभेदी होता है। पिछड़े हुए समाजों में अतिशयोक्ति के बिना कोई बात ही नहीं होती, चाहे वह जीवन हो या साहित्य! 

अकेलेपन के शिकार लोग अतिशयोक्ति की भरमार करते हुए अपनी आभासी दोस्तों पर बलिहारी जाते रहते हैं, यह जानते हुए भी कि ऐसी दोस्तियाँ नाज़ुक वक़्त में शायद ही काम आती हैं। लेकिन ऐसे भ्रम की ज़रूरत ऐसे सभी लोगों को होती है। जीने के लिए मुग़ालता भी तो एक सहारा होता है! 

(डायरी का एक इन्दराज, 13 अप्रैल, 2024)

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