Tuesday, January 05, 2021

रूढ़ियों और सड़ी-गली संस्थाओं-रीतियों के विरुद्ध...


रूढ़ियों और सड़ी-गली संस्थाओं-रीतियों के विरुद्ध तृणमूल स्तर से अगर कोई जुझारू सामाजिक आन्दोलन नहीं संगठित किया जायेगा, तो सर्वहारा क्रान्ति का लक्ष्य हमेशा दूर बना रहेगा। आर्थिक और राजनीतिक मोर्चे के संघर्षों के साथ इस मोर्चे पर हमें साहसिक ढंग से काम करना होगा, विशेष तौर पर जाति-व्यवस्था,  मर्दवाद और धार्मिक रूढ़ियों एवं कट्टरता पर सामने से हमला बोलना होगा। 

अतीत में कम्युनिस्ट आन्दोलन ने इस काम पर यथेष्ठ ध्यान नहीं दिया। बाद में जिन संशोधनवादी पार्टियों को जनता कम्युनिस्ट समझती थी, उनसे जुड़े लोग खुद ही निजी जीवन में जाति, पुरुष-स्वामित्व और धार्मिक रूढ़ियों से समझौता करके जीते थे। कई बार चुनावी राजनीति में भी उन्हें जाति समीकरणों का सहारा लेने से परहेज़ नहीं होता था। इस कारण से दलित और पिछड़े ग़रीब कम्युनिस्ट आन्दोलन से दूर होते गये और उनकी जगह 'प्रैग्मेटिज़्म'और 'आइडेण्टिटी पालिटिक्स' करने वाली तरह-तरह की जातिवादी पार्टियाँ लेती चलीं गईं।

पहचान-राजनीति करने वाली ये सभी पार्टियाँ घोर संविधानवादी हैं, बुर्जुआ संविधान को "पवित्र पुस्तक" मानती हैं और क़ानूनी दायरे में भी जुझारू आन्दोलनों की नीयत और क़ूव्वत नहीं रखतीं। जब ये दलित और पिछड़े ग़रीबों को जातिगत पहचान पर गोलबंद करती हैं तो प्रतिक्रियास्वरूप  "उच्च" जातियों के समृद्ध अपनी  जाति के गरीबों को भी जातिगत आधार पर अपने साथ गोलबंद कर लेते हैं। इसतरह दोनों पक्षों के गरीब मेहनतकशों की वर्गीय चेतना कुण्ठित हो जाती है, स्थिति वर्गीय लामबंदी के प्रतिकूल हो जाती है, गरीब ही गरीब के ख़िलाफ़ खड़ा हो जाता है और शासक वर्गों और इस व्यवस्था के सामाजिक आधार को और बल मिल जाता है ।

इसके लिए ज़रूरी है कि दलित और पिछड़े ग़रीबों को वर्ग आधार पर संगठित करने के साथ ही पूरी ताक़त लगाकर सवर्ण ग़रीबों के रूढ़िवादी जाति-संस्कारों के विरुद्ध संघर्ष किया जाये और उन्हें वर्ग चेतना से लैस किया जाये।

गत कुछ वर्षों से  हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, महाराष्ट्र और बिहार में 'अखिल भारतीय जाति-उन्मूलन मंच' के बैनर तले हमलोग इन्हीं उद्देश्यों से एक जाति-विरोधी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं । जल्दी ही कुछ और राज्यों में भी मंच के कामों का प्रभावी विस्तार आपको देखने को मिलेगा। मंच दलित -उत्पीड़न की घटनाओं के विरोध में जुझारू सक्रिय भूमिका निभाता है, जातितोड़क सामूहिक भोजभात का आयोजन करता है, अंतर्जातीय- अंतर्धार्मिक पाखण्ड विहीन विवाहों का प्रचार और आयोजन करता है तथा लगातार जातिविरोधी प्रचार कार्य चलाता है।

अंत में एक बात और। कोई भी सुधार कार्य या सुधार आंदोलन अगर इस व्यवस्था की चौहद्दी में क़ैद रहता है तो वह सुधारवाद (जैसे एन जी ओ सुधारवाद) हो जाता है जो अपने घोषित लक्ष्य को तो बहुत कम पूरा करता है, लेकिन शासकवर्ग की 'हेजेमनी' और व्यवस्था के सामाजिक आधार को मजबूत करने का काम प्रभावी ढंग से करता है। इसके उलट, वह अगर क्रान्तिकारी बदलाव की किसी परियोजना का 'आरगेनिक' अंग होता है तो जनसमुदाय में क्रान्तिकारी विचारों की 'अथारिटी' को स्थापित करने और क्रान्ति के सामाजिक अवलंबों के विकास और विस्तार का काम करता है।

(5 Jan 2021)


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