Thursday, May 04, 2023

यह कुफ़्र भी हमारे ही वक़्तों में होना था।

बीती रात जंतर मंतर पर पुलिसिया आतंक का जो नंगानाच हुआ, उसने एक बार फिर साबित कर दिया है कि फासिस्ट सत्ता के ख़ूनी पंजे हक़ की हर आवाज़ का गला घोंट देने के लिए किसी भी हद को पार कर जाने पर आमादा हैं। बलात्कार और यौन उत्पीड़न के आरोपी, कुश्ती संघ के अध्यक्ष, भाजपाई सांसद ब्रजभूषण सिंह के विरुद्ध हफ़्तों से धरना दे रहे स्त्री-पुरुष कुश्ती खिलाड़ियों के टेंट पर आधी रात को दिल्ली पुलिस ने डकैतों की तरह धावा बोल दिया। दो पहलवानों के सिर फट गये, स्त्री पहलवानों को बाल पकड़ कर घसीटा गया, अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पहलवान बजरंग पूनिया को भी कुछ देर के लिए गिरफ़्तार कर लिया गया और पहलवानों के समर्थन में आये नागरिकों और छात्रों पर लाठियाँ बरसाई गयीं। पत्रकार साक्षी जोशी को घसीट कर उनके कपड़े फाड़ दिये गये और गिरफ़्तार करने के बाद रात को एक बजे सुनसान सड़क पर छोड़ दिया गया।

 धरने को समर्थन देने के लिए दिशा छात्र संगठन के साथी भी वहाँ मौजूद थे। हमारे दो साथियों प्रियंवदा और विशाल को भी पुलिस ने हिरासत में ले लिया। प्रियंवदा को रात तीन बजे और विशाल को सुबह छ: बजे मंदिर मार्ग थाने से रिहा किया गया। 

गुंडा भाजपाई सांसद ब्रजभूषण अभी भी लगातार धमकी और चुनौती देने की भाषा में बात कर रहा है। गोदी मीडिया चुप्पी साधे हुए है। सोशल मीडिया पर सरकार के ख़िलाफ़ लिखने वाले लोगों के अकाउंट्स सस्पेंड किये जा रहे हैं, उनपर रेस्ट्रिक्शंस लगाये जा रहे हैं और साज़िशाना ढंग से उनकी रीच कम की जा रही है। आजकल मैं भी इसकी शिकार हूँ। 

ज़ुबान पर लगाये जा रहे ताले के इस सिलसिले को पूरे देश में जारी दमन तंत्र, आतंक राज और धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति से जोड़कर देखने पर फासिस्टी घटाटोप की तस्वीर एकदम साफ़ हो जाती है। जाहिर है, यह सब यहीं रुकने वाला नहीं है। अगर अब भी हम उठ खड़े होने की तैयारी नहीं करते, तो भयंकरतम नतीजों को भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। सबकी पारी आयेगी। 

हम साफ़ शब्दों में पूछना चाहते हैं कि दिल्ली में कुश्ती खिलाड़ियों को समर्थन देने दिल्ली और आसपास के कितने नामधारी प्रगतिशील और जनवादी बुद्धिजीवी पहुँचे और कितने ऐसे लोगों और संगठनों ने उनके प्रति अपने समर्थन का इज़हार किया है? साहित्य के रंगारंग जलसों में तो फटाफट घुँघरू बाँधकर नाचने पहुँच जाते हैं! एक दिन जंतर मंतर भी क्यों नहीं हो आते! आप उलटकर कुछ पूछें, इसके पहले ही बता दें कि दिल्ली और आसपास के हमारे सभी छात्रों, युवाओं और मज़दूरों के जनसंगठन तथा भारत की क्रांतिकारी मज़दूर पार्टी के साथी  शुरू से ही कुश्ती खिलाड़ियों के इस न्यायसंगत संघर्ष के साथ खड़े हैं और धरना स्थल पर कुछ साथी हमेशा डटे रहते हैं। ऐसे व्यस्त समय में भी, जबकि हमलोग फासिस्ट मोदी सरकार की दुर्नीतियों और कुकर्मों के विरुद्ध संगठित होकर संघर्ष करने का संदेश देने के लिए देश के ग्यारह राज्यों में लगातार 'भगतसिंह जन अधिकार यात्रा' चला रहे हैं। पैंतीस दिनों के पहले चरण के बाद अब दूसरा चरण अधिक सघन रूप में चलाया जा रहा है और जल्दी ही इसे देश के अन्य राज्यों में भी विस्तार दिया जायेगा। 

हमारा यह पक्के तौर पर मानना है कि गहराते फासिस्ट अँधेरे के इस ऐतिहासिक दुष्काल में भी अगर हर न्यायसंगत संघर्ष के पक्ष में आवाज़ उठाने और सड़क पर उतरने का कलेजे में दम न हो, तो कविता-कहानी में प्रगतिशीलता की सुस्वादु कलात्मक चटनी पीसते रहने से कुछ नहीं होगा! बर्बरता के इस साम्राज्य में अकादमियों और साहित्योत्सवों के छज्जों पर चढ़कर कला, प्यार, करुणा, मनुष्यता आदि की फूल पत्ती सजी पतंगें उड़ाने वाले और बौद्धिक नुक्कड़ों पर अकर्मक विमर्शों के कबूतर लड़ाने वाले छलिया बाबू लोग  रोज़ाना शाम को हत्यारों की ड्योढ़ी से बख़्शीश और ईनाम पाने के लिए कतार में खड़े पाये जाते हैं। आजकल इनमें ज़्यादा संख्या उनकी है जिनका यह दावा होता है कि वे भी प्रगतिशील, जनवादी या वामपंथी हैं! पाश से शब्द उधार लेकर कहें तो, यह कुफ़्र भी हमारे ही वक़्तों में होना था।

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