Wednesday, May 05, 2021

कविता 'चुड़ैलें' का बांग्ला में अनुवाद...

 


मेरी  कविता 'चुड़ैलें'  का बांग्ला में अनुवाद  श्रेया चक्रवर्ती ने किया है ! साभार साथी Tanuj Kumar.

অনেক দিন আগে তনুজ কবিতা কৃষ্ণপল্লবী র  "चुड़ैलें"  কবিতাটা অনুবাদ করতে  বলেছিল । কাল হঠাৎ এক মাত্রাতিরিক্ত মানুষীর গল্প শুনে প্রেতেনীর কথা মনে পড়লো....

প্রেতেনীরা...

 কবিতা কৃষ্ণপল্লবী

প্রেতেনীরা খলখলিয়ে হাসে

ওরা লজ্জাহীন, জেদী

ওরা বাচাল,

কথায় কথায় কথা বাড়ায়

প্রেতেনীরা তাদের জীবনের প্রতিটি সিদ্ধান্ত নিজেই নেয়।

আর ঠিক এই জন্যই ওরা বিপদজনক

এক ভীত বিশ্বাস মিশেছে আমাদের মজ্জায় 

যে,

যেকোন মুহুর্তে এই পৃথিবীর সকল নারীকে

খেপিয়ে তুলতে পারে এই প্রেতেনীরা,

আর

শান্তিভঙ্গ করে পৃথিবীকে 

করে তুলতে পারে নরক।

প্রেতেনীরা, বুদ্ধিজীবীদের মতো আপোস করে না,

নিজেকে বিকিয়ে কিনতে চায় না শান্তি।

এমনকি, অতিশয় শান্তিপ্রিয় 

সদগৃহস্তের মতো

সমাজের নিয়মে চলার

কোনো প্রয়াসই নেই ওদের।

প্রেতেনীরা প্রতিবাদ করে, প্রশ্ন তোলে,

অসম্মতি প্রকাশ করে,আর,

প্রয়োজনে পাল্টা আঘাত হানে।

দিনের আলোয় ওরা আর সকল মহিলার মধ্যে নিজেদের মিলিয়ে রাখে।

তবু খেয়াল করলে ঠিক চিনে নেওয়া যায় 

এই প্রেতেনীদের।

হঠাৎই কোনো পুরুষ অনুভব করে,

তার স্ত্রী অথবা কন্যা 

এখন প্রেতেনী ।

তারপর....

তারপর , পৃথিবীর সকল ওঝা-গুনীন-তান্ত্রিক 

নানা ভাবে ওদের বাঁধে, ওদের বোঝায়, আর... বিফল হয়ে নানা ভাবে শাস্তি দেয় ওদের।

প্রায়ই ওদের নির্বাসিত করা হয় দূর কোনো অন্তরালে

কিন্তু প্রতিবারই ওরা ফিরে আসে, 

লেগে পড়ে নিজের কাজে।

ওরা উদ্বিগ্ন অশান্ত আত্মা

প্রাণে অতৃপ্তি ভরে ছুটে চলে 

সৃষ্টির এক প্রান্ত থেকে অন্য প্রান্তে

ওরা শাপভ্রষ্ট যক্ষিনী

ক্ষমা চাওয়ার অথবা,দেবলোক ফেরার অনুমতি চেয়ে

আবেদন পত্র লেখার কোনো ইতিহাস ওদের নেই

ওদের দুঃখের আখ্যান বিরল

অমাবশ্যার রাতে শ্মশানের নিভৃত একান্তে

কোনো ঐতিহাসিক ব্যথার স্মৃতি আঁকড়ে

ওরা রক্ত কান্না কাঁদে।

আর, কবিদের জন্য রেখে যায়

মিথকিয় রহস্য ।

প্রেতেনীরা চামচিকেদের সাথে আলাপ জমায়

আর ভনভন করে পাক খেতে খেতে 

তাদের সাথে উড়ে বেড়ায় রাতের আকাশে।

ওরা ছমছম নূপুর বাজিয়ে

উল্টো পায়ে নাচতে নাচতে 

নামে স্নানের ঘাটে

তারপর, এক বুড়ো পিপুল গাছে চড়ে বসে

তার সবচেয়ে উঁচু ডাল থেকে

পৃথিবীর সকল নারীর উচাটন ঘুম আর স্বপ্নের মাঝে

লাফিয়ে পড়ে 

ঝপ করে।

श्रेया चक्रवर्ती

*

मूल कविता :

चुड़ैलें

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चुड़ैलें बहुत हँसती हैं,

बेशर्म और ज़िद्दी होती हैं,

बेहद बातूनी होती हैं और हर बात पर

बहस करती हैं अनथक ।

चुड़ैलें अपनी ज़िन्दगी के हर फ़ैसले ख़ुद लेती हैं

और इसलिए बेहद डरावनी होती हैं ।

लोगों को विश्वास होता है कि वे सारी औरतों को

बिगाड़ सकती हैं और इस दुनिया को

नरक बना सकती हैं ।

चुड़ैलें समझौते नहीं करतीं

बुद्धिजीवियों की तरह ,

न ही हर क़ीमत पर शान्ति खरीदने की कोशिश करती हैं

अतिशय शान्तिप्रेमी सद्गृहस्थों की तरह,

न जमाने के हिसाब से चलने या ढलने की

कोई कोशिश करती हैं ।

चुड़ैलें प्रतिवाद करती हैं, सवाल उठाती हैं,

असहमति प्रगट करती हैं और पलटवार करती हैं ।

चुड़ैलें दिन के उजाले में दुनिया की तमाम

औरतों में घुली-मिली रहती हैं

पर अक्सर अपनी आदत से पहचान ली जाती हैं ।

कई बार कोई पुरुष अचानक पाता है

कि उसकी पत्नी या बेटी एक चुड़ैल बन चुकी है ।

फिर दुनिया के तमाम ओझा-गुनी और तांत्रिक उन्हें

तरह-तरह से बाँधते हैं, समझाते हैं और

विफल होकर फिर तरह-तरह से दण्डित करते हैं ।

अक्सर उन्हें दूर देश निर्वासित कर दिया जाता है

लेकिन वे हमेशा लौट आती हैं और बिना रुके

फिर अपने काम में लग जाती हैं ।

वे उद्विग्न-अशान्त आत्माएँ होती हैं

सृष्टि के ओर-छोर तक भटकती हुई ।

वे शापित यक्ष-कन्याएँ होती हैं

जिनके क्षमा-याचना करने या देवलोक जाने के पारपत्र के लिए

प्रार्थना-पत्र लिखने का कोई इतिहास नहीं मिलता ।

चुड़ैलों के दुःखों के आख्यान विरल ही मिलते हैं

अमावस्या की रात श्मशान के नीरव एकान्त में

चुड़ैलें किसी ऐतिहासिक पीड़ा को लेकर

ख़ून के आँसू रोती हैं

और कवियों के लिए मिथकीय रहस्यों का

सृजन करती हैं ।

चुड़ैलें तिरस्कृत चमगादड़ों से संवाद करती हैं

और रात को भनभन करते हुए

उनके साथ आकाश में गोते लगाती हुई उड़ती हैं ।

वे छम-छम पायल बजाते हुए

अपने उल्टे पैरों से नाचते हुए

चौंरे के पोखर तक नहाने जाती हैं

और फिर पास के बूढ़े पीपल के पेड़ पर चढ़ कर

उसकी सबसे ऊँची डाल से

तमाम स्त्रियों की उचाट नींदों और प्रतिबंधित सपनों में

झम्म से कूद पड़ती हैं ।

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