Sunday, March 19, 2023

‘हत्याओं के समय में प्रणय-विकल कविताएँ’ कविता पर प्रियदर्शन के साथ एक बहस



‘हत्याओं के समय में प्रणय-विकल कविताएँ’ कविता पर प्रियदर्शन के साथ एक बहस  

प्रियदर्शन की टिप्पणी

किसी कविता को कैसे पढ़ें? उसमें कवि द्वारा की जा रही टिप्पणी को अंतिम मानते हुए या उसके संपूर्ण प्रभाव से निकलने वाले अर्थ के लिए? लेखक भी एक आइसबर्ग होता है और उसकी रचना भी- उसमें जो ऊपर दिखता है उससे ज़्यादा उसके भीतर छुपा रहता है। तो रचना की समझ के लिए हमें कुछ भीतर उतरना पड़ता है।

लेकिन किसी रचना के भीतर कैसे उतरा जाता है? क्या किसी कवि के इरादों का अनुमान लगाते हुए या फिर सावधान पाठ के साथ कविता में छुपे अर्थों को पहचानने की कोशिश करते हुए? संभव है हम कवि को बिल्कुल नहीं जानते हों, हमारे सामने बस कविता हो- तो यह बस पाठ है जो हमारे लिए कविता को खोलता है।

लेकिन कविता के पाठ का मतलब क्या है? क्या वह अर्थ जो कवि सुझा रहा है या वे अर्थ जो उसकी कविता से चुपचाप झांक रहे हैं? कवि जो शब्द चुनता है, जो बिंब और प्रतीक इस्तेमाल करता है, जिन पुनरावृत्तियों के सहारे मनचाहा बलाघात पैदा करता है, जिन पुनरुक्तियों के साथ किसी अर्थ पर ज़ोर देता है, वे सब एक तरह से कुछ स्वायत्त भी होते हैं और कविता के वैकल्पिक पाठ संभव करते हैं। कई बार वे वैकल्पिक पाठ कवि द्वारा सुझाए गए पाठ से विपरीत भी जा सकते हैं।

इन सारी बातों की ओर ध्यान इन दिनों चर्चा में रही कात्यायनी की कविता 'हत्याओं के समय में प्रणय विकल कविताएं' पढ़ते हुए गया। कात्यायनी मेरी प्रिय कवयित्री हैं। उनकी अचूक वैचारिक प्रतिबद्धता उन्हें सम्माननीय बनाती है और जिस आक्रामकता के साथ वे प्रतिक्रियावादी, रूढ़िग्रस्त, पूंजीवादी, सांप्रदायिक और पुरुष-मदांध मानसिकता पर हमले करती हैं, इस काम में जिस शब्द कौशल का वे इस्तेमाल करती हैं वह उन्हें विशिष्ट बनाता है।

लेकिन क्या कभी-कभी यह आक्रामकता उन मूल्यों के ख़िलाफ़ ही नहीं चली जाती है जिनके पक्ष में कवयित्री खड़ी हैं। क्या 'हत्याओं के समय में प्रणय विकल कविताएं' भी ऐसा ही भटका हुआ तीर है जो कहीं और जाकर लग रहा है? अपनी प्रिय कवयित्री से माफ़ी के साथ इस कविता के निहितार्थ समझने की कोशिश करते हैं। 

कविता की मूल स्थापना यह है कि जब इस बर्बर, फ़ासिस्ट समय में जब बस्तियां जलाई जा रही हैं, तब प्रेम कविताएं लिखने और इसमें डूबे रहने का कोई अर्थ नहीं है, यह निंदनीय है। मोटे तौर पर इस अर्थ से किसी की असहमति नहीं हो सकती, बल्कि बहुत सारे क्रांतिकारी इसे बिल्कुल उचित और ज़रूरी आलोचना मानते हैं। हालांकि कविता यह नहीं बताती कि ऐसी प्रेमिकाओं या कवयित्रियों का क्या किया जाए, उसकी दिलचस्पी बस इनकी शिनाख्त में है (जो निश्चय ही एक ज़रूरी काम है) कविता शुरू ही इस सवाल से होती है कि 'कौन हैं ये स्त्रियां?'

इसके बाद अगली पांच पंक्तियों में पांच क्रियाओं से इनकी पहचान बताई गई है ये- 'छुअन के ताप से दहकती', 'मिलन की यादों से गमकती', 'इंतज़ार की बेकली में सिसकती', 'विरह की आग में झुलसती' और 'गतयौवना होने के भय से सिहरती' स्त्रियां हैं।

यहां पर रुक कर सोचें कि क्या वाकई हमारे समय की स्त्रियां ऐसी हैं? क्या वे छुअन, मिलन, इंतज़ार, बेकली, विरह, सिहरने आदि तक सीमित हैं? या यह सब पीछे छूट चुके प्रतिमान हैं और आज की स्त्री कविता इससे आगे प्रेम या जीवन या अनुभव पर अपने समान अधिकार की उद्धत घोषणा कर कर रही है? वह कच्ची हो सकती है, कहीं-कहीं भटकी और टूटी भी हो सकती है, लेकिन वे इस रीतिकालीन शब्द-संसार में समाने से इनकार करती हैं। ध्यान से देखें तो यह रीतिकालीन स्त्री-छवि, जिसकी कुछ छायाएं रोमानी ग़ज़लों और पुराने हिंदी गीतों तक मिलती है, मूलतः मर्दवादी कल्पना द्वारा गढ़ी गई है जिसमें स्त्री के दुख और संघर्ष अलक्षित हैं। लेकिन कात्यायनी जैसी सजग कवयित्री इसमें क्यों फंस जाती है। कविता के भीतर इसे खोजते हैं।

कवयित्री का दुख है कि ये गमकती, दहकती, सिहरती, सिसकती स्त्रियां 'इस लहूलुहान वसंत' में ऐसी हैं जब

राख हो चुकी बस्तियों से / धुआँ अभी भी उठ रहा है /

हवा में चिराँयध गंध भरी हुई है / ख़ून के प्यासे धर्मप्राण हत्यारों की भीड़ / फिर किसी निरीह अकेले का / पीछा कर रही है।' 

यहां से इन स्त्रियों का अपराध बड़ा हो जाता है। लेकिन कविता यहीं नहीं रुकती‌। वह इस खूंखार समय को और इन 'प्रणय-विकल' स्त्रियों को कुछ और पास ले आती है। वह बताती है कि

 'थके हुए बलात्कारी अभी सुस्ता रहे हैं / और ये मुक्तिकामी स्त्रियाँ / आधुनिकतावादी विचारों से ढँका / अपना रीतिकालीन वैभव ढोती हुई / तमाम सांसारिक झंझटों से मुक्त / तमाम राजनीतिक किचपिच से अप्रभावित / निर्दोष-निष्कलुष उद्दाम प्रेम की तलाश में / आम और महुआ के महमह बागों / और नदियों और सागरों के किनारों / और सुदूर वादियों से लेकर / आभासी संसार के अथाह-अछोर / तक भटक रही हैं।'

क्या वाकई ये स्त्रियां तमाम सांसारिक झंझटों से मुक्त और तमाम राजनीतिक खिचपिच से अप्रभावित हैं? वे आम और महुआ के महमह करते बाग कहां हैं, वे नदियां, वे सागर और सुदूर वादियां कहां हैं जहां यह अपने 'आधुनिकतावादी विचारों' से ढंका अपना 'रीतिकालीन वैभव' ढो रही हैं? उल्टे ये स्त्रियां अपने समय के सबसे तीखे सांसारिक झंझटों में उलझी हुई हैं, सबसे पूर्वाग्रही राजनीति का सामना कर रही हैं। वे संयुक्त या एकल परिवारों के जाल से निकली, अपने लिए बराबरी का अधिकार और सम्मान मांगती हर तरफ से पिट रही हैं- वे परिवारों में पिट रही हैं, समाज द्वारा पीटी जा रही हैं, राजनीति उन पर नियंत्रण पाने की कोशिश में है, यथास्थिति उन्हें कुलटा ठहरा रही है और अब तो उनकी ही समुदाय की कवयित्री भी उनकी पिटाई कर रही है। जबकि युद्ध और नफरत की मारी दुनिया में उनका कसूर बस ये है कि वह अपनी तरह से प्रेम करना चाहती हैं, उसे लिख भी डालने का दुस्साहस दिखाती हैं- संभव है यह प्रेम कुछ कम उदात्त हो, कुछ ज़्यादा मतलबी हो, कहीं-कहीं स्वार्थी हो, लेकिन इसके लिए इनका सार्वजनिक चीरहरण उचित नहीं है।

बहरहाल, कविता यहां खत्म नहीं होती। और आगे जाती है और अचानक हम पाते हैं कि उसके निशाने पर कुछ खास लोग हैं- संभवत: कुछ ख़ास कवयित्रियां जिनके पीठ पीछे अमर्यादित टिप्पणियां करना हिंदी समाज अपना फ़र्ज़ समझता है। कविता की अगली पंक्तियां हैं-

'अपने अकथ दुःखों का बोझ / थोड़ी देर को हल्का कर लेने के लिए / ये दुखिया स्त्रियाँ नये रंगरसिया कवियों से

थोड़ी ठिठोली करना चाहती हैं / इन्हें अशोक वाजपेई की कविता में / घुस जाने की आतुरता है / अपनी कविताओं से

ये वहाँ तक पहुँचने का रास्ता / बना रही हैं।'

अचानक हमारे सामने एक उदात्त दुविधा की आड़ में छुपी एक टुच्ची कामना सामने चली आती है- कुछ लोगों पर हमला करने की। ये 'रंगरसिया कवि' कौन हैं? और 'अशोक वाजपेयी की कविता में घुस जाने की आतुरता' का मतलब क्या है? कविता में 'घुस जाना' क्या होता है? 'घुस जाना' वह क्रिया है जिसमें कुछ हिकारत, कुछ ज़बरदस्ती, कुछ आक्रामकता भी है ‌। हम घरों में आते-जाते हैं, घुसने का काम चोर-डाकू या अयाचित लोग करते हैं। मगर कोई कविता में कैसे घुसता है? इस अस्पष्ट वाक्य से जो  इशारा मिलता है, वह सुंदर नहीं है।

कात्यायनी के लिए कविता का मकसद यहीं पूरा हो जाता है। लेकिन एक सजग कवयित्री के तौर पर उन्हें मालूम है कि कविता यहां ख़त्म नहीं की जा सकती। तो वे फिर इन स्त्रियों को हत्यारों के सामने खड़ा कर देती हैं-

'हत्यारे मानचित्र पर झुके हुए / हमले के नये टारगेट तक /

पहुँचने का रास्ता पहचान रहे हैं। / उन्हें अपनी भूख मिटाने और फिर / चीरफाड़ देने के लिए / सबसे पहले स्त्रियाँ चाहिए, / बहुत सारी हर उम्र की स्त्रियाँ!'

कविता यहां ख़त्म हो रही है- फिर एक बहुत भारी-भरकम वक्तव्य के साथ। आखिर सरलीकृत सच्चाइयां आरोपों की राजनीति का सबसे आसान तरीक़ा होती हैं जिनमें स्वीकृति की भी गुंजाइश होती है। मगर पूछने की इच्छा होती है कि क्या यह हत्यारों को इशारा है कि तुम्हें स्त्रियां कहां मिलेंगी? 

यह सच है कि हम ऐतिहासिक तौर पर एक फ़ासिस्ट समय में खड़े हैं। इसका प्रतिकार करना हमारा फ़र्ज़ भी है ‌‌‌‌।

लेकिन फासीवाद की बहुत सारी पहचानों में एक यह भी है कि वह एक नकली शत्रु खड़ा करता है और उसके विरुद्ध लोगों को जुटाता है। क्या यह कविता क्रांति के ऐसे ही नक़ली शत्रु खड़े कर रही है?

क्रांति और प्रेम का द्वंद्व साहित्य में बहुत पुराना है। प्रेमी भी क्रांतिकारी बने हैं और क्रांतिकारी भी प्रेमी बने हैं। ऐसे दौर आते रहे हैं जब प्रेम कविता को हिकारत से देखा गया, उसे फूल-पत्ती कविता बताया गया ‌‌। मगर पर्यावरण के लिए शेर-बाघ जितने ज़रूरी हैं उतनी ही फूल-पत्तियां भी। यह कविता अगर अशोक वाजपेयी या उनसे कथित तौर पर जुड़ी कुछ कवयित्रियों पर होती तो भी इसे पढ़ कर भूल जाया जा सकता था, मगर दुर्भाग्य से यह कविता उस स्त्रीवाद पर ही चाबुक चलाती है जो सामंती सड़ांध से भी लड़ रहा है और आधुनिक लंपटता से भी‌। यह अनायास नहीं है कि इस कविता से फ़ासिस्ट नहीं डर रहे, प्रेम कविताएं लिखने वाली लड़कियां डर रही हैं।

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कात्‍यायनी

अभी मेरी जिस कविता पर वाद-विवाद चलता रहा है, उसपर मित्रवर प्रियदर्शन ने अपने विचार रखे हैं और अपनी असहमतियाँ भी I उन्होंने अपनी टिप्पणी में शुरू में कुछ संजीदगी के साथ कुछ मुद्दे उठाये हैं, (बाद में भले ही बहक गए हों) इसलिए बेशक़, पहले इस अप्रोच का मैं स्वागत करती हूँ, फिर अपनी बात रखती हूँ !

शुरुआत किसी कविता के पाठ से जुड़े  अप्रोच और पद्धति के सवालों से करते हैं जहाँ से प्रियदर्शन ने अपनी बात शुरू की है ! बेशक़ किसी कविता का पाठ पाठक के लिए वही नहीं होता जो कवि सुझाता है I एक बार अस्तित्व में आ जाने के बाद कविता की सत्ता कवि से स्वतंत्र हो जाती है I पहले कवि के पक्ष को लें और उसके बाद पाठक के पक्ष पर विचार करें I कई बार कविता सचेतन तौर पर जितना कहना चाहती है, उससे कुछ भिन्न और अतिरिक्त भी कहती होती है, कई बार उसका चरित्र ‘पॉलिफोनिक’ भी बन जाता है और कई बार उसके अंतरविरोधी अर्थ भी कविता की चौहद्दी के भीतर परस्पर टकराने लगते हैं I कारण कि वस्तुगत यथार्थ जब कवि की चेतना की मध्यस्थता (mediation) के बाद कविता के यथार्थ के रूप में सामने आता है तो उसके चेतन के अतिरिक्त अवचेतन की मध्यस्थता भी एक भूमिका निभाती है I सचेतन तौर पर कवि की जो वैचारिक अवस्थिति होती है, उसके अतिरिक्त उसका अवचेतन, उसके अवचेतन में मौजूद जड़ीभूत  संस्कार आदि भी, कविता की अंतर्वस्तु और रूप को प्रभावित करते हैं ! जैसे, एक कवि जिन बिम्बों, प्रतीकों या फंतासियों का चुनाव करता है वह उन्हें सचेतन तौर पर तय नहीं करता, बल्कि विषयवस्तु-विशेष पर सोचते समय वे उसके दिमाग़ में स्वतः आते हैं और उनके अवतरण या निर्धारण में कवि के सामाजिक वर्गीय परिवेश, उसके व्यक्तिगत इतिहास आदि से निर्मित उसके संस्कारों, पूर्वाग्रहों, उसकी रुचियों, सौन्दर्याभिरुचियों और कल्पनाओं की भूमिका होती है I

 इसीलिये, यह सच है कि कविता कई बार कवि जो कहना चाहता है, उससे अतिरिक्त या भिन्न भी कुछ कहती होती है I लेकिन एक बात और है I हर कला की तरह कविता भी विचारधारात्मक अधिरचना का अंग होने के बावजूद, पूरी तरह विचारधारा नहीं होती I विचारधारा के अधिरचनात्मक दायरे का हिस्सा होते हुए भी कलात्मक कृति या कविता विचारधारा से दूरी लेती है, अपने को distanciate करती है और इसीलिये कविता या कोई भी कलात्मक कृति सर्जक की विचारधारात्मक अवस्थिति का किसी हद तक (या कई बार पूरीतरह) अतिक्रमण करके वस्तुगत यथार्थ की ही नहीं, बल्कि कई बार सर्जक की विचारधारात्मक अवस्थिति की भी आलोचना प्रस्तुत करने में सफल हो जाती है I यानी, प्रियदर्शन से अलहदा, अपने मार्क्सिस्ट अप्रोच और मेथड से मैं भी मानती हूँ कि कविता अपने अर्थ-प्रक्षेपण के मामले में कवि की सचेतन इच्छा से स्वतंत्र हो जाती है और उसमें कवि के अचेतन-अवचेतन में जड़ीभूत परिवेश-प्रदत्त रुचियों-संस्कारों की एक भूमिका तो होती ही है, कलात्मक अधिरचना की विशिष्ट प्रकृति की, या वस्तुगत यथार्थ के कलात्मक परावर्तन की विशिष्ट प्रकृति की भी एक भूमिका होती है I यानी बेशक़ कवि की चाहत, सुझावों या इंगितों से निर्देशित होकर कोई पाठक किसी रचना का अर्थ-संधान या प्रभाव-संधान नहीं करता I लेकिन कवि की अनुपस्थिति में, या यूँ कहें कि उसकी सत्ता से स्वतंत्र, रचना की जो वस्तुगत सत्ता पाठक के सामने उपस्थित होती है, उसका अर्थ ऐसी कोई स्थिर या जड़ चीज़ नहीं होता है जो पाठक के दिमाग़ तक यूँ चला जाता हो जैसे झोले में अनाज डाला जा रहा हो I दूसरी बात, पाठक कोई ‘passive reciever’ नहीं होता है जिसके दिमाग़ में रचना का अर्थ उड़ेल दिया जाता हो I वह एक सक्रिय अभिकर्ता होता है I पाठक की चेतना रचना के साथ अंतर्क्रिया करती है और इस अंतर्क्रिया की प्रक्रिया में कई मंजिलों से गुज़रकर, कई धरातलों पर, पाठक की चेतना में रचना के अर्थ उद्घाटित होते हैं ! हर पाठक की चेतना एक नहीं होती I पाठक समुदाय कोई एकाश्मी, समांगी (monolithic and homogeneous) समुदाय नहीं होता I अलग-अलग पाठकों के अपने वर्गीय संस्कार और पूर्वाग्रह होते हैं और उन्हीं से निर्मित अवस्थिति पर खड़े होकर वे किसी रचना से अंतर्क्रिया करते हैं I उनकी वर्गीय परिस्थितियों की सापेक्षिक और सामान्य समानता के हिसाब से उनकी ग्रुपिंग्स और सबग्रुपिंग्स ज़रूर बनती हैं I समस्या तब खड़ी होती है जब कोई प्रबुद्ध व्यक्ति अपनी वर्गीय एवं वैचारिक अवस्थिति के हिसाब से चयनित लोगों को लेकर  एक कल्पित समांगी, एकाश्मी पाठक समुदाय की सत्ता खड़ी करता है, और फिर उसके प्रतिनिधि के रूप में किसी रचना पर अभिमत देने लगता है I  यह प्रतिनिधित्व कुछ-कुछ वैसा ही होता है जैसे बुर्जुआ लोकतन्त्रों में प्रतिनिधित्व का चरित्र होता है I प्रियदर्शन की समस्या यहीं से खड़ी होती है I वह एक एकाश्मी पाठक समूह की कल्पना या मनोगत निर्धारण करते हैं और फिर उसके प्रतिनिधि या वक़ील के रूप में अदालत में पेश होते हैं I इसी मनोगत ढंग से चयनित पाठक समुदाय के प्रतिनिधि के तौर पर वह बताते हैं कि मेरी कविता अपनी आक्रामकता के कारण, अपनी पुनरुक्तियों और बलाघातों के कारण, लक्ष्यच्युत होकर किसतरह उन तमाम सामान्य स्त्रियों को निशाने पर ले लेती है जो तमाम सांसारिक झंझटों, पितृसत्तात्मक पारिवारिक बंधनों, नियंत्रणकारी राजनीति आदि-आदि का सामना करते हुए प्रेम करने का गुनाह कर रही हैं और उनका कुसूर सिर्फ़ इतना है कि वे युद्ध और नफ़रत से भरी दुनिया में अपने सहज-सामान्य तरीके से प्रेम करने की कोशिश कर रही हैं ! (यह मैं प्रियदर्शन जी की बातों को अपने शब्दों में कह रही हूँ, यह मेरी बात नहीं है)! क्या वाकई मेरी उक्त कविता यह ‘इमोशनल अत्याचार’ या उससे भी अधिक, ऐसा ही कुछ निरंकुश स्वेच्छाचारी अन्याय समूची आम स्त्रियों के समूह पर कर रही है ? इसकी पड़ताल से पहले यह बात स्पष्ट कर लें कि एक कोई ऐसा सार्विक, समांगी, एकाश्मी पाठक समुदाय है ही नहीं जो इस कविता से आहत हो गया हो ! इस कविता की आहत-क्षुब्ध आलोचना प्रस्तुत करने वालों से अधिक संख्या तो उन लोगों की है जिन्होंने इसे समयोचित बताकर प्रशंसा की है I इसकी तस्दीक कोई भी मेरी वाल पर जाकर कर सकता है ! और इस समर्थन को जेंडरगत अस्मितावादी ढंग से मर्दवादी पूर्वाग्रहों की किलकारी न घोषित कर दिया जाये इसलिए यह भी याद दिलाना ज़रूरी है कि उनमें बड़ी संख्या स्त्री पाठकों की है I प्रबुद्ध पाठकों की ही यदि बात करें तो इस कविता के एक पाठक अगर प्रियदर्शन हैं तो दूसरी ओर हिन्दी के पचासों ऐसे कवि-लेखक भी हैं (और इनमें प्रबुद्ध और वरिष्ठ मानी जाने वाली कई स्त्री कवि-लेखक भी शामिल हैं) जिन्होंने इस कविता के बारे में सकारात्मक और प्रशंसात्मक प्रतिक्रियाएँ दी हैं I इन सबके नाम गिनाने की कोई आवश्यकता नहीं I इसकी तस्दीक कोई मेरी वाल पर जाकर कर भी सकता है ! इसलिए किसी कल्पित कुपित-आहत पाठक समुदाय की ओर से नहीं, प्रियदर्शन केवल अपनी ओर से ही अपनी बात कर सकते हैं, या ज़्यादा से ज़्यादा उन पाठकों के समूह की ओर से कर सकते हैं, जिन्हें यह कविता स्त्री-द्वेषी प्रतीत हो रही है, पूरे आम स्त्री समुदाय के ख़िलाफ़, उसके प्रेम करने की स्वाभाविक दमित आकांक्षा एवं उसकी अभिव्यक्तियों के ख़िलाफ़ खड़ी प्रतीत हो रही हैं !

 सबसे पहली बात तो यह है कि यह कविता सभी स्त्रियों की बात कर ही नहीं रही है I कविता की पहली ही पंक्ति है, “कौन हैं ये स्त्रियाँ”I भाषा और अभिव्यक्ति की थोड़ी सी भी समझ रखने वाला व्यक्ति यह आसानी से समझ सकता है कि अगर सामान्य तौर पर कविता भारत की सभी स्त्रियों की बात कर रही होती तो फिर यह पूछने की ज़रूरत ही नहीं होती कि कौन हैं ये स्त्रियाँ ! एक उदाहरण थोड़ा हल्का है लेकिन इतनी हलकी बात के सिलसिले में तो दिया ही जा सकता है I फिल्म ‘जॉली एलएलबी’ में एक पात्र कहता है,”कौन हैं ये लोग? कहाँ से आते हैं?” जाहिर है कि वह पात्र कुछ लोगों की बात कर रहा है I अगर सभी लोगों के बारे में बात हो तो फिर इस वाक्य का कोई मतलब नहीं ! दूसरी बात जिसे प्रियदर्शन एकदम गोल कर जाते हैं, वह यह है कि बात यहाँ समाज की आम स्त्रियों के किसी समूह की हो ही नहीं रही है, बल्कि स्त्री कवियों की हो रही है I कोई कविता संज्ञा-सर्वनाम की परिभाषा देने की तरह शुरू में ही सबकुछ स्पष्ट करके शुरू नहीं होती I कविता जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, उसके तात्पर्य और निहितार्थ खुलते चले जाते हैं I जैसे-जैसे वह आगे बढ़ती है, उसके बिम्ब और रूपक उद्घाटित होते चले जाते हैं और मंतव्य भी I कविता आगे जब यह कहती है कि “इन्हें अशोक वाजपेई की कविता में / घुस जाने की आतुरता हैI / अपनी कविताओं से / ये वहाँ तक पहुँचाने का रास्ता / बना रही हैं”; तो बात एकदम साफ़ है कि बात यहाँ स्त्री कवियों की हो रही है I और यह कविता के “अपने-अपने पाठ” की बात नहीं है, कविता में साफ़ शब्दों में कही गयी एक बात है, जिसकी अनदेखी एक कवि तो क्या, एक जागरूक पाठक की भी मासूमियत नहीं हो सकती I ऐसा अर्थ-संधान वही करेगा जिसके पूर्वाग्रह अवचेतन की गहराइयों तक गहरे पैठे हों, या जो चयनात्मक तरीके से कुछ अभिव्यक्तियों को चुनकर या झाडू-बुहारू तरीके से कुछ सामान्य निष्कर्ष निकालते हुए, अपना पूर्वनिर्धारित फ़ैसला सुनाने के लिए आतुर हो I

 आगे बढ़ते हैं I प्रियदर्शन अपनी टिप्पणी में एकाधिक बार यह यह इंगित देते हैं और स्पष्ट कहते भी हैं कि यह कविता फ़ासिज़्म के समय में प्रेम कविताएँ लिखने के ही ख़िलाफ़ खड़ी है और फिर मनोगत ढंग से यह अर्थ-विस्तार करते हैं कि यह फासिज़्म के समय में प्रेम के ही ख़िलाफ़ है I विश्व साहित्य और इतिहास और भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर के इतिहास से परिचित थोड़ा पढ़े-लिखे लोग यह जानते हैं कि क्रांतियों के दौरान, फासिज़्म-विरोधी संघर्षों के दौरान, उत्कट प्रेम होते रहे हैं और स्मारकीय महत्व की प्रेम कविताएँ लिखी गयी हैं I इस बहस के दायरे के लोगों के बीच ऐसे नामों, घटनाओं, प्रसंगों और व्यक्तियों को गिनाने की कोई ज़रूरत नहीं हैI यहाँ पर कविता के टोन और इंगितों की भी बात नहीं है ! वह दो टूक, साफ़-साफ़ शब्दों में फासिस्ट बर्बरता के ऐतिहासिक दुष्काल में कविता में प्रेम की अभिव्यक्ति के विशिष्ट रूपों और उनसे स्पष्ट होते प्रेम के विशिष्ट चरित्र को आलोचना का विषय बनाती है I ऐसी कविताओं की वह आलोचना करती है जहाँ हमारे समय और समाज की विभीषिकाएँ और बर्बरताएँ नेपथ्य या पार्श्वभूमि में भी दूर-दूर तक नज़र नहीं आतीं, जबकि फ़ासिस्ट ताक़तों के हमलों के निशाने पर विशेष तौर पर स्त्रियाँ भी हैं, तमाम नागरिक स्वतंत्रताओं के साथ, विशेष तौर पर, प्रेम के मामले में निर्णय लेने की स्त्रियों की स्वतन्त्रता भी है I यूँ तो भारतीय समाज में ये चीज़ें हमेशा से प्रतिगामी, रूढ़िवादी ताक़तों के हमलों का निशाना रही हैं, लेकिन आज वह हमला अधिक घनीभूत, नग्न और बर्बर शक्ल ले चुका है I और यह कविता कहीं से भी नारीवाद की आधुनिकतावादी या उत्तर-आधुनिकतावादी दृष्टिकोणों द्वारा प्रस्तुत प्रेम की अवधारणा को भी अपनी आलोचना का विषय नहीं बनाती I उनकी आलोचना अलग से एक विषय हो सकती है और उसपर बहस भी हो सकती है, लेकिन इस कविता की विषय-वस्तु वह है ही नहीं I कविता सिर्फ़ उन कविताओं को, और उनकी रचयिता स्त्री-कवियों को निशाने पर लेती है, जिनकी कविता तमाम ऊपरी रंग-रोगन और आधुनिक दिखावे के भीतर अंतर्वस्तु की दृष्टि से स्वयं नव-रीतिकाल का वितान रचती हैं या छायावादी हैंगओवर से पीड़ित हैं, जिन कविताओं की स्त्रियाँ “इस लहूलुहान वसंत में भी छुअन के ताप से दहक रही हैं, मिलन की यादों से गमक रही हैं, इंतज़ार की बेकली में सिसक रही हैं, विरह की आग में झुलस रही हैं, गतयौवना होने के भय से सिहर रही हैं” और, जो “आधुनिकतावादी विचारों से ढँका अपना रीतिकालीन वैभव ढोती हुई तमाम सांसारिक झंझटों से मुक्त, तमाम राजनीतिक किचपिच से अप्रभावित, निर्दोष-निष्कलुष उद्दाम प्रेम की तलाश में आम और महुआ के महमह बागों और नदियों और सागरों के किनारों और सुदूर वादियों से लेकर आभासी संसार के अथाह-अछोर तक भटक रही हैं I”

फिर कविता अकुंठ भाव से ऐसी स्त्री कवियों को अपने निशाने पर लेती हैं जो रंग-बिरंगे साहित्यिक जलसों और मेलों में और आभासी मंचों पर उन युवा कवियों के साथ चेमगोइयाँ करती खूब नज़र आती हैं जो अपने नाम से और किसी स्त्री कवि का छद्म नाम रखकर ऐसी कविताएँ रचते रहे हैं जिनमें स्त्री एक देहातुर जंतु में और प्रेम दैहिक कामना मात्र में ‘रिड्यूस’ कर दिया जाता रहा है, या फिर उन कवियों के साथ जिनकी एक केन्द्रीय समस्या यह होती है उनकी कविताओं और गद्य में कि वे सभी सम्भोगासनों से थक और ऊब चुके हैं I ये स्त्री कविगण द्रवित योनियों और कठोर कुचाग्रों के कोकशास्त्रीय कवि अवा के साथ (या उनके सम्प्रदाय के अन्य कवियों के साथ भी) रीयल और वर्चुअल मंचों पर खूब देखी जाती हैं और श्रद्धाभाव से उनका साक्षात्कार भी लेती हैं और यह प्रश्न कभी नहीं उठातीं कि अवा की ऐसी कविताएँ कितने वीभत्स ढंग से स्त्री का वस्तुकरण करती हैं और वस्तुतः उसे रीतिकालीन नायिका बना देती हैं ! क्या ऐसी स्त्री कवियों के लिए तीखी व्यंग्यात्मक शैली में यह कहना अनुचित है कि “युगों-युगों से छाती पर लदे / अपने अकथ दुःखों का बोझ / थोड़ी देर को हल्का कर लेने के लिए / ये दुखिया स्त्रियाँ नए रंगरसिया कवियों से / थोड़ी ठिठोली करना चाहती हैंI / इन्हें अशोक वाजपेई की कविता में / घुस जाने की आतुरता है I / अपनी कविताओं से / ये वहाँ तक पहुँचाने का रास्ता / बना रही हैं” ? मेरे ख़याल से तो जो ऐसी घोर राजनीतिक विरोधी ही नहीं, बल्कि घोर स्त्री-विरोधी प्रवृत्तियाँ हैं,  उनकी प्रतिनिधि व्यक्तित्वों के बारे में इसी भाषा में बात होनी चाहिए I और इसी परिदृश्य के बरक्स कविता फासिस्टों के आतंक राज का परिदृश्य प्रस्तुत करती है ताकि स्थिति की भयावहता और वीभत्स कुरूपता अपने सघन-सान्द्र रूप में निरावृत्त होकर सामने आ सके ! हाँ, इन अर्थों में यह एक निर्मम कविता है, और मेरे ख़याल से आज इस साहसिक निर्ममता की बहुत अधिक ज़रूरत है I

 हाल के वर्षों में ऐसी स्त्री कवियों की ऐसी ही कविताओं का घटाटोप पत्रिकाओं और सोशल मीडिया से लेकर संकलनों तक में नज़र आता रहा है ! कविता में उनका नाम नहीं गिनाया जा सकता था और यहाँ भी नाम गिनाना हमें बहस के मूल मंतव्य से भटका देगा I इन कविताओं का सिर्फ़ शिल्प और स्थापत्य भर आधुनिक होता है, या कुछ बिम्ब चमकदार और कहन-शैली नयी होती है, लेकिन इनकी अंतर्वस्तु ‘यदि तुम आ जाते एक बार’, ‘आज जाने की ज़िद ना करो’, ‘बसंत में मन ही नहीं तन को भी सता रही है तुम्हारी याद’ टाइप होती है, नव्ररीतिकालीन रूपवादी होती है, या निम्न स्तर के छायावादी रोमान का प्रहसनात्मक दुहराव होती है,  या कई बार तो, मुशायरों की आशिकी-माशूकी वाली शायरी के ही स्तर की होती है I

इन नवरीतिकालीन रूपवादी प्रेम कविताओं के पीछे की मानसिकता ही मर्दवादी संस्कृति और वैचारिकी से अनुकूलित है I इनके पीछे स्त्री की भौतिक और मानसिक परावलंबिता और व्यक्तित्व-स्वातंत्र्य के अभाव की बहुत आसानी से शिनाख्त की जा सकती है I बुर्जुआ फ़ेमिनिज्म के शुरुआती दौर में जो विद्रोही आवेग था और वैयक्तिकता का जो आग्रह था, वह भी इस कोटि की कविताओं में अनुपस्थित है I पुनर्वसु जोशी ने एक अच्छा शब्द इस्तेमाल किया है, “लाइफ़स्टाइल वाला स्त्रीवाद”! इन कविताओं का कथित नारीवाद भी  बस लाइफ़स्टाइल वाला नारीवाद ही है ! आवरण आधुनिक है, लेकिन अंतर्वस्तु वही पुरातनपंथी रोमानियत वाली I और इनकी एक उपधारा ऐसी भी है जो साहसपूर्ण अभिव्यक्ति के नाम पर प्रेम को दैहिकता में ‘रिड्यूस’ कर देती है I वैज्ञानिक भौतिकवादी जीवन-दृष्टि से लैस हर व्यक्ति यह मानता है कि दैहिकता, ‘सेंसुअसनेस’ भी प्रेम का एक अनिवार्य घटक है, लेकिन प्रेम के सभी आत्मिक-सौन्दर्यात्मक पहलुओं से रिक्त दैहिकता की कामना एक विमानवीकृत मानस को ही दर्शाती है I मेरी कविता का विवरण ही बताता है कि इसकी आलोचना फ़ेमिनिज्म की वैचारिकी पर नहीं (वह एक अलग विषय है) बल्कि स्त्री कविता के क्षेत्र के ‘नियोकान’ (neocon) और मॉडरेट कंज़र्वेटिज्म की वैचारिकी के ख़िलाफ़ केन्द्रित है क्योंकि भारत जैसे देश में नव-उदारवादी दौर की संस्कृति को यही छद्म आधुनिकता सूट करती है I हेगेलीय शब्दावली में कहें तो स्त्री कविता के एक अच्छे-खासे हिस्से में भी नज़ारा यही है कि नयी बुर्जुआ संस्कृति ने मध्ययुगीन मर्दवादी मूल्यों को उत्सादित (sublate) करके आत्मसात कर लिया है I ‘आइडेंटिटी पॉलिटिक्स’ और ‘इंटरसेक्शनैलिटी’ की सैद्धांतिकी प्रभावित कुछ अधकचरी नारीवादी तो मात्र यही सोचकर भड़क गयीं कि यह कविता स्त्री के प्रेम करने की निजी स्वतन्त्रता पर ही चोट कर रही है ! उन्होंने यह समझने की जहमत भी नहीं उठायी कि कविता किस तरह के प्रेम को निरूपित करने वाली प्रेम पविताओं और उनकी रचयिता स्त्री-कवियों को टारगेट कर रही है I हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में जब विचारों की बात आती है तो ऐसी लिफ़ाफ़ेबाज़ी आम तौर पर देखने को मिल जाती है I और हिन्दी की स्त्री कवियों में तो यह खोखलापन बहुत अधिक है, जिसकी भरपाई के लिए वे बस सुनी-सुनायी बातों या आधी-अधूरी जानकारी के आधार पर यूँ ही कुछ जुमलेबाजी करती रहती हैं I इसकी शिकार वाम धारा की कई स्त्री कवि भी हैं जो कई बार यह समझ ही नहीं पातीं कि वे कहाँ खड़ी हैं, या लोग यह नहीं समझ पाते कि वे कहाँ खड़ी हैं ! उन कविताओं में निरूपित प्रेम अपने-आप में मर्दवादी संस्कृति और वैचारिकी से अनुकूलित है और अराजनीतिक तो उसे होना ही था I जैसाकि मैंने कहा कि इन कविताओं की ‘नियोकान’ वैचारिकी नवउदारवाद की संस्कृति का घटक है, इसलिए इनका घोर अराजनीतिक होना या देश के राजनीतिक-सामाजिक माहौल की विभीषिका से एकदम असम्पृक्त होना भी नवउदारवाद और उसके सबसे “योग्य एवं कुशल” प्रतिनिधि –- फासिस्टों के हित में ही है I

 प्रियदर्शन एक कवि-लेखक के रूप में कविता के इतने ख़राब पाठक तो नहीं हो सकते कि जो बात स्त्री कवियों, और उनके एक विशिष्ट समुदाय के लिए कही गयी है उसे समूचे स्त्री समुदाय पर या सभी स्त्री कवियों पर हमला मान लें I  और जो बात एक विशिष्ट किस्म की प्रेम कविताओं के लिए कही गयी है, उसे प्रेम करने की क्रिया या प्रेम कविताएँ लिखने के ही ख़िलाफ़ मान लें ! फिर भी अगर उन्होंने बहुत चतुराई से ऐसा ही करने की कोशिश की है और मुद्दई को ही मुद्दालेह बनाकर कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की है तो ऐसा क्यों किया है, इसके बारे में मेरी यह टिप्पणी पढ़ने वाले सोचें, मेरा जजमेंटल होकर कुछ कहना ठीक नहीं होगा I मेरी वैचारिक अवस्थिति से असहमति हो सकती है लेकिन मनमाने निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए कविता की भीषण दुर्व्याख्या वाली बात नहीं समझ आती ! प्रियदर्शन की नीयत पर तो सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए, संभव है कि उनकी कविता की समझदारी बस इतनी ही हो, या साहित्य की स्कूली पढाई के अवशिष्ट प्रभावों के अतिरिक्त अखबारी कलमघसीटी ने उनकी काव्यात्मक समझ को कुंद बना दिया हो, या हो सकता है कि उनके गहरे वैचारिक और वर्गीय पूर्वाग्रहों ने उनको  अनजाने ही सर्वथा भोंड़े और कुतर्की नतीजों तक पहुँचा दिया हो ! जो भी हो, इस बारे में अनुमान लगाने का फ़ायदा ही क्या ! कविता का मंतव्य कविता के भीतर ही इतना साफ़ है कि कवि को कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं होनी चाहिए थी I अभी दुर्व्याख्या और कुतर्की तोड़मरोड़ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए और भी बहुत सारी बातें की जा सकती हैं, लेकिन नाहक विस्तार में जाएँ ही क्यों जब इतनी ही बातों से किसी भी पूर्वाग्रह-मुक्त वस्तुनिष्ठ पाठक के लिए बातें एकदम साफ़ हो जाती हैं I जो भी हो, प्रियदर्शन की यह टिप्पणी पढ़ने से पहले यह अनुमान तो नहीं ही था कि वह ऐसी स्पष्ट संरचना और सरल स्थापत्य वाली कविता का ऐसा भयंकर कुपाठ प्रस्तुत करेंगे ! हाँ, अगर कवि-लेखक से मार्क्सवाद के शिक्षक से इतिहासकार बने और मार्क्सवाद से (राहुल) गाँधीवाद तक की यात्रा करने वाले कटपेस्ट पाँड़े ने मेरी कविता को प्रेम करने के ही विरुद्ध घोषित करके, प्रेम और कविता के ओसामा बिन लादेन का चोंगा पहनकर यह फतवा जारी कर दिया तो कोई आश्चर्य नहीं कि जो प्रेम का विरोधी है वह क्रान्ति का भी विरोधी है, अतः मनुष्यता को बचाने के लिए प्रेम के ऐसे विरोधियों का नाश हो जाना चाहिए I मैं तो पाँड़े जी से ज्ञान लेती नहीं, लेकिन एक मित्र ने उनकी एक पोस्ट भेजी जिससे यह पता चला कि कुपित प्रेमपुजारी मुनिवर ने मुझे यह भयंकर शाप दे डाला है ! बहरहाल, प्रियदर्शन मेरी कविता को भटका हुआ तीर समझते हैं लेकिन मुझे तो यह लगता है कि कविता मूलतः अपने लक्ष्य-संधान में सफल हुई है ! कुछ मूर्खों और कुपढ़ एवं पूर्वाग्रहित लोगों को छोड़ दें तो सबसे अधिक तिलमिलाहट उसी जमात को हुई है जिसे निशाना बनाया गया है I अब जाहिर है कि बिलबिलाई हुई प्रेम-बेसुध आत्माएँ मुझे कोसेंगी, उल्टी-सीधी बातें करेंगी और गिरोहबंद होकर विषबुझे शब्दबाणों की वर्षा करेंगी I छद्म-आधुनिकता की शाल ओढ़े यही वे स्त्रियाँ हैं जो समूची स्त्री समुदाय की वास्तविक मुक्ति और प्रेम की वास्तविक, तर्कपरक, वैज्ञानिक अवधारणा की शत्रु हैं ! घोर अराजनीतिक इस जमात को फासिज़्म की महाविपत्ति से भला क्या लेना-देना ! इन्हें तो हिन्दी कविता के क्षितिज पर एक नये नक्षत्र-मंडल की तरह चमकने भर से मतलब है !

 प्रियदर्शन जब नानाविध द्रविड़ प्राणायाम करने के बाद कविता के इस अर्थ को अपनी नज़रिए से स्थापित कर लेते हैं कि मेरी कविता फ़ासिस्ट बर्बरता के ऐतिहासिक दुष्काल में कुछ विशिष्ट किस्म की घोर अराजनीतिक, समय-समाज-निर्लिप्त, द्वीपीय प्रेम-विह्वलता और मर्दवादी वैचारिकी से अनुकूलित तथा नव-रीतिकालीन अंतर्वस्तु वाली रूपवादी प्रेम कविताओं और इनका सृजन करने वाली स्त्री कवियों के विरुद्ध नहीं, बल्कि आम तौर पर, तमाम विपरीत परिस्थितियों में जैसे-तैसे  प्रेम कर पाने वाली सभी स्त्रियों के ही विरुद्ध है, एक फ़ासिस्ट समय में प्रेम कविताएँ रचने के ही विरुद्ध है,  तब फिर वह आगे बढ़ते हैं और कुछ राजनीतिक परिघटनाओं की ग़लत समझ के साथ कविता के कल्पित लक्ष्य का बादरायण सम्बन्ध स्थापित करते हुए यह निष्कर्ष निकालते हैं कि अपनी इस कविता के ज़रिये मैं तमाम प्रेम करने वाली और प्रेम कविताएँ लिखने वाली स्त्रियों को फ़ासिज़्म के हौव्वे से डरा रही हूँ और सिर्फ़ इतना ही नहीं कर रही हूँ, बल्कि फासिस्टों को उनके हमले का निशाना बताकर उनकी मदद कर रही हूँ I यहाँ तक आते-आते प्रियदर्शन आभासी तार्किकता और संजीदा विमर्शकार का चोला पूरीतरह उतार फेंकते हैं और बेहद कुतर्की ओछेपन एवं पूर्वाग्रहों के साथ सामने आ जाते हैं I इन कठोर शब्दों के लिए मैं क्षमा चाहती हूँ, लेकिन मेरे तर्कों के निष्कर्ष मुझे यहीं तक पहुँचाते हैं और वस्तुनिष्ठ वैज्ञानिक तर्कशीलता को अपने निष्कर्षों को प्रस्तुत करने में न घबराना चाहिए, न संकोच करना चाहिए I पूछने की इच्छा होती है कि जैसे हत्यारे ये जानते ही नहीं कि उनके निशाना कौन हैं और मेरी कविता उन्हें बता रही है ! हत्यारों को उनका निशाने की शिनाख्तगी में मदद करने वाले सांस्कृतिक-बौद्धिक खबरी हमेशा ही बुर्जुआ लिबरल और सोशल डेमोक्रेट पाँतों में छिपे होते हैं और फिर फ़ासिस्टों का अपना संगठित सूचना-संग्रह तंत्र होता है, थिंक टैंक्स होते हैं जिनके सहारे प्रभावी एवं वर्चस्वशील शक्ति बनने के बहुत पहले से वे जानते होते हैं कि उन्हें किन लोगों को टारगेट करना है I जो इस बात को नहीं समझता है उसे जर्मनी, इटली और भारत में फ़ासिज़्म के विकास की प्रक्रिया और इतिहास के बारे में थोड़ा पढ़ लेना चाहिए I बहुत अज्ञानी और नाजानकार आदमी है वह ! दूसरी बात, जिन स्त्रियों को मेरी कविता अपने हमले का निशाना बनाती है ये घोर अराजनीतिक नव-रूपवादी स्त्री कवि तो खुद ही नवउदारवाद के ‘नियोकांस’ हैं और कम से कम, सचेतन नहीं तो वस्तुगत तौर पर तो फ़ासिज़्म की मददगार ही हैं क्योंकि यह तो फ़ासिस्ट चाहेंगे ही कि ऐसी ही अराजनीतिक छद्म-आधुनिक, रूपवादी कविताओं का, विशेषकर उत्पीड़ित स्त्री समुदाय के भीतर से आने वाली स्त्री कवियों द्वारा लिखी गयी ऐसी कविताओं का, रेलमपेल हो जाये तथा रंगारंग सांस्कृतिक जलसों-महोत्सवों का, साहित्यिक पिकनिक पार्टियों और किटी पार्टियों का ऐसा वर्चस्वकारी माहौल तैयार हो कि जीवन और साहित्य के सारे जलते हुए आसन्न सवाल स्वतः हाशिये पर चले जायें, विचारहीनता का एक ऐसा रौरव नरक निर्मित हो जिसमें फ़ासिस्ट हत्यारे सुगमतापूर्वक अपना आखेट कर सकें I  केवल फ़ासिस्टों की ही नहीं, हर तरह के बुर्जुआ शासक वर्ग की यह नीति होती है कि उत्पीड़ित समुदायों के भीतर से अपने कुछ बौद्धिक एजेंट तैयार किये जायें और कुछ ‘सोशल प्रॉप’ खड़े किये जायें क्योंकि उन्हें अपने बीच का समझकर वह विशेष उत्पीड़ित आबादी उनकी बात ध्यान एवं विश्वास के साथ सुनती है और इसतरह शासक वर्ग के सामाजिक आधारों का विस्तार होता है I भारत में दलितों और स्त्रियों के बीच संघी फ़ासिस्ट इस काम को बहुत महारत के साथ अंजाम देते हैं और उसके अच्छे नतीजे भी उन्होंने खूब हासिल किये हैं I इसतरह हम देख सकते हैं कि प्रियदर्शन ने बहुविध बादरायण प्रयासों ने किसतरह पूरी सच्चाई को ही सर के बल खड़ा कर दिया है ! यही नहीं, मुझे ही प्रकारांतर से, बिना कहे, फ़ासिस्ट सिद्ध करने के लिए प्रियदर्शन जब यह तर्क देते हैं कि जिसतरह फ़ासिस्टों का तरीका होता है कि वे वह एक नकली शत्रु खड़ा करते हैं और उसके विरुद्ध लोगों को जुटाते हैं, उसी तकनीक का इस्तेमाल करते हुए मेरी कविता क्रान्ति के नकली शत्रु खड़े कर रही है I मैंने ऊपर यह एकदम स्पष्ट कर दिया है कि किसतरह जैसी प्रेम कविताओं और उनका उत्पादन करने वाली स्त्री कवियों को मेरी कविता निशाना बनाती है, वे वस्तुनिष्ठ या आत्मनिष्ठ तरीके से फ़ासिज़्म के पक्ष में खड़ी हैं, नरम या कट्टर उदारवाद की संस्कृति की संवाहक हैं और नवउदारवाद की नियोकांस हैं ! इन्हें हम शब्द के ऐतिहासिक अर्थों में फ़ेमिनिस्ट भी कदापि नहीं कह सकते (फ़ेमिनिस्टों की विविध सरणियों-उपसरणियों की वैचारिकी और संस्कृति एक अलग चर्चा और आलोचना का विषय है और वह यहाँ हमारा विषय नहीं है) I अब उस भीषण और हास्यास्पद मूर्खता की चर्चा भी कर ही लें जिसे भीषण और हास्यास्पद मूर्खता कहते हुए संकोच तो हो रहा है लेकिन कहने की मज़बूरी है क्योंकि ऐसा ही है I प्रियदर्शन जी के सम्मान के लिए ही मैंने उनकी टिप्पणी के बहुत सारे हलके और ओछे कुतर्कों को छोड़ दिया है क्योंकि अगर उनकी चीरफाड़ की जाती तो काफी छीछालेदर होती I लेकिन यह एक सैद्धांतिक प्रश्न पर विभ्रम फैलाने वाली बात है, इसलिए इसे छोड़ा नहीं जा सकता है ! यह है, फासिस्टों द्वारा नकली शत्रु खड़ा करने वाली बात ! ऐसा लगता है कि पिछले सौ वर्षों के भीतर फ़ासिज़्म की राजनीतिक परिघटना, उसके स्रोत, उसके सामाजिक आधार, उसकी नीति और रणनीति पर पिछले सौ वर्षों के दौरान जो विपुल चिंतन और बहसें हुई हैं, उनमें से कुछ प्रातिनिधिक सामग्री को भी पढ़ने के बजाय प्रियदर्शन ने बस सत्संग से, और चलताऊ सामग्री उलट-पलटकर एक समझ बना ली है और कुछ टर्म्स और जुमलों को पकड़ लिया है I वैसे भी भारत में एक गंभीर समस्या यह है कि कुछ लोग तो बुर्जुआ सत्ता की बोनापार्टिस्ट किस्म की निरंकुशता या बिस्मार्कियन निरंकुशता, मिलिट्री जुन्ताओं की तानाशाही, नाममात्र आज़ादी वाली बुर्जुआ सत्ताओं की निरंकुशता और फ़ासिज़्म के बीच कोई अंतर नहीं करते और ‘सब धान बाईस पसेरी तौलते हुए’ हर प्रकार की खुली तानाशाही के लिए फ़ासिस्ट विशेषण चेप देते हैं ! ऐसे लोग फ़ासिस्टों के विरुद्ध साझा मोर्चे और संघर्ष की रणनीतियों पर आख्यान-व्याख्यान भी देते रहते हैं और लेखादि लिखकर ज्ञान-वर्षण भी करते रहते हैं ! इससे उलटे फ़ासिस्टों की अभिलाक्षणिकताओं की पहचान का काम नकारात्मक ढंग से प्रभावित होता है और फ़ासिस्टों की मदद ही होती है ! प्रियदर्शन भी ऐसा ही काम करते हैं ! फ़ासिस्टों द्वारा व्यापक जनसमुदाय के सामने एक कल्पित या नक़ली शत्रु खड़ा करने की प्रक्रिया एक संश्लिष्ट परिघटना है I फ़ासिस्ट समाज के बुनियादी अंतरविरोधों को दृष्टिओझल करने के लिए और जनसमुदाय को धार्मिक, जातिगत, नस्ली, जेंडरगत या/और राष्ट्रीय आधार पर बाँटने के लिए, एक बहुत लम्बी प्रक्रिया में परिवार, स्कूल, विविध सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं सहित समूचे ‘आइडियोलोजिकल स्टेट आपरेटस’ (अल्थूसेरियन शब्दावली में) का और अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक-शैक्षिक संस्थाओं का तथा संचार एवं सांस्कृतिक माध्यमों का इस्तेमाल करके, इतिहास के मिथकीयकरण, मिथ्या इतिहास-निर्माण और मिथकों को पॉपुलर विश्वास के रूप में जनमानस में पैठाने की तकनीक के ज़रिये एक धुर-प्रतिक्रियावादी पॉपुलर संस्कृति का गठन करते हैं, एक ‘मिथ्या चेतना’ (फाल्स कांशसनेस) का निर्माण करते हैं और बहुसंख्यक आबादी के सामने अल्पसंख्यक समुदायों के किसी एक या कुछ हिस्सों को एक नकली या कल्पित शत्रु के रूप में खड़ा करते हैं ! यह काम वे कुछ लेखों या कविता से नहीं कर सकते I प्रियदर्शन की नज़र में अगर मेरी कविता ने ग़लत ढंग से प्रेम करने और प्रेम कविताएँ लिखने वाली सभी स्त्रियों को टारगेट किया, तब भी इसे नकली शत्रु गढ़ने की फासिस्ट टेकनीक नहीं कहा जा सकता ! इसे ही कहते हैं मनोवांछित, पूर्वनिर्धारित निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा मिलाना या तर्क की बादरायण प्रयास पद्धति ! प्रियदर्शन जैसे व्यक्ति को इतना हल्का काम नहीं करना चाहिए था I इसतरह के कार्यभारों को अंजाम देने के लिए तो अशोक कुमार पाण्डेय और सुशीला पुरी जैसी तमाम विभूतियाँ हैं ही ! पुरीजी भी बहुत दिलचस्प महिला हैं और स्त्री कवियों की उसी श्रेणी में आती हैं जिनपर मेरी कविता में हमला किया गया है I अभी इस बहस में भी कूदकर तीन वाक्य की एक टिप्पणी में मुझे फ़ासिस्ट बता गयी हैं ! पढ़ना-लिखना कुछ नहीं, खुद ही नहीं जानती कि क्या कह रही हैं, लेकिन हर बहस में कूदकर कुछ आंय-बांय ज़रूर करेंगी I उदय प्रकाश द्वारा उत्तर-आधुनिकतावादी होने के बाद मार्क्सवाद और समाजवाद के बारे में उनकी अनाप-शनाप टिप्पणियों और फ़ासिस्ट योगी के साथ मंच शेयर करके उसके हाथों सम्मान लेने के विरुद्ध जब कविता कृष्णपल्लवी ने लिखा और एक लम्बी बहस शुरू हुई तो अंधभक्त गुंडे की तरह उसमें कूद पडीं और उल्टी-सीधी बातें करने लगीं I आलोकधन्वा के फासिस्ट सत्ता के साथ मधुयामिनी और वैचारिक विचलनों पर जब मैंने बहस छेड़ी तो उसमें भी टपक पड़ीं ! देशव्यापी स्तर पर जन-संपर्क का काम बहुत चाक-चौबंद तरीके से करती हैं I परस्पर विरोधी विचारों की स्त्री कवियों से बहनापा भी खूब चलता है !  साहित्यिक जलसों और किटी पार्टियों टाइप साहित्यिक आयोजनों  की व्यसनी हैं ! अशोक वाजपेयी सम्प्रदाय भी प्रिय है और जलेस-प्रलेस-जसम के कार्यक्रमों में भी बढ़-चढ़कर उपस्थित रहती हैं I आयोजनों की मेजबानी सहर्ष करती हैं I ऐसी विभूतियों की, ऐसी कथित नारीवादी वीरांगनाओं की भरमार है ! प्रियदर्शन ने यह कार्यभार इसी प्रजाति के लिए छोड़ दिया होता तो बेहतर होता !  बाकी कुछ कथित “माओवादी” अतिकिरांतीकारी जड़भरत हैं जो इनदिनों बौद्धिक-सांस्कृतिक दुनिया में जगह बनाने के लिए व्यग्र हैं और हमलोगों के ख़िलाफ़ शैतान के साथ भी मोर्चा बनाने के लिए भी तैयार खड़े  रहते हैं ! उनमें से भी एक इस बहस में कूदे (बाक़ी उनकी मंडली सिर्फ़ मेरे विरुद्ध चाहे जिस किसी स्टैंडपॉइंट से लिखी पोस्ट्स पर लाइक ठोंकने और कमेंट बॉक्स में संक्षिप्त प्रशंसात्मक कमेंट्स देने का काम करती रही)  और एक अतिसंक्षिप्त उत्तर के बाद ही  मेरे स्टैंड के विरुद्ध फेसबुक की किसी भी टिप्पणी पर जाकर लाइक ठोंकने लगे और फिर हर जगह प्रियदर्शन की टिप्पणी के लिंक चेपने लगे I ज्ञान की बुर्जुआ और सोशल डेमोक्रेटिक बगिया के वृक्षों पर लगातार इधर-उधर बन्दरकुद्दी मारने वाले इनलोगों से यह भी पूछना व्यर्थ है कि ‘पार्टनर, आपकी पॉलिटिक्स क्या है’, क्योंकि ये बखूबी जानते हैं कि इनकी पॉलिटिक्स क्या है ! ऐसे लोगों से तो बहस चलाना खाली-पीली अपना टाइम ही खोटा करना होता ! और उन वीरांगनाओं से क्या बहस चलाना जो जानती ही नहीं कि वे क्या कह रही हैं ! लेकिन प्रियदर्शन बौद्धिक-सांस्कृतिक दुनिया में एक संजीदा और गंभीर व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं और मेरे भी शुभचिंतक हैं, इसलिए उनकी आपत्तियों और आलोचनाओं की भला मैं अनदेखी कैसे कर सकती थी ! इसलिए उनकी आलोचनात्मक टिप्पणी पर संक्षेप में मैंने अपना यह अभिमत रखा है !

 (इसबार इतना ही ! बहस आगे चलेगी तो और विस्तार से अपनी बातें रखूँगी !)

कात्‍यायनी के फेसबुक वॉल से साभार

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