Saturday, August 13, 2022


विश्वविद्यालयों में हिन्दी साहित्य के विभागों में जितने भी शोध होते हैं उनमें से 99.9 प्रतिशत एकदम बकवास होते हैं -- एकदम घोड़े की लीद माफ़िक़! वे सिर्फ़ कालेजों-विश्वविद्यालयों में प्राध्यापकी पाने की खातिर होते हैं! प्राध्यापक की नौकरी की अर्हता से पी-एच. डी. को तो कत्तई बाहर कर देना चाहिए! सिर्फ़ पढ़ाने की योग्यता और विषय की जानकारी देखी जानी चाहिए! 

लेकिन मैं ऐसा सोच क्यों रही हूँ! बुर्जुआ समाज को तो आज यही चाहिए कि मीडियाकरों और ऐंठी गर्दन वाले गदहों के पढ़ाये उच्च सुविधा-प्राप्त कूपमंडूकों का ही समाज में चतुर्दिक घटाटोप हो! बाकी जो थोड़े से सक्षम लोग निकलें उन्हें शासक वर्ग की बग्घी में घोड़ों की तरह नाध दिया जाये! वैसे ऐतिहासिक तौर पर आज का बूढ़ा  पूँजीवाद ज्ञान-विज्ञान के नये क्षितिज उद्घाटित करने की क्षमता लगभग खो चुका है! 

जो हालत साहित्य के क्षेत्र में शोधकार्य की है, हो सकता है वही हाल समाज विज्ञान और प्रकृति विज्ञान के सभी विषयों में भी हो, पर मैं दावे से कह पाने की स्थिति में नहीं हूँ क्योंकि उनके बारे में मेरी प्रत्यक्ष जानकारी नहीं है!  

अगर हम वास्तव में शिक्षित होना चाहते हैं, अपने भीतर तर्कणा, इतिहास-बोध, 'साइंटिफिक टेम्पर' पैदा करना चाहते हैं तो बुर्जुआ शिक्षा द्वारा सिखाई गयी अधिकांश चीज़ों को 'अनलर्न' करना पड़ेगा! ऐसा लद्दू टट्टू बने रहने से काम नहीं चलेगा जो अपनी पीठ पर गंदे कपड़े, कूड़ा और शक्कर की बोरी समान भाव से, पूरी कर्तव्य-निष्ठा के साथ ढोता रहता है!

(13August,2022)

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