Monday, September 14, 2020



जो पूँजीवाद को उसकी आर्थिक-सामाजिक समग्रता में नहीं समझ पाता और वर्ग संघर्ष के विश्व-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से अपरिचित होता है, वह व्यक्ति जनता के अलग-अलग उत्पीड़ित हिस्सों के संघर्षों को असंबद्थ और पृथक रूप में देखता है, वह वर्ग संघर्ष के मूल योजक-सूत्र को नहीं देख पाता, वह सतह के यथार्थ को ही सारभूत यथार्थ मानकर केन्द्रीय अन्तरविरोध को नहीं देख पाता। इससे शासकवर्ग और उसकी केन्द्रीकृत राज्य सत्ता के विरुद्ध जनता के सभी शोषित-उत्पीड़ित हिस्सों का संघर्ष एकजुट होने की जगह खण्ड-खण्ड विभाजित हो जाता है और इसी व्यवस्था की चौहद्दी में क़ैद होकर रह जाता है। कई बार इस सोच के चलते उत्पीड़ित लोगों के ही अलग-अलग हिस्से एक किस्म की मिथ्या चेतना के शिकार  होकर आपस में ही लड़ते रह जाते हैं । पहचान की राजनीति (Identity Politics) मूलतः इसी मिथ्या चेतना को वैचारिक आधार देती है और तर्क मुहैय्या कराती है । इस वैचारिकी का जन्म स्थल अमेरिकी एकेडमिया है और दुनिया के पिछड़े देशों में इसे मुख्य तौर पर एन जी ओ नेटवर्क और उनसे जुड़े सोशल डेमोक्रैट और सुधारवादी- उदारवादी बौद्धिकों की नयी नस्ल द्वारा फैलाया गया है।

(14 sep.2020)

 

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