Friday, December 22, 2023

उत्तराखंड के मुद्दे:कुछ बिखरी हुई बातें


 उत्तराखंड के मुद्दे:कुछ बिखरी हुई बातें

पूरे भारत में मैं जहाँ चाहे जाकर रहूँ और वहाँ के अवाम के हक़-हक़ूक के लिए लड़ूँ, मेरी मर्ज़ी। उत्तराखंडी बौद्धिक बतोलेबाज़ संवेदनशील पहाड़ों पर बड़े-बड़े होटल, बहुमंजिली इमारतें और आलीशान बंगले बनाने से धनपतियों को तो रोक नहीं पाते, सारी भँड़ास आम लोगों पर निकालते हैं। यहीं की सरकार की मदद से पूँजीपतियों की कम्पनियाँ बड़े बांँध बनाकर, चार लेन की सड़कें बनाकर, सुरंगें खोदकर पूरे हिमालय को तबाह कर रही हैं। इन धनपशुओं के ख़िलाफ़ संघर्ष करना तो दूर, इन्हीं द्वारा वित्तपोषित एनजीओ में मुदर्रिसी करके पहाड़ी मिडिल क्लास बौद्धिक समाजसेवी और पर्यावरणविद बना मटकते हुए घूमता है। कहता है कि उत्तराखण्ड उत्तराखण्डियों का! और रोजगार के अभाव में उत्तराखण्डी युवा दिल्ली से लेकर गोवा-केरल तक की खाक छानते हैं। 

जो पढ़े लिखे पहाड़ी गैरसैण को राजधानी बनाने के लिए, और पहाड़ों से माइग्रेशन की समस्या पर ख़ूब छाती पीटते हैं, उनमें से अधिकांश दून घाटी, हल्द्वानी, रुद्रपुर, रामनगर आदि जगहों पर घर बनाकर रहते हैं और दूरस्थ पहाड़ों में स्थित अपने गाँव कभी का छोड़ चुके हैं। अकेले दिल्ली में लाखों कुमाऊँनी और गढ़वाली रहते हैं। उनकी अपनी अलग बसाहटें और संस्थाएँ हैं। जिसने एक बार पहाड़ छोड़ दिया वह शायद ही कभी वापस लौटता हो। सच यह है कि उत्तराखण्ड हिमाचल की तरह पूर्ण पर्वतीय राज्य है ही नहीं। आज राज्य की आधी से अधिक आबादी तराई में रहती है। तराई के उद्योगों और फार्मों में काम करने वाले अधिकांश मज़दूर यूपी-बिहार के हैं जिनमें से अधिकतर तो यहीं के होकर रह गये हैं। 

उत्तराखंड में पहले लखनऊ की नेताशाही-नौकरशाही लूटतंत्र और डंडातंत्र चलाती थी। अब तो नेता और नौकरशाह यहीं के हैं और वे पहले से भी कई गुना अधिक भ्रष्ट और जालिम हैं। इनके विरोध में कोई संगठित आन्दोलन नहीं है। उत्तराखंड के लिए आंदोलन करने वाली शक्तियाँ या तो शीतनिद्रा में चली गयी हैं या हाशिये पर किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ी हैं या टूट-बिखरकर निर्वाण प्राप्त कर चुकी हैं। कर्तव्य-निर्वाह के लिए देहरादून या नैनीताल में कुछ सालाना जलसे और सम्मेलन हो जाते हैं जिनमें आंदोलन के दिनों और शहीदों को याद करते हुए कुछ भाषण-भूषण और सांस्कृतिक प्रोग्राम के लिए वही पुराने चेहरे इकट्ठा हो जाते हैं। संगठनों का एनजीओकरण हो चुका है। सत्ता की मलाई पहले की ही तरह राष्ट्रीय पार्टियांँ ही काट रही हैं -- वही कांग्रेस या फासिस्ट भाजपा। राज्य के फार्मर्स और कारखानेदारों के साथ ही मध्य वर्ग के धनी शहरी और रूढ़िवादी पहाड़ी सवर्ण आँख मूँदकर फासिस्ट भाजपा के पीछे खड़े हैं। 

अपवादों को छोड़कर उत्तराखंडी साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों में एक भाईबंदी ज़रूर चलती है और वह इस रूप में कि अगर कोई उत्तराखंडी साहित्यकार प्रगतिशीलता का परचम उड़ाते-उड़ाते अचानक भगवा शाल ओढ़कर भाजपा चालीसा का पाठ करने लगता है तो उसकी खुलकर आलोचना कोई नहीं करता और अगर कोई दबी ज़ुबान से करता भी है तो कुछ दिनों बाद फिर उसे महान और कालजयी कवि-लेखक घोषित करने लगता है और "उत्तराखंड का गौरव" बताने लगता है। प्रगतिशीलता और प्रतिक्रियावाद के बीच की विभाजक रेखा की उत्तराखण्ड की साहित्यिक ज़मीन पर आप खुर्दबीन लेकर शिनाख़्त करना चाहें, तब भी काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। दूसरी बात, प्रगतिशीलता के नाम पर एनजीओपंथी सुधारवादियों, बुर्जुआ लिबरल टाइप जंतुओं और रंग-बिरंगे सोशल डेमोक्रेट्स (जो घमण्डी, कुपढ़ और कूपमण्डूक भी होते हैं) ने इतना घमंजा कर रखा है कि चीज़ों और हालात का मूल्यांकन करने में ढेरों मुश्किलात दरपेश होते हैं। 

राज्य बनने से आखिर उत्तराखंड के ग़रीब आम मेहनतकश को मिला क्या? सोचना होगा। आंदोलनों की पुरानी ऊर्जा क्षरित हो चुकी है। 

नयी परिस्थितियों में संघर्ष का नया एजेण्डा सेट करना होगा। और यह नयी सर्वहारा शक्तियाँ करेंगी चाहे वो उत्तराखंड की मूल निवासी हों या अन्यत्र कहीं से आकर यहाँ अपनी हाड़तोड़ मेहनत के बूते जी रही हों।

अलग राज्य की माँग उत्तराखंड की जनता की एक जनवादी अधिकार से जुड़ी माँग थी। प्रशासन के सापेक्षिक विकेन्द्रीकरण से जनता को कुछ सहूलियत तो मिलनी ही थी। वह माँग अब पूरी हो चुकी है। अब भूमंडलीकरण, नवउदारवाद और फ़ासिस्ट उभार के दौर में उत्तराखंड के आम मज़लूम मेहनतकश भी उसी राष्ट्रीय संकट के रूबरू खड़े हैं जिसका सामना पूरे भारत के आम लोग कर रहे हैं। साम्प्रदायिक फासिज्म, बेरोजगारी, मँहगाई, पूँजीवादी निर्बंध लूट, काले क़ानून, बेलगाम दमन तंत्र और चरम भ्रष्टाचार की समस्याएँ समूचे भारत के आम जनता की साझा समस्याएँ हैं। जो समस्या सिर्फ उत्तराखंड की लगती है, वह भी दरअसल पूरे देश की समस्या है। जैसे, हिमालय की तबाही उत्तराखंड की नहीं बल्कि पूरे उत्तर भारत के मैदानों की तबाही का सबब बनेगा। पर्यावरण का यह प्रश्न इतना अहम है कि जल्दी ही उत्तर भारत की जनता के जीने का सवाल बन जाने वाला है। संघर्षों को संकीर्ण क्षेत्रीय दायरे में क़ैद करके "उत्तराखंड-उत्तराखंड" का रट्टा मारते रहने की जगह पूरे देश की जनता के मुद्दों को केन्द्र में रखकर जनसंघर्षों की एक लंबी तैयारी का रास्ता चुनना होगा। रस्मी कार्रवाइयों की जगह बुनियाद से, नयी और ठोस शुरुआत करनी होगी। उत्तराखंड के उन्नतचेतस, प्रगतिकामी बुद्धिजीवियों को ख़तरनाक ढंग से सोचना शुरू करना होगा, "मज़दूर वर्ग के ऑर्गेनिक बुद्धिजीवी" (ग्राम्शी के शब्दों में) की तरह चिंतन और आचरण शुरू करना होगा। 

एक बात और। अलग-अलग राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं, क्षेत्रीय भाषाई समुदायों की विशिष्ट सांस्कृतिक परंपराओं का संरक्षण होना चाहिए, लेकिन यह देखना होगा कि कौन सी परंपरा? -- प्रगतिकामी परम्परा या प्रतिगामी परम्परा, शासक वर्गों की परंपरा या जनता की संस्कृति की परंपरा! परंपरा के नाम पर अगर कोई ब्राह्मणवादी मूल्यों का महिमामंडन करता है तो उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस संदर्भ में पहाड़ के युवा कवि मोहन मुक्त कई ऐसे सवाल उठाते रहते हैं जिनको खारिज करना मुश्किल है। उनपर चुप्पी की जगह खुलकर बहस होनी चाहिए। 

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(22 Dec 2023)


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