माओ के लेखन का सम्पादन और कवि मदन कश्यप की कूपमण्डूकीय अनधिकार चेष्टा
किस्सा हिन्दी के एक कवि के 'माओ-विशेषज्ञ' बनने का
हमारे गाँव में एक कीर्तनिया था। भजन-कीर्तन, अष्टयाम आदि में गाने-बजाने के लिए प्रसिद्ध था, लेकिन कोई और काम नहीं करता था। महाकाहिल और गँजेड़ी-भँगेड़ी था । ज्यादातर समय पास के बाज़ार में वैद्यजी की दुकान में बैठा रहता था और कभी-कभार जड़ी-बूटियों की कुटाई-पिसाई में वैद्य जी के कम्पाउण्डर की मदद कर दिया करता था। घर पहुँचने पर पत्नी हमेशा ही झाड़ू-डण्डे से स्वागत करती थी। आखिर तंग आकर उसने कुछ लायक और कमासुत बनने की सोची। वैद्यजी का इक्केवान बना तो इक्का खेत में उलट दिया। वैद्य जी ने थप्पड़ों से पीटा और घटनास्थल पर मौजूद ग्रामीणों ने लातों से । कुछ दिनों बाद वयोवृद्ध वैद्यजी का निधन हो गया । सहसा कीर्तनिया को नायाब आइडिया आया और उसने गाँव में बैदकी शुरू कर दी। अरुस, तुलसी और नीम के पत्ते, आँवला, हर्रे, बहेड़ा, मुलहठी, लौंग, गिलोय, सोंठ, काली मिर्च आदि कूट-काटकर पुड़िया बनाने लगा । डिब्बों और शीशियों में ईसबगोल, शहद, सिरका आदि भरकर रख लिया। कुछ लोगों को खाँसी-बुखार, दस्त, पेचिश वगैरह में इत्तेफ़ाक से फ़ायदा भी हो गया । कुछ को नहीं भी हुआ । लेकिन गाँव में कीर्तनिया की 'बैदकी' चल निकली। फिर वह कुछ झाड़-फूँक भी करने लगा।
हिन्दी साहित्य में आजकल ऐसे कीर्तनियों की भीड़ है जो वैद्य और ओझा बनने के लिए आकुल-व्याकुल हैं । बहुतेरे ऐसे हैं जो समाज-विज्ञान में शोध-अध्ययन के पद्धति-शास्त्र से बिना किसी परिचय के इतिहास की किताबें लिखे जा रहे हैं । कहने को वे मार्क्सवादी हैं लेकिन मार्क्सवादी इतिहासकारों के विपुल लेखन से भी परिचित नहीं हैं । अधिकांश ऐसे लोग दरअसल इतिहास-लेखन के नाम पर डैलरिम्पल, दोमिनिक लपियरे, रामचंद्र गुहा आदि के 'पॉपुलिस्ट' इतिहास-लेखन का ही भोंड़ा संस्करण पेश कर रहे हैं और समाज विज्ञान में मौलिक लेखन के क्षेत्र में हिन्दी भाषा की दरिद्रता को अपनी मूर्खता एवं कूपमण्डूकता से विस्थापित कर रहे हैं।
जैसे इतना ही कम था कि हिन्दी के कवि मदन कश्यप कलम तानकर आगे आये और माओ-साहित्य के विशेषज्ञ की कुर्सी पर आत्मविश्वासपूर्वक विराजमान हो गये। 2019 में 'सेतु प्रकाशन' से 'ज्ञान श्रृंखला' के अंतर्गत 'माओ त्से-तुंग' शीर्षक से उनके द्वारा संपादित किताब आयी जो माओ के चुने हुए लेखों का संकलन है जिसकी भूमिका मदन कश्यप ने लिखी है। पुस्तक के अवलोकन का सौभाग्य मुझे अभी-अभी प्राप्त हुआ, इसलिए इतनी देर से इसके बारे में लिख रही हूँ क्योंकि इस संकलन में माओ त्से-तुंग की रचनाओं में से जो चयन किया गया है, वह नितांत बेतुका और अतर्कसंगत है। और भी आपत्तिजनक बात यह है कि 'कैफ़ियत' शीर्षक से दी गयी अपनी सम्पादकीय भूमिका में कई बचकानी और अधकचरी राजनीतिक बातें करने के साथ ही मदन कश्यप ने कई-कई तथ्यात्मक ग़लतियाँ भी की हैं। यह ग़ैरज़िम्मेदारी हिन्दी पाठकों को दिग्भ्रमित करने के नाते अक्षम्य है । अकादमिक मामले में यह आपराधिक है । मैं सिलसिलेवार इन सबकी चर्चा करूँगी।
पाठकों की सुविधा के लिए पहले कुछ तथ्यों का संक्षिप्त उल्लेख कर दें।
माओ त्से-तुंग की चुनी हुई रचनाओं के चीन से कुल पाँच खण्ड प्रकाशित हुए । चार माओ के जीवन-काल में और पाँचवाँ उनके निधन के ठीक बाद, जब हुआ कुओ-फेंग पार्टी का चेयरमैन था । हिन्दी में पहला खण्ड 1969 में, दूसरा 1973 में, तीसरा 1975 में और चौथा 1976 में प्रकाशित हुआ, पाँचवाँ खण्ड चीन से अंग्रेजी में 1977 में प्रकाशित हुआ, लेकिन उसका हिन्दी संस्करण नहीं आया। बहुत बाद में अप्रैल 2001 में पाँचवें खण्ड का हिन्दी अनुवाद 'प्रोग्रेसिव पब्लिकेशंस', दिल्ली ने प्रकाशित किया (हालाँकि एक हद तक असंतोषजनक अनुवाद के साथ) । इसके अतिरिक्त चीन से एक खण्ड में माओ की चयनित रचनाओं का एक खण्ड 'सेलेक्टेड रीडिंग्स फ्रॉम द वर्क्स ऑफ माओ त्से-तुंग' नाम से 1971 में प्रकाशित हुआ जिसका हिन्दी अनुवाद 2004 में 'राहुल फाउण्डेशन' (लखनऊ) ने 'माओ त्से-तुंग की रचनाएँ : प्रतिनिधि चयन' (एक खण्ड में) शीर्षक से प्रकाशित किया । माओ के चुने हुए लेखों का एक और संकलन 'न्यू विस्टास पब्लिकेशंस', नई दिल्ली ने अंग्रेजी में 2003 में प्रकाशित किया । चीन से चुनी हुई सामरिक रचनाओं का एक संकलन अलग से 'सेलेक्टेड मिलिटरी राइटिंग्स ऑफ माओ त्से-तुंग' नाम से अंग्रेजी में 1963 में प्रकाशित हुआ था। माओं के दर्शन विषयक लेखों का एक संकलन 'फोर एसेज़ ऑन फ़िलॉसोफ़ी' नाम से चीन से 1966 में छपा । पुन: 'फाइव एसेज़ ऑन फ़िलॉसोफ़ी' 1977 में छपा । कला-साहित्य विषयक एक छोटा सा संकलन भी 'कला साहित्य के बारे में अध्यक्ष माओ त्से-तुंग के पाँच दस्तावेज' नाम से 1968 में चीन से प्रकाशित हुआ । माओ के चुने हुए उद्धरणों का एक संकलन 1972 में चीन से अंग्रेजी और हिन्दी में छपकर आया, जो पूरी दुनिया में 'लाल किताब' या 'रेड बुक' नाम से ख्यात हुआ । माओ की कई रचनाएँ और भाषण जो पाँच खण्डों में शामिल नहीं थे और मुख्यत: '50, '60 और '70 के दशक के थे, उनमें से कई सांस्कृतिक क्रांति के दौरान 'रेड गार्ड पब्लिकेशन' और 'लाल झंडा प्रकाशन' बीजिंग द्वारा बुकलेट के रूप में छपते रहे । इनमें 'लांग लिव माओ त्से-तुंग थॉट' नामक संकलन विशेष तौर पर उल्लेखनीय है। अमेरिका से 1974 में माओ के ऐसे कई लेखों, भाषणों, साक्षात्कारों का, जो संकलित रचनाओं के पाँच खण्डों में शामिल नहीं थे, एक संकलन दो खण्डों में 'मिसेलनी ऑफ माओ त्से-तुंग थॉट' (1949-1968) नाम से 'ज्वाईंट पब्लिकेशन रिसर्च सार्विस', संयुक्त राज्य अमेरिका ने प्रकाशित किया । हालाँकि ये सी.आई.ए. के ''बौद्धिक गुप्तचरों'' की खोजों का नतीजा था, लेकिन चीनी क्रांति और माओ के लेखन के अध्येता अधिकांश विद्वान इस संकलन की सामग्री को भी प्रामाणिक मानते हैं । माओ की चुनी हुई रचनाओं के कई अन्य संकलन विद्वत्तापूर्ण और प्रामाणिक सम्पादकीय टिप्पणी के साथ अमेरिका और ब्रिटेन में प्रकाशित हुए जैसे, एने फ्रेमेण्टल द्वारा संकलित-संपादित 'माओ त्से-तुंग: ऐन एंथॉलॉजी ऑफ हिज़ राइटिंग्स' (इण्टरनेशनल पब्लिशर्स, न्यूयार्क, 1954 और संशोधित-परिवर्धित संस्करण 'द न्यू अमेरिकन लाइब्रेरी,न्यूयॉर्क,1962) । इन सबके अतिरिक्त चीनी क्रांति और माओ के लेखन के जाने-माने विशेषज्ञ, कई पश्चिमी लेखक और इतिहासकार माओ के ऐसे कई लेखों और टिप्पणियों को मूल चीनी भाषा से ही उद्धृत करते रहे हैं, जो अंग्रेज़ी या किसी अन्य यूरोपीय भाषा में उपलब्ध नहीं हैं । ऐसी विपुल सामग्री पश्चिम के, विशेषकर अमेरिका और फ्रांस के अध्येताओं की पहुँच में मौजूद है, जिन्हें चीन के 'पूँजीवादी पथगामियों' (''बाज़ार समाजवादियों'') की वर्तमान सत्ता कभी भी प्रकाश में नहीं लायेगी।
इतिहास और इतिहास-बोध साथ दुराचार की एक और बेमिसाल मिसाल की चर्चा भी यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगी । भारत के कुछ कथित माओवादी ''विद्वानों'' ने एक कमाल यह किया कि 1917 से लेकर (जब माओ अभी कम्युनिस्ट बनने की प्रक्रिया में ही थे) मृत्युपर्यंत माओ का जितना भी लेखन (और भाषण, साक्षात्कार आदि) मिल सका, जो 'सेलेक्टेड वर्क्स' के पाँच खण्डों में शामिल नहीं था, उसे इकट्ठा करके 'सेलेक्टेड वर्क्स' वॉल्यूम- 6, 7,8 और 9 के रूप में प्रकाशित कर दिया I इससे बढाकर उद्धत और मूर्खतापूर्ण ग़ैरज़िम्मेदारी भला और क्या हो सकती है ! उल्लेखनीय है कि माओ के 'सेलेक्टेड वर्क्स' के लिए चीनी पार्टी ने एक बहुसंस्तरीय, विशाल सम्पादक मण्डल बनाया था। फिर सामग्री के चयन की समीक्षा केन्द्रीय कमेटी के पोलित ब्यूरो की विशेष टीम करती थी। अंतिम रूप से पहले चार खण्डों का माओ ने स्वयं निरीक्षण किया और सम्पादन की स्वीकृति दी । पाँचवें खण्ड को अंतिम रूप देने तक उनका निधन हो चुका था। अव्वलन तो अगर कुछ लोगों ने माओ की रचनाओं का ऐसा संकलन तैयार भी किया तो उसे चीनी पार्टी द्वारा प्रकाशित संकलित रचनाओं के क्रम में खण्ड - 6,7,8,9 तो कत्तई नहीं कहा जा सकता । ख़ास तौर पर तब जब इनमें से कई लेखों को स्वयं माओ ने ही संकलित रचनाओं के चार खण्डों से बाहर रखा था । दूसरी बात, इकट्ठा की गयी कुल उपलब्ध रचनाओं के खण्डों को 'संकलित रचनाएँ' या 'सेलेक्टेड वर्क्स' कहा ही नहीं जा सकता । हाँ, अगर 'माओ त्से-तुंग की अन्य उपलब्ध रचनाएँ' नाम से ये खण्ड प्रकाशित किये जाते, तो भी एक बात होती । कम से कम गम्भीर अध्येताओं के साथ भ्रमोत्पादक अत्याचार और इतिहास के साथ दुराचार तो नहीं होता!
अब हम मदन कश्यप के चयन और सम्पादन के कमाल पर आते हैं। संकलन में कुल 11 निबन्ध शामिल हैं। इनके चयन का पैमाना क्या है, पता ही नहीं चलता । लेख न प्रवर्ग के हिसाब से क्रमबद्ध है, न ही विषय के हिसाब से, और न ही कालक्रम के हिसाब से ! चुने गये लेख संकलित रचनाओं के किस खण्ड से लिये गये हैं, यह भी नहीं बताया गया है । सम्पादक महोदय ने यह भी उल्लेख नहीं किया है कि चुने गये सभी लेख (अंत की टिप्पणियों यानी End-notes सहित) संकलित रचनाओं के चीन से प्रकाशित हिन्दी संस्करण से हूबहू ले लिये गये हैं । न तो सम्पादक महोदय का अपना अनुवाद है, न ही अपनी ओर से उन्होंने कोई टिप्पणी कहीं जोड़ी है । यानी मदन कश्यप ने रचनाओं का सिर्फ चयन किया है और यह चयन ऐसा है जिसके पीछे न कोई तर्क है, न कोई राजनीतिक विवेक । कुछ उदाहरण लें ।
माओ ने दर्शन-विषयक अपने दो निबन्ध 'व्यवहार के बारे में' और 'अन्तरविरोध के बारे में' -- क्रमश: जुलाई '1937 और अगस्त '1937 में लिखे थे । पहला निबन्ध मार्क्सवाद ज्ञान-मीमांसा (एपिस्टोमोलॉजी) पर केन्द्रित है और दूसरा द्वंद्ववाद पर । ये दोनों इतिहास-प्रसिद्ध दार्शनिक निबंध हैं जो उससमय अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन और चीनी पार्टी में हावी अधिभूतवादी भटकाव के परोक्ष प्रतिकार के तौर पर लिखे गये थे I इन्हें ज्ञान-मीमांसा और द्वंद्ववाद की समझ में माओ द्वारा किये गए अहम इजाफ़े के रूप में देखा-जाना जाता रहा है I कम्युनिस्ट आंदोलन में इन निबन्धों को एक साथ, इसी क्रम में प्रस्तुत किया जाता रहा है । अब ज्ञानी सम्पादक महोदय ने किस तर्क से दर्शन-केन्द्रित इन दो निबन्धों में से दूसरे को पहले स्थान पर डाल दिया है और पहले को चौथे क्रम पर -- ये तो वे ही जानें ! संकलन में दूसरा निबंध येनान कला-साहित्य गोष्ठी में माओ का भाषण है । फिर 'बुद्धिजीवियों को भारी तादाद में भरती करो' और 'सांस्कृतिक कार्य में संयुक्त मोर्चा' शीर्षक लेखों को क्रम में छठे और आठवें स्थान पर रखा गया है, जबकि मोटे तौर पर इन दो लेखों का एक प्रवर्ग बनता है । तीसरे, सातवें और दसवें नं. के लेख पार्टी कार्यशैली से सम्बन्धित हैं। इन्हें अलग-अलग रखा गया है और कार्यशैली-सम्बन्धी ही कुछ अन्य महत्वपूर्ण लेखों को छोड़ दिया गया है । मदन कश्यप की धारणा के विपरीत, 'घिसे-पिटे पार्टी-लेखन का विरोध करो' मुख्यत: पार्टी कार्यशैली विषयक लेखों की श्रेणी में आता है, संस्कृति कर्म से उसका परोक्ष और दूर का सम्बन्ध है । और अगर संस्कृतिकर्म से उसका सम्बन्ध मान भी लें तो उसकी कैटगरी दूसरे , छठे और आठवें लेख के साथ बनती है । पाँचवाँ लेख तत्कालीन परिस्थितियों में पार्टी की भूमिका पर केन्द्रित है । इस विषय पर केन्द्रित माओ के कई और महत्वपूर्ण लेख हैं । उनमें से किसी को न चुनने का, और मात्र इसी एक को चुनने का कोई औचित्य समझ नहीं आता । संकलित रचनाओं में माओ का पहला लेख है -- 'चीनी समाज में वर्गों का विश्लेषण' जो 1926 में छपा था । इस लेख को न जाने किस तर्क से संकलन में अंतिम स्थान पर रखा गया है । अपनी भूमिका में मदन कश्यप ने लिखा है कि यह लेख ''भारतीय समाज की जटिल वर्ग संरचना समझने में सहायक है ।'' यह बेहद मूर्खतापूर्ण बात है । पहली बात, मदन कश्यप को अगर पिछले पचास वर्षों के दौरान भारत और तमाम दूसरे उत्तर-औपनिवेशिक समाजों की वर्गीय संरचना और उत्पादन-सम्बन्धों को लेकर अकादमिक वृत्त में और कम्युनिस्ट आंदोलन में चली बहसों और विमर्शों की थोड़ी भी जानकारी होती तो वह यह बात नहीं कहते । आज का भारत 1926, या यहाँ तक कि 1949 के चीन से सर्वथा भिन्न है। हाँ, यह लेख वर्ग-विश्लेषण के अप्रोच और पद्धति के बारे में कुछ शिक्षा ज़रूर देता है । लेकिन इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि तत्कालीन चीनी समाज के माओ द्वारा वर्ग-विश्लेषण का यह शुरुआती प्रयास है । बाद में, 1930 के दशक के विभिन्न लेखों में रणनीतिक संश्रय और आसन्न कार्यभारों की चर्चा करते हुए माओ ने तत्कालीन चीनी समाज के विभिन्न वर्गों के चरित्र, अभिलाक्षणिकताओं और राजनीतिक व्यवहार का विवरण प्रस्तुत किया है, उन सबके अध्ययन के बाद ही माओ के वर्ग-विश्लेषण विषयक द्वंद्वात्मक 'अप्रोच' व 'मेथड' की कुशाग्रता का पता चलता है।
संकलन पर निगाह डालते ही यह पता चलता है कि दर्शन विषयक दो निबंधों का क्रम उलट देने, येनान संगोष्ठी वाले भाषण को समान प्रवर्ग के अन्य दो लेखों से अलग करके दूसरे स्थान पर रख देने और वर्गों के विश्लेषण वाले 1926 वाले लेख को अंत में रख देने के अतिरिक्त अन्य लेखों को मदन कश्यप संकलित रचनाओं के खण्डों के पन्ने पलटते हुए बस कौड़ी डालने की तरह कुछ लेखों को चुनते गये हैं । न केवल उन्होंने संकलित रचनाओं के खण्डों के सभी लेखों को पढ़े बिना यह चयन किया है, बल्कि चयनित लेखों को भी कत्तई नहीं पढ़ा है । इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि 'एक मूर्ख बूढ़ा आदमी, जिसने पहाड़ों को हटा दिया' शीर्षक लेख पर वह अपने सम्पादकीय में टिप्पणी करते हैं कि, ''यह एक दिलचस्प बोध-कथा है, जिससे सबको प्रेरणा मिल सकती है ।'' यह लेख वास्तव में पार्टी की सातवीं कांग्रेस में माओ द्वारा दिया गया ऐतिहासिक महत्व वाला समापन भाषण है जिसमें माओ ने तत्कालीन कठिन परिस्थितियों में क्रांति की विजय सुनिश्चित करने के लिए पार्टी की कार्यदिशा का प्रचार करने, उसे व्यापक जनसमुदाय तक पहुँचाने और हिरावल दस्ते की राजनीतिक चेतना को उन्नत करने जैसे कार्यभारों की चर्चा की है। इसी प्रसंग में उन्होंने भाषण के बीच में मूर्ख बूढ़े आदमी की चीन में प्रचलित एक नीति-कथा का भी हवाला दिया है । लेकिन उस भाषण को पढ़े बिना सम्पादक कवि महराज ने पूरे भाषण को ही ''दिलचस्प बोधकथा'' घोषित कर दिया है, मानो माओ कोई कथावाचक हों या किस्से सुनाने वाले दादाजी ! ऐसी साहसिक मूर्खताओं का भला क्या इलाज है !
राजनीतिक धोखाधड़ी, बौद्धिक बेईमानी और दुर्दान्त मूर्खतापूर्ण महत्वाकांक्षा के गंदे नालों की बजबजाती त्रिवेणी
अब हम आते हैं उस बात पर जो एक बौद्धिक बेईमानी या राजनीतिक धोखाधड़ी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कहला सकता है । मदन कश्यप ने संकलन में शामिल दो लेखों की अतिमूर्खतापूर्ण मनमानेपन के साथ काटछाँट कर दी है और अपनी भूमिका में, या अलग से कोई सम्पादकीय टिप्पणी देकर, इसका कोई कारण बताना तो दूर, उल्लेख तक नहीं किया है । ये लेख हैं : 'राष्ट्रीय युद्ध में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका' और 'पार्टी के भीतर ग़लत विचारों को सुधारने के बारे में' ! पहला एक काफ़ी लम्बा निबंध है जिसमें कुल तेरह उपशीर्षक हैं । राजनीति शास्त्र का विद्वान बनने को आतुर कवि महोदय ने इसमें से सिर्फ़ पहले उपशीर्षक 'देशभक्ति और अन्तरराष्ट्रवाद' को ही संकलन में शामिल किया है, शेष बारह को कुतर दिया है । लेख के बड़े हिस्से को उड़ा देने के कारण कविजी को सभी 'एण्ड-नोट्स' भी मजबूरन हटाने पड़े हैं जो अपने आप में ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं । जिन लेखों को अविकल ले लिया गया है, उन सभी के अंत में नोट्स दिये हुए हैं । इस लेख के जिन हिस्सों को सम्पादक महोदय गोल कर गये हैं, उनके उपशीर्षकों से ही पता चल जायेगा कि इनके बिना लेख की महत्ता और प्रासंगिकता ही समाप्त हो जायेगी । ये छोड़े गये हिस्से हैं : 'राष्ट्रीय युद्ध में कम्युनिस्टों को आदर्श उपस्थित करना चाहिए', 'सारे राष्ट्र को एकताबद्ध करो और उसके भीतर मौजूद दुश्मन के दलालों का विरोध करो', 'कम्युनिस्ट पार्टी का विस्तार और दुश्मन के दलालों की घुसपैठ रोको', 'संयुक्त मोर्चे को कायम रखो और पार्टी की स्वतंन्त्रता को कायम रखो', 'सम्पूर्ण परिस्थितियों को ध्यान में रखो, बहुसंख्यक लोगों को ध्यान में रखो और अपने संश्रयकारियों के साथ मिलकर काम करो', 'कार्यकर्ता सम्बन्धी नीति', 'पार्टी अनुशासन', 'पार्टी में जनवाद', 'दो मोर्चों पर संघर्ष के द्वारा हमारी पार्टी ने अपने को सुदृढ़ तथा शक्तिशाली बनाया है', 'दो मोर्चों पर वर्तमान संघर्ष', 'अध्ययन', 'एकता और विजय'। अब कोई भी प्रबुद्ध पाठक समझ सकता है कि इस सुदीर्घ ऐतिहासिक दस्तावेज़ (जो वस्तुत: पार्टी की छठी केन्द्रीय कमेटी के छठे प्लेनम में माओ द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट है) के नब्बे प्रतिशत हिस्से को बिना किसी कारण और बिना किसी उल्लेख के काटकर सम्पादक महोदय ने इसके साथ किसकदर दुराचार किया है और किसतरह पाठकों को ठगने का काम किया है ! दूसरा ऐसा लेख है, 'पार्टी के भीतर ग़लत विचारों को सुधारने के बारे में ।' यह पार्टी कार्यशैली विषयक माओ की कई रचनाओं की सुप्रसिद्ध श्रृंखला में से एक है जिसे पार्टी कार्यकर्ता दशकों से ज़रूरी पाठ्य सामग्री के रूप में पढ़ते रहे हैं । इस पूरे लेख के आठ उपशीर्षकों में से सम्पादक जी ने सिर्फ़ तीन को लिया है और शेष पाँच को, बिना कोई कारण बताये, बिना कोई उल्लेख किये, चुपके से उड़ा दिया है । साथ ही, अंत में दिये गये लम्बे नोट्स को भी ग़ायब कर दिया है । ऐसा है सम्पादक महोदय का इतिहास-बोध ! ऐसी है उनकी राजनीतिक समझ !!
माओ की सभी रचनाओं के साथ एक आम समस्या यह है कि उनके शीर्षकों को देखकर आप सारी अन्तर्वस्तु का अनुमान नहीं लगा सकते । किसी तात्कालिक प्रश्न पर बात करते हुए माओ प्राय: दर्शन, राजनीतिक विश्लेषण, क्रांति की रणनीति और आम रणकौशल या पार्टी-नीति एवं कार्यशैली के बारे में कोई अत्यन्त महत्वपूर्ण सैद्धांतिक सूत्रीकरण या प्रस्थापना दे देते हैं । इसलिए, सभी लेखों को आद्योपांत पढ़े बिना न तो उनका महत्व समझा जा सकता है, न ही उनमें से सबसे महत्वपूर्ण लेखों को छाँटकर कोई प्रतिनिधि चयन तैयार किया जा सकता है । मदन कश्यप का कारनामा यह है कि उन्होंने माओ की सभी तो क्या, कुछ रचनाओं को भी आद्योपांत पढ़ने की ज़हमत नहीं उठायी है और बस संकलित रचनाओं के चार खण्डों को उठाकर कुछ लेख चुन लिये हैं तथा उनमें से भी दो को अविवेकी स्वेच्छाचारिता के साथ काटछाँट दिया है । इस प्रक्रिया में न केवल शीर्ष राजनीतिक-ऐतिहासिक महत्व के निबंध छूट गये हैं, बल्कि इन चार खण्डों के बाहर की कई युगांतरकारी महत्वपूर्ण रचनाएँ संकलन से बाहर रह गयी हैं । केवल दो उदाहरण पर्याप्त होंगे ।
1950 के बाद समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर माओ का विपुल चिन्तन और लेखन है । सोवियत राजनीतिक अर्थशास्त्र की समालोचना विषयक उनके नोट्स 'मंथली रिव्यू' प्रेस से पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके हैं । 1950 के दशक के दो प्रसिद्ध निबंध हैं : 'दस मुख्य सम्बन्धों के बारे में' और 'जनता के बीच के अन्तरविरोधों को सही ढंग से हल करने के बारे में।' ये दोनों अलग से पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हैं और 'सेलेक्टेड वर्क्स' के पाँचवें खण्ड में भी शामिल हैं । पाँचवें खण्ड में कृषि के समाजवादी रूपान्तरण और समाजवादी दौर की समस्याओं एवं पार्टी के कार्यभारों पर कई लेख, भाषण और टिप्पणियाँ हैं । 'ग्रेट लीप फ़ॉरवर्ड' मुहिम के दौरान के माओ की रचनाएँ व भाषण इस खण्ड से बाहर चीन से व पश्चिम के कई प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं । 'महान समाजवादी शिक्षा आंदोलन' और 'महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति' के दौरान की माओ की विविध रचनाएँ अभी भी एक साथ नहीं मिलतीं । फुटकल रूप में 1960 और 1970 के दशक में कुछ चीन से पुस्तिकाओं के रूप में छपकर आयीं और कुछ को पश्चिम के चीन-विशेषज्ञ लेखकों ने भी संकलित करके अपनी पुस्तकों में स्थान दिया । जाहिर है कि इन सभी को एकत्र करके अध्ययन करने और उनमें से ज़रूरी सामग्री छाँटने की उम्मीद हम हिन्दी के एक औसत दर्जे़ के कथित वामपंथी कवि से नहीं कर सकते जिसका राजनीतिक ज्ञान और इतिहास-बोध लगभग शून्य हो । सम्पादक महोदय के पास अगर थोड़ा सा सामान्य ज्ञान भी होता तो वह कम से कम जनवादी क्रांति के उत्तरवर्ती काल की माओ की दो रचनाओं -- 'दस मुख्य सम्बन्धों के बारे में' और 'जनता के बीच के अन्तरविरोधों को सही ढंग से हल करने के बारे में' -- को प्रतिनिधि संकलन में ज़रूर शामिल करते ।
अपनी सफ़ाई में शायद मदन कश्यप यह कहें कि उन्हें निर्धारित पृष्ठ सीमा के भीतर एक छोटा प्रतिनिधि संकलन तैयार करना था । अगर प्रकाशक का ऐसा निर्देश भी होता तो कोई राजनीतिक समझ वाला व्यक्ति उसे सिरे से खारिज कर देता । लेकिन राजनीतिक सम्पादक और ''माओ विशेषज्ञ'' बनने की कैरियरवादी महत्वाकांक्षा जो न कराये ! यह काम हाथ में लेने के बाद इतना फूहड़ अंजाम तो सामने आना ही था ! मदन कश्यप की भद्द तो पिटनी ही थी !
यह भी राजनीतिक अध्ययन के मामले में हिन्दी के बौद्धिक समाज की कंगाली और दुर्दशा का ही परिचायक है कि इस संकलन के प्रकाशन के तीन वर्षों बाद भी किसी मार्क्सवादी बुद्धिजीवी ने इसपर कोई सवाल नहीं उठाया, इसकी भीषण और अक्षम्य ग़लतियों की ओर इंगित तक नहीं किया । इससे तो यही लगता है कि हिन्दी के वाम बौद्धिक गम्भीर राजनीतिक लेखन पढ़ते ही नहीं, बस सोशल मीडिया पर ज़्यादातर कूपमण्डूक बकवासी 'आँय-बाँय-शाँय' करते रहते हैं, साहित्यिक पत्रिकाओं के मोटे, महत्वाकांक्षी विशेषांकों में ग्राम्शी, अल्थूसर, अदोर्नों आदि-आदि की भीषण दुर्व्याख्याएँ थोक भाव से छपती रहती हैं और नये पाठकों के दिमाग़ में विभ्रम और ग़लत समझ का कूड़ा-कचरा भरता रहता है ।
सेतु प्रकाशन, जिसने मदन कश्यप के चुने हुए मोतियों के ''दुर्लभ'' संकलन को प्रकाशित किया है, उसके कर्ता-धर्ता कोई अमिताभ राय हैं । मैं उन्हें जानती नहीं, पर इतना किसी ने बताया कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी कॉलेज में मास्टर हैं । आश्चर्य है कि दिल्ली में माओ की रचनाओं के सम्पादन के लिए उन्हें मदन कश्यप ही मिले ! दिल्ली में ही अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के चीनी राजनीति विशेषज्ञ प्रो. मनोरंजन मोहंती हैं, दिल्ली विश्वविद्यालय और ज.ने.वि. में चीनी राजनीति और इतिहास के कई गंभीर अध्येता हैं । दिल्ली में ही आनन्द स्वरूप वर्मा, वीर भारत तलवार और सुरेश सलिल जैसे गंभीर लेखक और माहिर सम्पादक हैं जो चीनी क्रांति और माओ के लेखन के पुराने जानकार हैं और जिन्होंने 1970 के उस सरगर्म दशक को जिया है जब दिल्ली में युवाओं की अध्ययन-मण्डलियों में माओ की रचनाओं का नियमित अध्ययन हुआ करता था और एडगर स्नो, विलियम हिण्टन, हान सुइन, मैकफर्कुहर, स्टुअर्ट श्रैम, डेविड और नैन्सी मिल्टन, जॉर्ज थॉमसन, ज्याँ दॉबियर आदि पश्चिम के लेखकों की चीनी जनवादी क्रांति, सांस्कृतिक क्रांति तथा माओ के सैद्धांतिक अवदानों विषयक पुस्तकों को पढ़कर सैकड़ों युवा छात्रावासों और कॉफ़ी हाउस में गम्भीर बहसें किया करते थे! कोलकाता में आज भी माओ साहित्य के कई गम्भीर अध्येता मौजूद हैं ! लेकिन ऐसे तमाम लोगों को छोड़कर अमिताभ राय ने मदन कश्यप को चुना, शायद नियति पर ऐसे किसी विश्वास के चलते कि ''जाके कृपा पंगु गिरि लंघे, रंक चले सिर छत्र धराई ।''
अव्वलन तो कोई प्रकाशक अगर किसी ज़िम्मेदार और जानकार राजनीतिक व्यक्ति पर यह दबाव बनाता कि माओ की सभी श्रेणियों की रचनाओं का एक प्रतिनिधि संकलन हिन्दी में मात्र दो सौ पृष्ठों में तैयार करना है, तो वह इस मूर्खतापूर्ण प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर देता क्योंकि यह सम्भव ही नहीं है । चीनी पार्टी के नेतृत्व और शीर्ष बौद्धिकों ने घनघोर बौद्धिक अध्यवसाय के साथ माओ के कृतित्व का जो संकलन 'सेलेक्टेड रीडिंग्स फ्रॉम द वर्क्स ऑफ माओ त्से-तुंग' नाम से 1971 में तैयार किया था वह अंग्रेज़ी के बारीक़ अक्षरों में 504 पृष्ठों का है । हिन्दी में इसका जो संस्करण 'राहुल फाउण्डेशन', लखनऊ से 2004 में प्रकाशित हुआ वह भी कुल 406 पृष्ठों का है । अगर माओ की प्रतिनिधि चुनिन्दा रचनाओं का कोई संकलन तैयार करना हो तो वह इससे छोटा तो कत्तई नहीं हो सकता । सेतु प्रकाशन अगर माओ के क्रांतिकारी कृतित्व से हिन्दी पाठकों को परिचित कराने के लिए व्यग्र ही था तो उसे इसी संकलन को छाप देना चाहिए था । कम से कम एक ऐसे बिचारे कवि के निहायत कमज़ोर कंधों पर ऐसे दायित्व का भारी बोझ तो नहीं डालना चाहिए था जिसे चीनी क्रांति के इतिहास और माओ-साहित्य की कोई जानकारी ही न हो । अगर कम पृष्ठों का कोई संकलन निकालना ही था तो माओ की किसी विशेष श्रेणी की रचनाओं का संकलन तैयार करवाकर छापना चाहिए था हालाँकि यह काम भी कोई अनुभवी जानकार व्यक्ति ही कर सकता था । मोटे तौर पर माओ के लेखन के ये प्रवर्ग बनाये जा सकते हैं : (1) चीनी समाज के वर्ग-विश्लेषण और क्रांति की मंज़िल से जुड़ी रचनाएँ, (2) चीनी जनवादी क्रांति की रणनीति और आम रणकौशल तथा अलग-अलग दौरों की विशिष्ट परिस्थितियों में पार्टी नीति से जुड़ी रचनाएँ, (3) क्रांति की सामरिक नीति पर केन्द्रित रचनाएँ, (4) कम्युनिस्ट जीवन-शैली और पार्टी कार्यशैली सम्बन्धी रचनाएँ (ऐसा एक संकलन तैयार करके राहुल फाउण्डेशन ने छापा भी है) (5) दार्शनिक रचनाएँ, (6) कला-साहित्य-संस्कृति विषयक रचनाएँ, और (7) समाजवादी निर्माण तथा समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर केन्द्रित रचनाएँ । इनमें पहले और दूसरे प्रवर्ग काफ़ी हद तक एक-दूसरे को अतिच्छादित करते हैं । अमिताभ राय को अगर कोई छोटे कलेवर का संकलन छापना ही था तो वह इनमें से किसी एक या दो प्रवर्ग की रचनाओं को चुन सकते थे । लेकिन यह काम भी चीनी क्रांति के इतिहास और माओ साहित्य का विशेषज्ञ कोई मार्क्सवादी ही कर सकता था । मदन कश्यप जैसा कोई अधकचरा व्यक्ति तो कत्तई नहीं कर सकता था । बरसाती कीड़े शहद बनाने के लिए फूलों से पराग नहीं इकट्ठा किया करते ।
लेकिन मदन कश्यप की हिमाक़त को देखते हुए यह बताना ज़रूरी है कि आम तौर पर राजनीतिक लेखन का (और साहित्यिक लेखन का भी), और विशेषकर क्लासिक्स की श्रेणी में आने वाले लेखन का चयन व संपादन किसप्रकार, और कितनी ज़िम्मेदारी के साथ किया जाता है ! सोवियत संघ, चीन, पूर्वी जर्मनी और अन्य भूतपूर्व समाजवादी देशों के उससमय के प्रकाशन-गृहों और यूरोप-अमेरिका की पार्टियों ने मार्क्सवादी क्लासिक्स के चयन-सम्पादन के काम को बेहद ज़िम्मेदारी के साथ और बेहद श्रमसाध्य तथा शानदार ढंग से अंजाम दिया था । कुछ स्वतंत्र मार्क्सवादी प्रकाशन भी इस काम को बहुत ज़िम्मेदारी के साथ करते रहे हैं और कुछ आज भी कर रहे हैं । ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस, रूटलेज़, ब्लैकवेल, पॉलिटी, वेर्सो, पेंगुइन आदि बुर्जुआ प्रकाशक भी जब मार्क्सवादी क्लासिक्स या क्लासिक्स की श्रेणी की अन्य राजनीतिक कृतियों को अथवा ऐसे संकलनों को प्रकाशित करते हैं तो ज़रूरत होने पर विषय और भाषा के जानकार योग्यतम अनुवादकों से फिर से अनुवाद भी करवाया जाता है और सम्बन्धित विषय, लेखक और देश के विशेषज्ञ जानकार अकादमीशियन को उसके सम्पादन की ज़िम्मेदारी दी जाती है । प्राय: ऐसे संकलनों के साथ उनके विद्वान संपादकों की गम्भीर विश्लेषणपरक और मूल्यांकनपरक भूमिकाएँ भी हुआ करती हैं । पश्चिम के जिन प्रमुख बुर्जुआ प्रकाशकों ने और विश्वविद्यालयों के प्रकाशकों ने मार्क्स-एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन या माओ की एक, दो या तीन खण्डों में संकलित रचनाएँ प्रकाशित की हैं, उनके पीछे दस-दस वर्षों तक का सघन बौद्धिक श्रम लगा है । सम्पादक ऐसे संकलनों के लिए रचनाओं का चयन करने से पहले 'कलेक्टेड वर्क्स' के खण्डों के पन्ने चाट जाते रहे हैं और उन रचनाओं पर लिखे गये निबंधों और शोधों के साथ ही उस ऐतिहासिक कालखण्ड का भी गहन अध्ययन करते रहे हैं, जो इन रचनाओं की पृष्ठभूमि हुआ करता था ।
आज अगर कोई माओ की चुनी हुई रचनाओं का संकलन तैयार करता है तो उसे न केवल माओ की समस्त उपलब्ध रचनाओं का गम्भीर अध्ययन करना पड़ेगा, बल्कि उनकी महत्ता के आकलन के लिए उनकी पृष्ठभूमि को भी जानना होगा और इसके लिए चीनी क्रांति पर, उसके इतिहास और सैद्धान्तिकी पर लिखी गयी चर्चित प्रतिनिधि पुस्तकों का अध्ययन करना पड़ेगा। माओ की चीन और भारत में प्रकाशित प्रतिनिधि संकलनों का हम ऊपर ज़िक्र कर आये हैं । आज दुनिया भर के अकादमीशियन और कई माओवादी संगठन माओ के सैद्धान्तिक अवदानों और उनके लेखन को लेकर बड़े पैमाने पर शोधकार्य कर रहे हैं । माओ और चीनी क्रांति के शीर्ष विशेषज्ञों में से एक -- स्टुअर्ट श्रैम ने चीनी क्रांति के इतिहास के एक अन्य विशेषज्ञ रोडरिक मैकफर्कुहर के आमंत्रण पर माओ की एकदम शुरू से (1912 से) लेकर 1949 तक की प्रकाशित-अप्रकाशित समस्त लेखन का संकलन तैयार करने के प्रोजेक्ट पर 1980 के दशक में काम करना शुरू किया । 'माओ'ज़ रोड टू पावर' शीर्षक दस खण्डों की इस वृहद रचनावली के सात खण्डों का प्रकाशन (पहले 'एम.ई.शॉर्प' से और फिर 'रूटलेज़' से) 2012 में श्रैम का निधन होने तक हो चुका था । श्रैम द्वारा एकत्रित सामग्री को चीक ने अंतिम रूप दिया और आठवाँ खण्ड 2015 में प्रकाशित हुआ । नवें और दसमें खण्ड अभी प्रकाशित होने हैं । लेकिन 1949 से लेकर 1976 तक का माओ का लेखन अभी भी यत्र-तत्र बिखरा हुआ है । कुछ पाँचवें खण्ड में हैं, कुछ सांस्कृतिक क्रांति के दौरान 'रेड फ्लैग पब्लिेकेशंस' और रेड गार्ड्स के विभिन्न ग्रुपों ने छापे । इनमें से कई का स्टुअर्ट श्रैम ने अंग्रेज़ी में अनुवाद भी किया था । लेकिन इन तथ्यों से मदन कश्यप को न तो कुछ लेना-देना था, न ही उन्हें स्टुअर्ट श्रैम द्वारा सम्पादित खण्डों को पढ़ने की ज़रूरत थी । उन्हें तो बस माओ की चुनी हुई रचनाओं के चार खण्डों को सामने रखकर, अनुक्रमणिका पर आँख मूँदकर उँगली रखकर कुछ रचनाओं को चुन लेना था और निर्धारित पृष्ठों में अँटाने के लिए उनमें से कुछ को मनमाने ढंग से काटछाँट भी देना था । उनकी यह सम्पादन-कला 1960 के दशक में पूर्वोत्तर रेलवे, गोरखपुर के जनसम्पर्क विभाग द्वारा प्रकाशित पत्रिका के उन सम्पादक महोदय की याद दिलाती है जिन्होंने अपने ज़रूरतमंद मित्र को दो रचनाओं का भुगतान कर उपकृत करने के लिए फुलस्केप शीट पर लिखी गयी मुक्त छंद की एक कविता को, पन्ना बीच से फाड़कर दो कविताएँ बना दीं (यह घटना साथी आनंद स्वरूप वर्मा ने सत्यम वर्मा को बतायी थी और उन्होंने मुझे बतायी) ।
आज कोई भी ज़िम्मेदार व्यक्ति अगर माओ की रचनाओं का चयन-सम्पादन करेगा तो अपने दायित्व के साथ न्याय करने के लिए उसे माओ के समस्त लेखन को पढ़ने के साथ ही माओ और चीनी क्रांति पर केन्द्रित सौ से भी अधिक प्रामाणिक पुस्तकों और शोधों में से कम से कम दो दर्ज़न को तो पढ़ना ही पड़ेगा । चलते-चलाते यदि कुछ का हवाला देना हो तो हो कान-च की 'चीनी क्रांति का इतिहास' (1919-1956), एडगर स्नो की 'रेड स्टार ओवर चाइना', 'रेड चाइना टुडे' और 'द लॉन्ग रेवोल्यूशन', हान सुइन की 'विण्ड इन द टॉवर', 'द मॉर्निंग डेल्यूज़', 'अ मॉर्टल फ्लॉवर', 'बर्डलेस समर', और 'द क्रिपल्ड ट्री', रोडरिक मैकफर्कुहर की 'द ओरिजिन्स ऑफ द कल्चरल रेवोल्यूशन' के तीनों खण्ड (1956-57, 1958-60, 1961-66), विलियम हिण्टन की 'फानशेन', 'शेनफान', 'हण्ड्रेड डे वार' और 'टर्निंग प्वाइंट इन चाइना', मार्क सेल्डन सम्पादित 'द पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना : अ डॉक्युमेण्ट्री हिस्ट्री ऑफ रेवोल्यूशनरी चेंज' (यह माओ के लेखों और पार्टी दस्तावेज़ों का संकलन है जिसकी लम्बी भूमिका मार्क सेल्डन ने लिखी है) और 'द पोलिटिकल इकॉनमी ऑफ चाइनीज़ सोशलिज़्म', जैक वेल्डन की 'चाइना शेक्स द वर्ल्ड', स्टुअर्ट श्रैम की 'माओ त्से-तुंग', 'द पोलिटिकल थॉट ऑफ माओ त्से-तुंग', 'माओ त्से-तुंग : द बेसिक टैक्टिस', 'माओ त्से-तुंग अनरिहर्स्ड' और 'चेयरमैन माओ टाक्स टु द पीपुल : टाक्स एण्ड लेटर्स : 1956-1971', ज्याँ एस्मीन की 'द चाइनीज़ कल्चरल रेवोल्यूशन', ज्याँ दॉबिएर की 'अ हिस्ट्री ऑफ़ द चाइनीज कल्चरल रेवोल्यूशन' तथा 'विण्टेज बुक्स' (रैण्डम हाउस, न्यूयार्क) द्वारा प्रकाशित 'चाइना रीडर' श्रृंखला की चारों पुस्तकें -- 'इम्पीरियल चाइना', 'रिपब्लिकन चाइना', 'कम्युनिस्ट चाइना' और 'पीपुल्स चाइना' (चारों के सम्पादक फ्रांज शर्मन, ऑरविल शेल, डेविड मिल्टन और नैन्सी मिल्टन) -- ये तमाम बेहतरीन किताबों में से कुछ किताबें हैं । माओ के सैद्धान्तिक चिन्तन की ऐतिहासिक अर्थवत्ता की समझ के लिए 'महान बहस' के काल के सभी संशोधनवाद-विरोधी पार्टी दस्तावेज़ों और 'महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति' के दस्तावेज़ों को भी पढ़ लेना बेहतर होगा । इन सभी दस्तावेज़ों के संग्रह 'अन्तरराष्ट्रीय प्रकाशन' ने (अंग्रेजी में) कई खण्डों में भारत में ही प्रकाशित कर दिया है । माओ के समस्त उपलब्ध लेखन के अतिरिक्त, कम से कम, और ध्यान रखिये कि कम से कम, इतनी पुस्तकों को पढ़ने के बाद ही माओ की चुनी हुई रचनाओं का कोई नया संकलन ज़िम्मेदारी के साथ तैयार किया जा सकता है । यह कोई कविताओं का संकलन तैयार करने जैसा काम नहीं है कि ये बैठे टेबुल पर और वो संकलन तैयार !
बेहतर तो यही होता कि मदन कश्यप कविता-उविता लिखते रहते, कुछ मौलिक सामाजिक जनवादी टाइप 'आँय-बाँय-शाँय' करते हुए राजनीतिक लेख लिखते रहते, और मूर्खों व चमचों के बीच भाषण ठेलते-पेलते रहते ! लेकिन अंधी महत्वाकांक्षा की पागल कुतिया अगर काट लेती है तो बुद्धिजीवी ऐसे ही बौरा जाते हैं और बरसों गहन शोध-अध्ययन से अर्जित जानकारी के आधार पर अंजाम दी जाने वाली किसी परियोजना को चंद दिनों या चंद घंटों के भीतर निपटा देने के हठ के साथ चुटिया बाँधकर, कलम-दावात लेकर महामनीषी चिन्तक की आसंदी पर जा बिराजते हैं !
अब इस लेख की आने वाली तीसरी किस्त में 'कैफ़ियत' नाम से मदन कश्यप द्वारा लिखी गयी संकलन की भूमिका की धुंधुकारी मूर्खताओं पर थोड़े संक्षेप में चर्चा करूँगी जिससे कम से कम कुछ ज़िम्मेदार, ईमानदार और इतिहास-सजग साथियों को तो यह अहसास हो कि दर्शन और समाज विज्ञान के क्षेत्र में, चीनी मिट्टी के बर्तनों की दूकान में घुस आये भैंसे की तरह, छद्म-बौद्धिक मूर्ख कितना तोड़फोड़ मचाये हुए हैं और उद्धत किस्म के 'सेल्फराइटियस' कूपमण्डूक बौने गंभीर युवा पाठकों के साथ किसकदर धोखाधड़ी कर रहे हैं ।
आलिम की कैफ़ियत न पूछो वो ख़ुद ही बतलायेंगे
इल्म की बट्टी से धो-धोकर सब काला कर डालेंगे
अपने ज्ञान की साबुन की बट्टी से नौबढ़ ''माओ विशेषज्ञ'' मदन कश्यप माओ के लेखन को कैसा रगड़-रगड़कर, पछींट-पछींटकर धोने वाले हैं, इसका इशारा उन्होंने शुरू में ही 'कैफ़ीयत' शीर्षक (कैफ़ीयत भी लिखते-बोलते हैं और कैफ़ियत भी -- दोनों दुरुस्त हैं) अपनी सम्पादकीय भूमिका में दे दिया है । लेकिन नया पाठक तो उस संकेत को न समझकर गच्चा खा ही जाता है । किसी ने ठीक ही कहा है कि सामान्य अज्ञानी से भयंकर वह अज्ञानी होता है जो अपने को विद्वान समझता है, या जो नहीं जानता कि वह कितना बड़ा अज्ञानी है । और ऐसा अज्ञानी जब महत्वाकांक्षी हो जाता है तो ज्ञान की दुनिया में कहर बरपा कर देता है, संज़ीदा पाठकों पर एक वहशतनाक अज़ाब बरसने लगता है ।
अपनी इस छोटी सी सम्पादकीय टिप्पणी में घामड़पन, चुगदपन और अहमकपन के इतने नायाब मोती इस 'जड़मानस हंस' (या शायद हंस की चाल चलने वाला कौव्वा) ने भर दिया है कि उसके इस हुनर को देखकर फ़रिश्ते भी गश खा जायें । ज़फ़र इक़बाल का एक शेर है :
'कैफ़ियत ही कोई पानी ने बदल ली हो कहीं
हम जिसे दश्त समझते हैं वो दरिया ही न हो'
मदन कश्यप की कैफ़ियत इसके ठीक उलट है । दरिया तक ले जाने का लालच देकर वह मूर्खता के बियाबाँ और काँटेदार बबूल के जंगलों तक पहुँचा देते हैं ।
बहरहाल, आइये देखें कि अपने इस महान कृतित्व की 'कैफ़ीयत' बताते हुए मदन कश्यप आपके सिर पर किसतरह मूर्खता की ओला-वृष्टि करते हैं । पहला ही वाक्य पढ़ते 'प्रथम ग्रासे मक्षिका पात'!! विद्वान सम्पादक महोदय फ़रमाते हैं कि ''... माओ त्से-तुंग मार्क्स और लेनिन की तरह के बुद्धिजीवी नहीं बल्कि एक योद्धा थे, क्रांति के एक नायक । उनके लेखन का बहुलांश अनुभव-आधारित लेखन है, इसीलिए उनमें किसी प्रकार का उलझाव नहीं है ।'' लगता है कि इस कूपमण्डूक व्यक्ति ने न तो मार्क्स और लेनिन की कोई प्रामाणिक जीवनी पढ़ी है, न सर्वहारा संघर्षों और क्रांतियों के इतिहास की कोई पुस्तक! विश्व सर्वहारा के ये महान नेता इतिहास के अलग-अलग दौरों में जिये और उस दौर के वर्ग-संघर्षों में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई । मार्क्स और लेनिन किताबी कीड़े नहीं थे । मार्क्स और एंगेल्स सर्वहारा वर्ग के पहले संगठन 'कम्युनिस्ट लीग' के संस्थापकों में से एक थे और पहले इण्टरनेशनल के निर्माता भी । क्रांतिकारी संघर्षों में भागीदारी के चलते मार्क्स कई देशों से निर्वासित हुए और परिवार सहित अकल्पनीय दुर्दिनों का सामना करते हुए ज़रूरी सैद्धान्तिक काम करते हुए यूरोप के सर्वहारा क्रांतिकारियों का व्यावहारिक मार्गदर्शन भी करते रहे । उनकी मृत्यु के बाद, दूसरे इण्टरनेशनल की स्थापना में एंगेल्स ने नेतृत्वकारी भूमिका निभाई । लेनिन ने अपने क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत छात्र जीवन में ही कर दी थी । कम्युनिस्ट ग्रुपों को एकजुट करने के साथ ही उन्होंने मज़दूरों के बीच ज़मीनी काम किया, साइबेरिया में काले पानी की सज़ा भुगती । ज़ारशाही के कुत्तों से बचकर काम निर्बाध रूप से जारी रखने के लिए पार्टी के निर्देश पर वह यूरोप चले गये और वहीं से पार्टी को नेतृत्व देने का काम जारी रखा । फरवरी क्रांति के दौरान वह स्वदेश वापस लौटे और अक्टूबर क्रांति तथा गृहयुद्ध और भुखमरी के दिनों में पार्टी को न केवल सैद्धान्तिक, बल्कि प्रत्यक्ष व्यावहारिक नेतृत्व दिया । और यह हिन्दी का कूपमण्डूक बौना कवि माओ से तुलना करते हुए मार्क्स और लेनिन को निरा बुद्धिजीवी बतला रहा है! सच है, मूर्खता की कोई सीमा नहीं होती!
जिसतरह मार्क्स और लेनिन निरे बुद्धिजीवी नहीं थे, उसीतरह माओ मात्र व्यावहारिक व्यक्ति नहीं थे, मात्र योद्धा और राजनेता नहीं थे । जैसे मार्क्स और लेनिन अपने समय के शीर्ष कम्युनिस्ट सिद्धान्तकार थे, वैसे ही माओ भी थे । जिसतरह माओ ने अपने समय के वर्ग-संघर्ष में व्यावहारिक तौर पर नेतृत्वकारी भूमिका निभायी, वैसे ही मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन ने भी निभायी थी । फ़र्क मात्र यह था कि तीनों इतिहास के अलग-अलग कालखण्ड में जी रहे थे, तीनों के समय वर्ग-संघर्ष की प्रकृति, स्वरूप और स्तर अलग-अलग थे और तदनुरूप उनके कार्यभारों के स्वरूप और प्राथमिकताओं में भी भिन्नताएँ थीं । इन सबको समझे बिना कोई महामूर्ख और राजनीतिक अनपढ़ व्यक्ति ही वैसी तुलना कर सकता है, जैसी मदन कश्यप ने की है ।
मार्क्स-एंगेल्स के जीवन-काल में यूरोप में क्रांतिकारी संघर्षों के तूफ़ानी उभार के भी दौर आये और फिर उतार और ठहराव के भी । इन दोनों ही दौरों में उन्होंने अपनी व्यावहारिक-सैद्धान्तिक नेतृत्वकारी भूमिका निभायी । उनके समय विश्व-ऐतिहासिक सर्वहारा क्रांति की सैद्धान्तिक पूर्वपीठिका तैयार करने का काम सर्वोपरि था, इसलिए तमाम व्यावहारिक सरगर्मियों के बीच हेगेलीय भाववाद और फ़ायरबाखियन यांत्रिक भौतिकवाद की समालोचना करते हुए उन्होंने द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद के दार्शनिक सूत्र दिये । सर्वहारा संघर्ष को सही दिशा देने के लिए अराजकतावाद, संघाधिपत्यवाद और काल्पनिक समाजवाद की विविध धाराओं से संघर्ष करने के साथ ही वैज्ञानिक भौतिकवाद की ज़मीन को पुख़्ता करने के लिए उन्होंने दर्शन, इतिहास, नृतत्वशास्त्र आदि के साथ प्रकृति विज्ञान के क्षेत्र तक में शोधपरक काम किया । राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उनका विशद काम जगजाहिर है क्योंकि पूँजीवाद की कार्यप्रणाली और पूँजी और श्रम के बीच के अन्तरविरोध की सांगोपांग समझदारी के बिना न तो पूँजीवादी समाज के वर्ग-अन्तरविरोधों को समझा जा सकता था न ही वर्ग-संघर्ष में सर्वहारा पक्ष की भूमिका और सर्वहारा क्रांति की रणनीति एवं आम रणकौशल ही निर्धारित किये जा सकते थे । इसके साथ ही, विशेषकर पेरिस कम्यून के बाद, उन्होंने सर्वहारा अधिनायकत्व की अवधारणा दी और उसे लगातार विकसित किया ।
लेनिन के समय में सर्वहारा क्रांति की धारा के आसन्न विकास की यह बुनियादी ज़रूरत थी कि नरोदवादी क्रांतिकारियों को वैचारिक संघर्ष में परास्त करके उन्नतचेतस तत्वों के बीच उनके प्रभाव को समाप्त किया जाये । कम्युनिस्ट आंदोलन के विकास के लिए लेनिन को सुधारवाद, अर्थवाद, संशोधनवाद, अंधराष्ट्रवाद, अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद आदि भटकावों के विविध रूपों से जीवनपर्यन्त संघर्ष करना पड़ा । इसी प्रक्रिया में उन्होंने पार्टी की बोल्शेविक अवधारणा विकसित की और राज्य और क्रांति के बारे में मार्क्स-एंगेल्स को चिन्तन को और विकसित करते हुए और ठोस बनाते हुए सर्वहारा अधिनायकत्व की प्रकृति और कार्यप्रणाली के बारे में चिन्तन को भी नयी ऊँचाइयों तक पहुँचाया तथा अमल में उसे सत्यापित भी किया । काउत्स्की के अति-साम्राज्यवाद की थीसिस के बरक्स साम्राज्यवाद का अपना सिद्धान्त देते हुए लेनिन ने साम्राज्यवाद के युग में विश्व सर्वहारा क्रांति की आम कार्यदिशा प्रस्तुत की जो दुनिया भर के कम्युनिस्टों के लिए एक मार्गदर्शक प्रकाश-स्तम्भ बना और आज भी है । दुनिया के पहले समाजवादी राज्य के अनुभवों के समाहार के आधार पर लेनिन ने उसी समय समाजवादी समाज में वर्गों और वर्ग-संघर्ष की मौजूदगी की, बुर्जुआ अधिकारों, अन्तरवैयक्तिक असमानताओं और छोटे पैमाने के माल-उत्पादन की मौजूदगी की तथा पार्टी और राज्य के तंत्र में नौकरशाही की मौजूदगी तथा उसके भौतिक आधारों की शिनाख़्त की थी और बताया था कि सर्वहारा क्रांतियों के लम्बे समय तक पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ख़तरे से जूझना पड़ेगा । इन सबके साथ मार्क्सवाद पर हमलों और उसके विकृतिकरण का प्रतिकार करने के लिए लेनिन को दर्शन के क्षेत्र में भी गहन दार्शनिक संघर्ष और चिन्तन-मनन करना पड़ा था । उनके इस दार्शनिक संघर्ष का प्रतिनिधि उदाहरण नवकाण्टवादी माख के (और साथ ही ह्यूम और बर्कले के) मनोगत भाववाद, अज्ञेयवाद और आलोचनात्मक अनुभववाद के विरुद्ध संघर्ष है जिसे उनकी पुस्तक 'मैटीरियलिज़्म ऐण्ड एम्पीरियो-क्रिटिसिज़्म' पढ़कर जाना जा सकता है । उनके दार्शनिक चिन्तन-मनन की गहनता और ऊँचाई को उनकी 'फ़िलोसॉफ़िकल नोटबुक्स' (कलेक्टेड वर्क्स, वॉल्यूम-38) को पढ़कर जाना जा सकता है ।
यहाँ हम बताना यह चाहते हैं कि माओ का चिन्तन भी मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन के चिन्तन की ही तरह युगान्तरकारी था और उसीकी अगली कड़ी था । (निश्चय ही, बीच में विश्व सर्वहारा के एक और महान नेता स्तालिन भी आते हैं जिन्होंने पहले-पहल समाजवादी निर्माण को अमली जामा पहनाने के साथ ही भाषा के प्रश्न और राष्ट्रीय प्रश्न पर मार्क्सवादी सिद्धान्त को विकसित किया लेकिन उनके दार्शनिक चिन्तन में उपस्थित यांत्रिक भौतिकवादी विचलन के कारण वह एक दौर में अर्थवादी और उत्पादकतावादी भटकाव के शिकार हुए और उनसे कुछ गंभीर ग़लतियाँ भी हुईं)। नवमार्क्सवादी महामहोपाध्याय मदनानन्द स्वामी के हिसाब से तो माओ के लेखन का बहुलांश अनुभव-आधारित था (क्या मार्क्स और लेनिन का नहीं था?) जबकि मार्क्स और लेनिन बुद्धिजीवी थे । पहली बात, माओ का लेखन जितना अनुभव-आधारित था उतना ही मार्क्स और लेनिन का भी था तथा मार्क्स और लेनिन जितने बौद्धिक थे उतने ही माओ भी थे , (इस बात से कोई भी फ़र्क नहीं पड़ता कि मार्क्स और लेनिन शहरी मध्यवर्गीय निम्न बुर्जुआ पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते थे और माओ एक मध्यम किसान के बेटे थे जिसने राजधानी के विश्वविद्यालय में पढ़ने आने के बाद इतिहास, दर्शन, राजनीति और राजनीतिक अर्थशास्त्र के साथ मार्क्सवाद का अध्ययन किया और क्रांतिकारी छात्र आंदोलन में हिस्सा लेते हुए एक कम्युनिस्ट क्रांतिकारी बना) । दूसरी बात, हर प्रकार का ज्ञान मूलत: अनुभव आधारित, यानी बोधपरक, यानी 'परसेप्चुअल' ही होता है । फ़र्क यह है कि वे अनुभव किसी व्यक्ति के सिर्फ़ अपने नहीं, बल्कि समूह के भी होते हैं, और अतीत के, यानी पूर्वजों के भी होते हैं । जो अन्यों का अवधारणात्मक ज्ञान (कंसेप्चुअल नॉलेज) होता है, वह आपके लिए बोधात्मक ही होता है । बोधपरक या इन्द्रियग्राह्य या 'परसेप्चुअल' ज्ञान अनुभव-समृद्धि के साथ चेतना के भीतर परिमाणात्मक रूप से विकसित होता है और फिर एक गुणात्मक छलांग के साथ अवधारणात्मक ज्ञान में तब्दील हो जाता है । यानी बोधों का समुच्चय धारणा/अवधारणा में रूपांतरित हो जाता है । जब कोई कहता है कि मार्क्स और लेनिन बुद्धिजीवी थे और माओ एक योद्धा जिनके ''लेखन का बहुलांश अनुभव-आधारित है'' तो इस बेहूदे तुलनावाद का निहितार्थ यह निकलता है कि या तो माओ एक अनुभववादी थे या मार्क्स और लेनिन व्यवहार-विच्छिन्न ''सिद्धान्तशास्त्री'', या फिर दोनों ही मूल्यांकन सही हैं । ऐसा कहने वाला न केवल मार्क्स, लेनिन और माओ के जीवन और क्रांतियों के इतिहास से अपरिचित है बल्कि वैज्ञानिक भौतिकवादी ज्ञान-मीमांसा का भी ककहरा नहीं जानता! और जानेगा भी कैसे! दरियागंज की गलियों में भटकने और प्रकाशकों का दरबार करने की जगह कुछ पढ़ेगा, तब तो जानेगा!
'व्यवहार के बारे में' मार्क्सवादी ज्ञान-मीमांसा (एपिस्टोमोलॉजी) पर केन्द्रित माओ की स्मारकीय रचना है जो व्यवहार और सिद्धान्त के द्वंद्वात्मक अन्तर्सम्बन्धों का शानदार निरूपण करती है (इसी के पूरक के तौर पर माओ की एक और छोटी-सी दार्शनिक टिप्पणी 'सही विचार कहाँ से आते हैं' भी पढ़ी जानी चाहिए जिसके बारे में मदन कश्यप को कुछ भी अता-पता नहीं है) । 'व्यवहार के बारे में' जैसे दार्शनिक लेख को पढ़े बिना मदन कश्यप ने उसको संकलन में शामिल कर लिया है, इसका ज्वलंत प्रमाण उनकी यह फूहड़ टिप्पणी है जिसमें ये अटकल-विशेषज्ञ ''ज्ञानी जी'' बताते हैं कि यह ''व्यवहार के बारे में'' माओ की "बहुत ही व्यावहारिक टिप्पणी है ।" इसतरह इस अनपढ़ अटकलबाज़ ने माओ को ''अनुभव आधारित लेखन'' करने वाले एक अनुभववादी ''व्यावहारिक'' व्यक्ति में तबदील कर दिया है ।
छद्म-वामी बौद्धिकों के कबीले के इस ओझा-सोखा को यह पता ही नहीं कि यह एक बेहद पिछड़े समाज में पैदा होने के बावजूद, माओ ने सर्वहारा वर्ग के शीर्ष क्रांतिकारी जैविक बुद्धिजीवी का दायित्व निभाते हुए कितने विकट अध्यवसाय के साथ इतिहास, दर्शन और मार्क्सवादी साहित्य का अध्ययन किया था । उन्होंने मार्क्स-एंगेल्स की समस्त उपलब्ध रचनाओं, तथा लेनिन और स्तालिन के 'कलेक्टेड वर्क्स' के अतिरिक्त विश्व इतिहास, चीन के इतिहास, प्राचीन काल से आधुनिक काल तक के चीनी दर्शन तथा ग्रीक दर्शन से लेकर हेगेल, काण्ट, फ़ायरबाख आदि के प्राक्-मार्क्सीय आधुनिक दार्शनिक सरणियों का सुव्यवस्थित अध्ययन किया था । माओ के दार्शनिक चिन्तन की प्रक्रिया और अवदानों की गहराई और व्यापकता को जानने के लिए कोई भी व्यक्ति निक नाइट के लेखों और पुस्तकों को, विशेषकर, 'मार्क्सिस्ट फ़िलोसॉफ़ी इन चाइना : फ्रॉम क्यू कुईबेई टु माओ जे -दंग, 1923-1945', 'ली दा ऐण्ड मार्क्सिस्ट फ़िलोसॉफ़ी इन चाइना', 'रीथिंकिंग माओ : एक्सप्लोरेशंस इन माओ जे दंग'स थॉट' और 'माओ जे-दंग ऑन द डायलेक्टिकल मैटीरियलिज़्म' को पढ़ सकता है । लेकिन यह बताने का लाभ पाठकों को हो सकता है, मदन कश्यप को नहीं । देहाती पुरोहितों जैसे ये महोदय बस बिना कुछ पढ़े-लिखे कुछ सस्ते रटे-रटाये जुमले ही मंत्र की तरह उचार सकते हैं !
पूरी सम्पादकीय टिप्पणी बताती है कि मदन कश्यप को माओ के सैद्धान्तिक अवदानों की रत्तीभर भी जानकारी नहीं है । टिप्पणी में उस बात की भी स्वीकारोक्ति है कि माओ की संकलित रचनाओं के चार खण्डों के अतिरिक्त सम्पादक महोदय ने माओ की कोई अन्य रचना देखी ही नहीं (चयन करते समय इन चार खण्डों में शामिल रचनाओं को भी इस कैरियरवादी प्रसिद्धि-पिपासु कूपमण्डूक ने आद्योपांत नहीं पढ़ा)। पाँचवें खण्ड के प्रकाशन की उनको जानकारी थी, पर वह उनके पास नहीं थी औरों उन्होंने उसे खोजकर हासिल करने की भी कोई ज़रूरत नहीं महसूस की, जबकि वह इण्टरनेट पर भी मौजूद है । माओ की जिन अन्य उपलब्ध रचनाओं की मैंने ऊपर चर्चा की है, उनमें से भी कई इण्टरनेट पर मौजूद हैं । मदन कश्यप ने उन्हें देखा तक नहीं है । माओ की अलग-अलग रचनाओं की पृष्ठभूमि और अहमियत को समझने के लिए मदन कश्यप ने माओ और चीनी क्रांति पर केन्द्रित आठ-दस प्रतिनिधि पुस्तकें भी नहीं पढ़ी । ऐसी कुछ चुनिन्दा किताबों की मैं पहले चर्चा कर चुकी हूँ । मूर्खता और अज्ञान का आलम यह है कि लाल प्लास्टिक की ज़िल्दों से अनुमान लगाकर यह आदमी बताता है कि संकलित रचनाओं के यही चार खण्ड 'लाल किताब' कहलाते थे जबकि चीनी क्रांति के इतिहास की सामान्य जानकारी रखने वाला व्यक्ति भी जानता है कि 'लाल किताब' या 'रेड बुक' नामसे माओ के चुने हुए उद्धरणों के उस संकलन को ख्याति मिली थी जो गुटका साइज़ में लाल प्लास्टिक की ज़िल्द में 1971में हिन्दी-अंग्रेज़ी सहित दुनिया की सभी प्रमुख भाषाओं में प्रकाशित हुआ था। यानी इतिहास के तथ्यों की अटकलभरी अनडब्बू प्रस्तुति के द्वारा मदन कश्यप की सम्पादकीय भूमिका नये पाठकों को कदम-कदम पर बहकाने-भटकाने का काम करती है । चयनित लेखों के बारे में सम्पादकीय भूमिका में दी गयी एक-एक वाक्य की टिप्पणियाँ या तो निहायत चलताऊ हैं, या सिरे से ग़लत हैं । इनमें से कुछ नमूनों की बानगी हम पहले ही पेश कर चुके हैं ।
स्पष्ट है कि माओ को एक अनुभववादी-व्यवहारवादी क्रांतिकारी और मार्क्स तथा लेनिन को बुद्धिजीवी मानने वाला यह बौना कैरियरवादी छद्म-बुद्धिजीवी माओ के सैद्धान्तिक-दार्शनिक अवदानों से परिचित ही नहीं है । माओ ने एक अर्द्धसामन्ती-अर्द्धऔपनिवेशिक देश में सर्वहारा के नेतृत्व में नवजनवादी क्रांति के सिद्धान्त, रणनीति और आम रणकौशल का, तथा दीर्घकालिक लोकयुद्ध की सामरिक नीति (अक्टूबर समाजवादी क्रांति की सामरिक नीति देशव्यापी आम बग़ावत की थी) का जो प्रतिपादन किया और जिसका व्यवहार में सत्यापन किया, उसका एशिया-अफ्रीका-लातिन अमेरिका के औपनिवेशिक - अर्द्धऔपनिवेशिक - नवऔपनिवेशिक देशों के लिए काफ़ी हद तक सार्विक महत्व था ।
लेकिन माओ का ऐतिहासिक अवदान मात्र इतना ही नहीं था । नवजनवादी क्रांति के दौरान ही उन्होंने 'अन्तरविरोध के बारे में' और 'व्यवहार के बारे में' जैसे क्लासिकीय प्रतिपादनों के द्वारा द्वंद्ववाद और ज्ञानमीमांसा के क्षेत्रों सहित मार्क्सवादी दर्शन और विज्ञान केा समृद्ध करने का जो काम शुरू किया वह 1949 के बाद उनके मृत्युपर्यन्त जारी रहा । माओ ने सोवियत संघ के समाजवादी निर्माण के सभी सकारात्मक-नकारात्मक अनुभवों का समाहार किया और चीन में समाजवादी क्रांति के एक नये मार्ग की रूपरेखा तैयार की । इसकी एक तस्वीर हमें 'दस मुख्य सम्बन्धों के बारे में' और 'जनता के बीच के अन्तरविरोधों को सही ढंग से कैसे हल करें' के अतिरिक्त 1950 के दशक के दौरान के लेखों, रिपोर्टों, वक्तव्यों और साक्षात्कारों से मिल जाती है । इसी प्रक्रिया में माओ ने स्तालिन और सोवियत नेतृत्व के यांत्रिक भौतिकवादी विचलन और तज्जन्य अर्थवादी एवं उत्पादकतावादी विचलनों की भी शिनाख़्त की जिनके कारण तत्कालीन सोवियत समाजवादी समाज में वर्ग-संघर्ष की कुंजीभूत कड़ी की सही वैचारिक ढंग से पहचान न हो सकी और पूँजीवादी पथगामियों को पार्टी एवं राज्य में अपनी जड़ें जमाने तथा पूँजीवादी पुनर्स्थापना का आधार तैयार करते रहने का मौक़ा मिला । माओ के समाजवाद-विषयक सैद्धान्तिक सूत्रों को विकासमान रूप में सोवियत राजनीतिक अर्थशास्त्र की समालोचना वाली पुस्तक में देखा जा सकता है, जो दरअसल तदविषयक अध्ययन करते हुए लिये गये नोट्स हैं । सोवियत संघ में संशोधनवादी ख्रुश्चेव के सत्तासीन होने के बाद चीन की पार्टी ने माओ के निर्देशन में राजनीतिक वाद-विवाद करते हुए जो बहुमूल्य दस्तावेज़, लेख और कमेंट्स ('महान बहस' नाम से प्रसिद्ध) लिखे, वे संशोधनवाद विरोधी संघर्षों के लम्बे इतिहास में उतने ही महत्वपूर्ण माने जाते हैं जितने अतीत में बर्नस्टीन और काउत्स्की के विरुद्ध चलाये गये संघर्ष । कुछ मायनों में यह अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि अतीत के संशोधनवाद-विरोधी संघर्षों को भी अपनी अंतर्वस्तु में समाहित करते हुए यह ''शांतिपूर्ण संक्रमण'', ''संसदीय मार्ग से समाजवाद लाने'' जैसे सभी बकवासों को तार-तार कर देता है । आज राजनीतिक अनपढ़पन का यह आलम है कि इन दस्तावेज़ों से ढेरों वाम बौद्धिक और वाम कवि-लेखक परिचित ही नहीं है । इसीलिए न केवल मदन कश्यप, बल्कि वीरेन्द्र यादव, आशुतोष कुमार, प्रणय कृष्ण, रवि भूषण आदि-आदि साहित्य की दुनिया के तमाम-तमाम कथित समझदार लोग भी जब राजनीति की बात करते हैं तो बेहद फूहड़ ढंग से बर्नस्टीन, काउत्स्की, अल ब्राउडर, टीटो, ख्रुश्चेव और देंग सियाओ-पिंग जैसे विपथगामियों के जुमलों और मुहावरों का ही फूहड़ 'पॉपुलिस्ट' इस्तेमाल करते हुए सामाजिक जनवाद और संशोधनवाद की पुरानी सड़ी हुई खिंचड़ी को नयी बताकर परोसते रहते हैं और हवालों और तथ्यों सहित गम्भीर सैद्धान्तिक बहस में उतरने की जगह बस फतवे देते रहते हैं कि 'बीसवीं सदी के प्रयोग फेल हो गये', 'सर्वहारा अधिनायकत्व की अवधारणा ही ग़लत है', 'स्तालिन ने यह अत्याचार किया और माओ ने वह अत्याचार किया' ... ... वगैरह-वगैरह! जब इन कथित बौद्धिकों की यह हालत है तो आश्चर्य नहीं कि तमाम युवा और नये कम्युनिस्टों की जमातें भाकपा, माकपा और भाकपा (मा-ले) लिबरेशन के छद्म-मार्क्सवाद को समझ ही नहीं पातीं, या फिर इन संसदीय वाम दलों के सत्तर वर्षों के इतिहास में निरंतर जारी अवरोही यात्रा और पतनशीलता के कारणों को समझ ही नहीं पातीं और मार्क्सवाद को ही 'विफल' या 'आउटडेटेड' घोषित करती रहती हैं । मेरी बात को आप खारिज़ कर सकते हैं, लेकिन पहले 'महान बहस' के दस्तावेज़ों को पढ़ककर आइये, फिर बात करते हैं । बहरहाल, लुब्बेलुब्बाब यह कि मदन कश्यप तो घुन खाये गेहूँ की बोरी के एक दाना मात्र हैं जो बोरी के समूचे गेहूँ के सड़े होने के बारे में जानकारी दे देते हैं ।
अब फिर अपने मूल विषय पर लौटते हैं । सोवियत संघ के समाजवादी निर्माण के दौर के अनुभवों और ख्रुश्चेव-ब्रेझनेव-कोसीगिन गिरोह के मज़बूत होने और फिर सत्ता पर का़बिज़ होने के कारणों के गहन अध्ययन को अपने देश के अनुभवों से और संशोधनवादी लाइनों के विरुद्ध जारी संघर्षों को जोड़कर देखने के बाद 1960 के दशक के मध्य तक माओ ने समाजवाद की समस्याओं और पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के कारणों की एक सुसंगत समझ बनाई और उसके समाधान की दिशा ढूँढ़ते हुए 'महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति' (1966-76) के युगांतरकारी प्रयोग तक की यात्रा तय की । उन्होंने समाजवादी संक्रमण-विषयक लेनिन के चिन्तन के छूटे हुए सिरे को पकड़ा, असमाधानित पड़ी हुई समस्याओं का हल प्रस्तुत करते हुए समाजवादी समाज में वर्ग-संघर्ष के नियमों को उद्घाटित किया और सर्वहारा वर्ग के सर्वतोमुखी अधिनायकत्व के अन्तर्गत क्रांति को निरंतर जारी रखने तथा उत्पादन-सम्बन्धों के समाजवादी रूपांतरण के साथ-साथ अधिरचना के क्षेत्र में भी सतत् क्रांति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया । ऊपर हम उल्लेख कर चुके हैं कि समाजवादी समाज में वर्गों और वर्ग-संघर्ष की मौजूदगी, उनके भौतिक आधारों और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ख़तरों की शिनाख़्त तो लेनिन ही कर चुके थे लेकिन तदविषयक उनका लेखन सूत्रवत था और अंशत: अव्यवस्थित था । माओ और उनके सहयोगियों ने इस प्रश्न के हर पहलू को विस्तार से स्पष्ट किया । माओ ने स्पष्ट किया कि समाजवादी समाज में पैदा होने वाले नये बुर्जुआ तत्वों और पुराने बुर्जुआ तत्वों की वर्गीय नुमाइन्दगी पार्टी और राज्य के भीतर के वे विशोषाधिकार-प्राप्त नौकरशाह तत्व करते हैं, जो स्वयं ही नये बुर्जुआ होते हैं और ग़लत लाइन को अमल में लाकर सर्वहारा अधिनायकत्व को बुर्जुआ अधिनायकत्व बना देना चाहते हैं तथा समाजवादी अर्थव्यवस्था को, उसका मुखौटा बरक़रार रखते हुए, राजकीय इजारेदार पूँजीवाद में तबदील कर देना चाहते हैं । पूँजीवादी पुनर्स्थापना के भौतिक आधारों को अनावृत्त करते हुए माओ ने स्पष्ट किया कि पूँजीवादी निजी स्वामित्व के समाजवादी सामूहिक स्वामित्व में रूपांतरण के बाद भी आवश्यकता के अनुसार वितरण के बजाय काम के अनुसार वितरण का बुर्जुआ अधिकार मौजूद रहता है, मूल्य का नियम प्रभावी बना रहता है और माल का अस्तित्व बना रहता है । यह स्थिति समाजवादी समाज में भी लगातार बुर्जुआ सम्बन्धों, बुर्जुआ विचारों और बुर्जुआ मूल्यों को पैदा करती रहती है । ये बुर्जुआ विचार और मूल्य पलटकर बुर्जुआ मूलाधार और बुर्जुआ तत्वों को मज़बूत करते रहते हैं । अत: इनके विरुद्ध सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत सतत् क्रांति अगर न चलायी जाये तो पूँजीवादी पुनर्स्थापना कालान्तर में अवश्यम्भावी हो जायेगी । उल्लेखनीय है कि सांस्कृतिक क्रांति की यह सैद्धान्तिकी विकसित करते हुए माओ ने मूलाधार और अधिरचना के द्वंद्वात्मक सम्बन्ध की समझदारी को भी विकसित किया और गहरा बनाया ।
चीन की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति (1966-76) कई चरणों से गुजरने वाली एक नयी युगांतरकारी क्रांति थी, लेकिन माओ ने अपने अंतिम दिनों में बार-बार यह भी बताया कि समाजवादी रास्ते और पूँजीवादी रास्ते के बीच के संघर्ष में निर्णायक विजय का फ़ैसला अभी भी नहीं हुआ है और भविष्य में ऐसी कई सांस्कृतिक क्रांतियों की ज़रूरत पड़ेगी । माओ की मृत्यु के बाद चीन में भले ही ''बाज़ार समाजवाद'' के परचम तले पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो गयी, लेकिन इससे भविष्य की सभी सर्वहारा क्रांतियों के लिए सांस्कृतिक क्रांति का युगांतरकारी महत्व कम नहीं होता । अपने सिद्धान्त और प्रयोग से मार्क्सवादी सैद्धान्तिकी को विकसित करने की दृष्टि से सांस्कृतिक क्रांति पेरिस कम्यून और अक्टूबर क्रांति के बाद सर्वहारा क्रांति की विश्व ऐतिहासिक यात्रा का तीसरा मील का पत्थर है । इसके इस ऐतिहासिक महत्व को समझने के लिए कई वृहदकाय खण्डों में संकलित 'महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति' के दस्तावेज़ों और लेखों के अतिरिक्त ज्याँ दॉबियर, हिण्टन, एडगर स्नो, स्टुअर्ट श्रैम आदि की उन पुस्तकों को पढ़ना ज़रूरी है जो इस कालखण्ड पर केन्द्रित हैं और जिनका उल्लेख हम पहले कर चुके हैं । और भी बहुत सी पुस्तकें हैं, जैसे, आर.सी.पी., यू.एस.ए. द्वारा प्रकाशित 'रेवोल्यूशन एण्ड काउण्टर रेवोल्यूशन इन चाइना', 'ऐण्ड माओ मेक्स फ़ाइव' (यह माओ के पक्ष और उनके विरोधी पक्ष के चुने हुए दस्तावेज़ों का संकलन है) और रेमण्ड लोट्टा की छोटी से पुस्तिका 'माओ'ज़ लास्ट ग्रेट बैटल' आदि-आदि ।
सांस्कृतिक क्रांति के दौरान माओ का अपना लेखन कुछ संक्षिप्त टिप्पणियों, वक्तव्यों, निर्देशों और साक्षात्कारों के रूप में ही मौजूद है । लेकिन नवीं और दसवीं कांग्रेस (1969 और 1973) की राजनीतिक रिपोर्टें और अधिकांश महत्वपूर्ण प्रसिद्ध दस्तावेज़ उनके प्रत्यक्ष निर्देशन में तैयार हुए थे ।
महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक और ऐतिहासिक सामग्री के इस विपुल भण्डार को मदन कश्यप ने शायद देखा तक नहीं है, पढ़ना तो दूर की बात है । लेकिन गाँव के लाल बुझक्कड़ सयाने की तरह अपने सम्पादकीय में नितान्त हास्यास्पद और फूहड़ टिप्पणी करने से बाज नहीं आते । वह लिखते हैं : ''माओ के बुद्धिजीवियों वाले लेख को पढ़कर थोड़ा आश्चर्य होता है कि आगे चलकर कैसे इस सोच वाले नेता ने 'सांस्कृतिक क्रांति' की अवधारणा रखी ।'' जाहिर है कि मूल और प्रामाणिक द्वितीयक स्रोतों के देखे-पलटे बिना लाल बुझक्कड़ महाराज ने सांस्कृतिक क्रांति के बारे में सारी जानकारी 'हिस्ट्री चैनल', 'डिस्कवरी चैनल', अन्य साम्राज्यवादी भोंपुओं और चीन के सत्तारूढ़ पूँजीवादी पथगामियों के निकृष्ट दुष्प्रचारों से ही इकट्ठा किया है । इसमें आश्चर्य की भला क्या बात है ! सारे छद्म-बौद्धिक छिछोरे ऐसा ही तो करते हैं!
पहली बात तो यह कि मदन कश्यप सांस्कृतिक क्रांति को (नाम से गच्चा खाकर) महज़ सांस्कृतिक क्रांति समझते हैं जिसका ताल्लुक केवल बुद्धिजीवियों से था, जबकि यह एक सर्वतोमुखी राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति थी, राजनीतिक वर्ग-संघर्ष का एक विस्फोट थी । दूसरे, दुष्प्रचारों के प्रभाव में कलयुगी "कश्यप ऋषि" को सिर्फ़ इतना पता है कि सांस्कृतिक क्रांति के दौरान बुद्धिजीवियों पर बहुत अत्याचार हुआ! बात केवल बुद्धिजीवियों की थी ही नहीं । बुर्जुआ विचारों के वाहक जो भी नेता और बुद्धिजीवी थे, उनके ख़िलाफ़ खुली, लम्बी वैचारिक बहसें चलीं, जनसभाओं में आलोचनाएँ हुईं (उन्हें अपना पक्ष रखने का मौक़ा मिला) और फिर उन्हें पार्टी और पदों से हटाकर दण्डस्वरूप फैक्ट्रियों-कारखानों में काम करने के लिए भेज दिया गया । बेशक़ क्रांति जब सड़कों पर होती है तो उसमें अपरिहार्यत: अतिरेक और ग़लतियाँ भी होती हैं । क्रांति कोई डिनर पार्टी नहीं होती । यह कविता लिखने और भाषण देने जैसा काम नहीं होती । यह एक तूफ़ान होती है जो जनसमुदाय की पहलकदमी और अपार ऊर्जा को निर्बंध कर देती है । सांस्कृतिक क्रांति में पूँजीवादी पथगामियों को मृत्युदंड, यंत्रणा या जेल भेजने जैसा कुछ भी नहीं हुआ या अपवादस्वरूप ही हुआ । उन्हें पार्टी और पदों से हटाकर उत्पादक श्रम करने और पार्टी स्कूलों में फिर से मार्क्सवाद पढ़ने के लिए भेज दिया जाता था । बेशक सार्वजनिक आलोचना सभाओं में कतारों और जनता से कुछ अतिरेकी ग़लतियाँ भी हुईं पर उनको ठीक करने की प्रक्रिया भी सतत् साथ-साथ चलती रही । ज्ञातव्य है कि 1972-73 में पार्टी से निकाले गये लोगों के सभी मामलों की समीक्षा करके बड़े पैमाने पर लोगों को वापस भी लिया गया । इसका लाभ उठाकर कुछ बदमाश फिर से पार्टी में घुस आये, उनमें से कई को 1975-76 के दौरान फिर पार्टी से निकाला गया । एक महत्वपूर्ण बात यह है कि ''शुद्ध-बुद्ध क्रांति'' की भाववादी अपेक्षा पालने वाले कुर्सीतोड़ बुद्धिजीवी मैला का ढेर खोजने-कुरेदने वाले कौव्वों जैसे होते हैं जो क्रांतियों की सैद्धान्तिकी, वैचारिक अवदानों और ऐतिहासिक भूमिका की पड़ताल किये बिना ग़लतियों और अतिरेकों की 'लॉण्ड्री लिस्ट' तैयार करते रहते हैं । अतिरेक और ग़लतियाँ, विशेष तौर पर दुनिया के सभी 'पाथब्रेकिंग' और 'ट्रेण्डसेटर' क्रांतियों के दौरान लाज़िमी तौर पर होती ही होती हैं । वे सांस्कृतिक क्रांति और अक्टूबर क्रांति के दौरान भी हुईं और क्रामवेल की क्रांति, अमेरिकी क्रांति और फ्रांसीसी क्रांति के दौरान भी हुईं । नया मार्ग-संधान करने वाली प्रवृत्ति-निर्धारक क्रांतियों के पहले प्रयोग अपरिष्कृत होते हैं, पर ऐसी ही क्रांतियों का सर्वाधिक ऐतिहासिक महत्व होता है । महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति एक ऐसी ही क्रांति थी जिसके महत्व को सुनी-सुनाई हल्की-फुल्की ''सनसनीखेज'' बातों का चनाज़ोरगरम बेचने वाला मदन कश्यप जैसा कोई छद्म-बौद्धिक खोमचे वाला नौ जनम में भी नहीं समझ सकता ।
मदनीय मोदक मूर्खताएँ तो और भी बहुत सारी हैं! कहाँ तक बखान करें! 'हरि अनंत हरिकथा अनंता ।' किसी ने सही कहा है कि ब्रह्माण्ड की एक सीमा होती है, लेकिन मूर्खता की कोई सीमा नहीं होती! और रुकिये, आफ़त अभी रुकने वाली नहीं है! मदन कश्यप ने घोषित कर दिया है कि आगे मार्क्स, लेनिन, रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग आदि पर भी ऐसे ही चयन वह सम्पादित करेंगे ।
आख़िर इस स्तर का राजनीतिक अनपढ़ आदमी इस काम को कैसे करेगा? इन इतिहास निर्माता व्यक्तित्वों के दार्शनिक, राजनीतिक अर्थशास्त्र-विषयक और 'पोलेमिकल' लेखन को यह आदमी नौ जनम में समझ नहीं सकता! समझना तो दूर, पढ़ भी नहीं सकता! ख़ास तौर पर इस भर्त्सना भरी आलोचना के बाद सावधानी भी तो बरतनी होगी! ऐसी सूरत में वह एक ही काम करेगा! एक या दो या तीन खण्डों में मार्क्स, लेनिन, रोज़ा आदि की चुनी हुई रचनाओं के दर्ज़नों संकलन पश्चिम के कुछ प्रकाशकों ने छापे हैं । उन्हीं में कुछ टीप-टापकर संकलन बन जायेंगे । समस्या बस एक आयेगी कि ऐसी वैचारिक कृतियों का अनुवाद तो मदन कश्यप के बूते की बात नहीं । ख़ैर, अमिताभ राय भाड़े के अनुवादकों की मदद से यह समस्या हल भी कर दें तो 'कैफ़ीयत' कैसे लिखी जायेगी! उसका समाधान यह हो सकता है कि विभिन्न संकलनों की सम्पादकीय टिप्पणियों से कट-पेस्ट करके नया माल तैयार कर लिया जाय । इसके लिए मदन कश्यप अपने मित्र, भारत के महान कटपेस्टवादी लेखक अशोक कुमार पाण्डेय से ट्रेनिंग ले सकते हैं, जो वैसे भी इन दिनों लेखन-कला का प्रशिक्षण देने के काम में चुटिया बाँधकर, कान पर जनेऊ चढ़ाकर जुटे हुए हैं ।
लेकिन कहते हैं न! मूर्खता का चेहरा किसी घूँघट की ओट या बुरके की आड़ में नहीं छिपता । चोरी और टीपाटीपी करके जो सारसंग्रहवादी किस्म का लेखन कोई करता है तो छीछालेदर और जगहँसाई से कतई नहीं बच पाता ।
तो मदन कश्यप जी, आप मार्क्स, लेनिन और रोज़ा के चयन तैयार कीजिए । हम भी इन्तज़ार कर रहे हैं । एक राजनीतिक अनपढ़ को ऐसी बौद्धिक विदूषकी और धृष्टता के लिए बख़्शा नहीं जाना चाहिए । हम नरक के द्वार तक आपका पीछा करेंगे । ये वादा रहा!
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(16 Aug 2022)
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