Monday, April 01, 2024

नये ज़माने का एक सफ़रनामा

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नये ज़माने का एक सफ़रनामा 

नये ज़माने में अपनी  मंज़िल की ओर 

चलती चली जा रही है 

एक पुरानी रेलगाड़ी 

नयी आपदाओं, अनहोनी की आशंकाओं 

और पुनर्नवा दुःखों के साथ, 

ऊँघते मुसाफ़िरों को ढोती हुई।

काटे जा रहे जंगल, 

बिना फसलों के सूखे खेत,

सूखते तालाबों के कीचड़ में लोटते सूअर,

वीरान पड़े गाँव 

पीछे छूटते जा रहे हैं।

लोगों को उम्मीद है कि वे शहर शायद 

जलने से बचे रह गये हों 

जहाँ उन्हें जाना है।

स्टेशनों पर दंगाई भीड़ नहीं होगी

तो पुलिस के हथियारबंद दस्ते होंगे 

और घरों पर पुराने और नये डरों के साथ 

माँएँ, पत्नियांँ और बच्चे 

इन्तज़ार कर रहे होंगे।

गलियों में चबूतरों पर बैठे बूढ़ों को 

किसी के आने-जाने से फ़र्क नहीं पड़ेगा।

रेलगाड़ी में बैठा एक मुसाफ़िर अख़बार में 

एक शहर की वीरान सड़कों पर 

खूँख़्वार आवारा कुत्तों की बढ़ती आबादी 

और किसी नये संत की बढ़ती लोकप्रियता की

ख़बरें पढ़ रहा है 

और कोई कह रहा है कि इतनी बढ़ती 

धार्मिकता के बावजूद 

ज़िन्दगी की पुरानी परेशानियाँ भी

बढ़ती ही जा रही हैं।

कोई इसके लिए मुसलमानों की 

बढ़ती आबादी को ज़िम्मेदार ठहरा रहा है 

और एक दूसरा कह रहा है कि देश की

राजनीति की बागडोर फ़िलहाल 

छँटे हुए गुण्डों और शातिर बदमाशों के 

हाथों में है।

दूसरी बहुत सारी बातों पर सबकी 

आम सहमति है जैसे कि 

वे सभी निहायत शरीफ़ शहरी हैं 

जो कभी भी बिना टिकट सफ़र नहीं करते 

और फ़ालतू के पचड़ों से दूर रहते हैं 

और हालात बदलने जैसी 

कोई उम्मीद नहीं पालते 

ताकि बिलावजह मायूस न होना पड़े।

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(1 Apr 2024)

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