Tuesday, May 04, 2021

जवानी की दहलीज पर पैर रख रहे कार्ल मार्क्स की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ


 जवानी की दहलीज पर पैर रख रहे कार्ल मार्क्स की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ

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" ... और मैं टोकता हूँ , आ सामने मुक़ाबले को 

 तो देव जैसी ये दुनिया

  हक़ीर नाहंजार । 

  एक आह भरती है 

  ढह पड़ती है वहीं पर वो

  उसीतरह से मैं रहता हूँ 

  फिर भी शोलाबार ।

  और एक शाने - खुदाबंदी से बेरोकटोक

  मैं इस खंडहर में हूँ विजय की तरह महमन्त ।

  मेरी ज़ुबान का हर कौल आग और अमल

  कि मेरा सीना है अब, विधाता का सीना । " 

--- कार्ल मार्क्स 

    ( छात्र जीवन में लिखी गई एक कविता का एक अंश )


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