Wednesday, December 20, 2023

 

कई बार फ़ासिस्ट सत्ता अपनी साख बचाने के लिए, अपने लोकतांत्रिक नक़ाब को सरकने से बचाने के लिए ऐसे किसी व्यक्ति को भी पदवी, सम्मान और पुरस्कार देती है जिन्हें लोग जनपक्षधर मानते हैं। 

हिटलर भी कई लोकतांत्रिक मिज़ाज के बुद्धिजीवियों को फुसलाकर और लालच देकर अपने समर्थन में खड़ा करना चाहता था या जर्मनी में रोके रखना चाहता था, लेकिन अधिकांश ने उसकी पेशकश ठुकरा दी और देश छोड़ दिया। कुछ लिबरल और सोशल डेमोक्रेट्स ऐसे ज़रूर थे जो प्रगतिशीलता का नकली झंडा धूल में फेंक कर नात्सियों के चरणों में लम्बलेट हो गये। 

भारत में तो प्रगतिशीलता और जनवाद के नाम पर ऐसे ही केंचुओं और गिरगिटों की भीड़ है। 

गुजरात-2002, मुजफ्फरनगर, मॉब लिंचिंग, लव जेहाद, मणिपुर, गोरक्षा, ईवीएम के जादू, काले क़ानूनों के घटाटोप और बिकी हुई आला अदालत, चुनाव आयोग, ईडी, सीबीआई, अर्द्धसैनिक बलों आदि के बल पर फासिस्ट सत्ता आतंक का नंगनाच कर रही है। नोट कर लीजिए, 2024 में आकाश से हिटलर और मुसोलिनी की आत्माएँ फिर पुष्पवर्षा करने वाली हैं। ये पुष्प ईवीएम में घुसकर वोटों में तब्दील हो जायेंगे। 

मौजूदा हुकूमत में साहित्य अकादमी सहित कला-साहित्य- संस्कृति की सभी शासकीय और कथित स्वायत्त अकादमियाँ उतनी ही स्वतंत्र या स्वायत्त हैं जितनी ईडी और चुनाव आयोग जैसी संस्थाएँ। उच्च शिक्षा के संस्थानों और वैज्ञानिक संस्थानों के शीर्ष पर विराजमान विभूतियाँ तो पहले से ही भजन गा रही हैं और हवन कर रही हैं। राममंदिर का भव्य उद्घाटन होने वाला है। काशी-मथुरा के एजेंडे पर अमल शुरू हो चुका है। देश एक ज्वालामुखी के दहाने पर बैठा है। 

ऐसी किसी आतंकी सत्ता की कोई अकादमिक या साहित्यिक संस्था अपने को लोकतांत्रिक और संस्कृतिप्रेमी दिखाने के लिए अपने ग़लीज़ मुसाहिबों के अतिरिक्त अगर किसी  प्रगतिशील या वामपंथी माने जाने वाले वरिष्ठ को सम्मान या पुरस्कार देती है तो उसे कतई स्वीकार नहीं करना चाहिए और कारण बताते हुए अस्वीकार कर देना चाहिए। एक ख़ूनी आतंककारी फ़ासिस्ट हुक़ूमत के दौर में किसी भी जनपक्षधर कवि-लेखक-कलाकार को सत्ता से कोई सम्मान नहीं लेना चाहिए। यह सम्मान फ़ासिस्टों द्वारा मार दिये गये या जेलों में ठूँस दिये गये स्टेन स्वामी, वरवर राव, गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज आदि पचासों जनपक्षधर बौद्धिकों का ही नहीं, बल्कि उन करोड़ों धार्मिक अल्पसंख्यकों, मेहनतकशों, आदिवासियों, दलितों और आम स्त्रियों का भी घनघोर अपमान होगा, जिनपर फ़ासिस्ट कहर आज अपने बर्बरतम रूप में टूट पड़ा है। 

अत्याचारी शासन के दौर में ख़ुद्दार और इंसाफ़पसंद लेखकों-कलाकारों द्वारा सत्ता और पूँजी के संस्थानों द्वारा दिये जाने वाले पुरस्कार व सम्मान ठुकराने के दुनिया में दर्ज़नों उदाहरण हैं। लेकिन भारत में ऐसे मज़बूत कलेजे और रीढ़ की सलामत हड्डी वाले साहित्यिक प्रजाति के जीव अब विलुप्तप्राय हो चुके हैं। 

मैंने अपनी बात कह दी। संदर्भ समझने वाले समझ ही गये होंगे। ना समझे वो बकलोल है। 

चलो सभी लिब्बुओ और भगवात्मा वामियो, चलो सभी जलेसियो-प्रलेसियो-जसमियो, अब आईटी सेल की तरह संगठित होकर शुरू हो जाओ! गरियाओ मुझे! पुरानी गालियाँ घिस गयी हों तो कुछ नयी और मौलिक देना। लेकिन अगर पीछे छूट गये हो तो पहले संजीव जी को बधाई दे लेना, फिर इस काम में हाथ लगाना।

(20 Dec 2023)

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