Friday, September 03, 2021

एक वृक्ष की त्रासद जीवन-गाथा

 



 एक वृक्ष की त्रासद जीवन-गाथा 

(दिवंगत कामरेड रामनाथ की स्‍मृति में ) 

....

सदानीरा उस नदी के किनारे 

फलदार वृक्षों से भरे हुए 

जंगल जैसे घने उस बागीचे ने 

कभी जीवन के कलरव से 

गुलज़ार दिन देखे थे – 

घने साये तले सुस्‍ताते मज़दूर , 

फूस की झोपड़‍ियों की छान्‍ही छाते लोग , 

कुछ घुमन्‍तू दस्‍तकारों के तम्‍बुओं से 

तरह-तरह के औज़ार बनाने की प्रक्रि‍या से 

जन्‍मी आवाज़ें और बच्‍चों और स्त्रियों की आवाज़ें 

और हुक्‍कों और चूल्‍हों से उठता धुऑं 

और ऊपर पत्‍तों के बीच 

रंग-बिरंगे पक्षियों का शोर... …

वहॉं ध्‍वनियों और रंगों और ऋतुओं और 

रोशनी और अँधेरे और आकृतियों और परछाइयों 

और गर्मी और ठण्‍डक और नमी और शुष्‍कता की 

एक भरी-पूरी दुनिया 

आबाद हुआ करती थी। 

मार्च-अप्रैल के महीनों में पूरे माहौल में 

आम्र मंजरियों और महुआ के फूलों की 

मादक गमक भरी रहती थी 

और गर्मियों में नदी पर झुके हुए 

आम और जामुन के पेड़ नदी में 

अपने कुछ फल गिराते रहते थे 

और पेड़ों की ऊँची डालियों से 

बच्‍चे शोर मचाते हुए 

उफनती लहरों में छलॉंग लगाते रहते थे। 

फिर गुज़रे क़रीब तीस-पैंतीस वर्षों के दौरान 

पर्यावरण कुछ ऐसा बदला कि 

नदी अपना पाट बदलकर 

बाग से दूर होकर बहने लगी। 

ज्‍़यादातर बूढ़े वृक्ष निर्जीव काठ हो गये 

शुष्‍क, पत्रहीन। 

कुछ के तनों को दीमकों ने खोखला कर दिया 

और कुछ को मिट्टी के ढूहों में बदल दिया। 

लोग अब यहॉं अड्डे नहीं जमाते थे, 

ख़ानाबदोशों की टोलियॉं 

इधर का रुख नहीं करती थीं 

और बच्‍चे तो जैसे इस ओर आने का 

रास्‍ता ही भूल चुके थे। 

उस निचाट उजाड़ में खड़ा रह गया था 

बरगद जैसा विशाल 

देसी आम का एक बूढ़ा पेड़, 

हर ऑंधी जिसकी कुछ डालियों को 

बेरहमी से तोड़ जाती थी 

और कुछ डालियॉं खुद ही सूखती चली जाती थीं। 

आसपास के गॉंवों के सयाने 

इस पेड़ को भुतहा बताने लगे थे। 

उम्रदराज़ पेड़ की जिजीविषा बसन्‍त ऋतु में 

कुछ बौर तो पैदा करती थी 

लेकिन टिकोरों के जन्‍म से पहले ही 

वे मधुआ कर झड़ जाया करते थे। 

उदास, एकाकी उस पेड़ के आसपास 

अब नहीं थे पुराने साथी-संघाती पेड़। 

बस आसपास कुछ बौनी, कँटीली, फूल-फलहीन, 

मनहूस और ज़हरीली झाड़‍ियॉं थीं। 

कुछ कोटरों में काहिल, बौद्धि‍कों से दीखते 

उल्‍लुओं के बसेरे थे। 

अक्‍सर पास की फ़ैक्‍ट्री के पीछे के नाले से निकलने वाला 

अपशिष्‍ट पीकर, नशे में सुस्‍त पड़े, 

झड़े हुए रोंओं वाले कुछ मरियल बन्‍दर भी 

उस बेरंग सन्‍नाटे में यहॉं-वहॉं 

लेटे मिल जाते थे। 

बस एक कठफोड़वा था 

जो बीच-बीच में आकर 

गतयौवन महाकाय वृक्ष की सूखती काया पर 

अपनी कठोर तीखी चोंच से 

ठक्-ठक् की चोट करता रहता था। 

चीज़ों की आन्‍तरिक गति ही 

अन्‍तत: होती है निर्णायक। 

सोचना तो उस एकाकी वृक्ष को भी था 

कि नदी उस बाग से दूर क्‍यों होती गयी 

जिसका वह सबसे पुराना निवासी था! 

क्‍यों छूटते गये उसके पुराने मित्र वृक्ष 

और तमाम जीवनोपयोगी वनस्‍पतियों की जगह 

कहॉं से उग आये ज़हरीले-कँटीले झाड़-झंखाड़ 

सॉंपों-बिच्‍छुओं से भरे हुए! 

लेकिन अपनी निजी क्षमता और अनुभव पर 

अतिआत्‍मविश्‍वास भी कई बार 

एक ऐसा मायाजाल रचता है 

कि आलोचनात्‍मक विवेक की क्षमता 

छीजती चली जाती है 

और चीज़ों को रास्‍ते पर लाने की सम्‍भावना 

रीतती चली जाती है। 

ऐसी ही कुछ त्रासदी घटित हुई 

उस अनुभवसम्‍पन्‍न वृक्ष के साथ भी। 

मरने से पहले उस वृक्ष ने 

पुराने दिनों को और गर्म दिलों की संगत को 

चिलचिलाती धूप में 

कॉंपते-थरथराते-झिलमिलाते भूदृश्‍य की तरह 

याद करते हुए 

नदी की लहरों को,  हरीतिमा को, 

पुरवा हवाओं की नमी को 

भरे गले से, कमज़ोर पड़ती आवाज़ में 

पुकारने की कोशिश की 

जो बेरहम कठफोड़वे की ठक्-ठक् और 

तेज़ हवा में झरझराती-खड़खड़ाती 

झाडि़यों के शोर में खो गयी। 

बूढ़ा वृक्ष यह देख नहीं पाया कि उसकी 

बची-खुची उम्‍मीदें ऐन उसके नीचे की 

मिट्टी में फैलती चली गयी थीं 

उससे जीवन-द्रव्‍य का रस और 

पुरखों की विरासत के खनिज लेकर 

और उसकी युयुत्‍सा जगह-जगह 

धरती की छाती फोड़कर पौधों की शक़्ल में 

उगने की कोशिश कर रही थी। 

उसकी कुछ जड़ें 

भूमिगत सुरंगों से होकर गुज़रते 

छापामारों की तरह लगातार 

नदी की ओर बढ़ती जा रही थीं। 

वे युवा वृक्षों के एक जंगल को 

जन्‍म देना चाहती थीं 

और नदी को खींचकर 

फिर से वापस लाना चाहती थीं। 

मृत्‍यु से जूझता वह वृद्ध वृक्ष 

नहीं देख सका सतह के नीचे का सच ,

नहीं भॉंप सका आगत की आहटें। 

उसे लगा कि उसकी पुकारें अब निरर्थक हैं, 

व्‍यर्थ है प्रतीक्षा अब  

नदी और हरीतिमा और पुरवा हवाओं की 

वापसी की। 

फि‍र उसने सॉंसों की टूटती डोर को 

थामने की कोशिश छोड़ दी, 

बिना यह जाने कि 

धरती के नीचे फैलती उसकी जड़ों में 

संचित जीवन की तरलता और हरीतिमा 

आने वाले दिनों में 

अनगिन युवा, जिजीविषु और युयुत्‍सु पेड़ों के 

एक भरे-पूरे जंगल को 

जन्‍म दे सकती हैं।

-- शशि प्रकाश (1 स‍ितम्‍बर 2021)

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