Monday, September 07, 2020


अब इसका क्या किया जाए कि लोग सवाल उठाने, असहमति जाहिर करने और बहस या आलोचना करने को ही अशिष्टता, उद्दंडता या बत्तमीजी मान लेते हैं और कड़ाही में से ताज़ा-ताज़ा निकले भठूरे जैसा गाल फुला लेते हैं ! 

बहुत से मान्यवर और मान्यवरा हैं जो यूँ तो जनवादी अधिकार के संघर्ष के मान्यता-प्राप्त कमाण्डर होते हैं, लेकिन उनका खुद का व्यवहार इतना गैर-जनवादी होता है कि मतभेद या आलोचना की बात आते ही पिनपिना और फनफना जाते हैं ! और आपसे सिर्फ़ कट्टी ही नहीं कर लेते, बल्कि आपके ख़िलाफ़ बड़ी कुशलतापूर्वक गोलबंदी भी करने लगते हैं !

और हाँ, कुछ ऐसे भी होते हैं जो हर महफ़िल में बैठकर हाँ में हाँ मिलाते हैं, और "आवश्यकतानुसार" बातें इधर की उधर भी किया करते हैं ! 

दोष ऐसे लोगों का नहीं है ! भारतीय समाज के ताना-बाना में ही जनवादी तत्वों का नितांत अभाव है ! इसके ऐतिहासिक कारण हैं जो अलग से विमर्श का विषय हो सकते हैं ! हमारे संस्कारों में ही एक किस्म की कुंठित निरंकुशता बसी हुई है !  जो सबसे अधिक दोस्ती, जनवाद, पारदर्शिता आदि की नसीहतें देते हैं, वे प्रायः सबसे अधिक पूर्वाग्रही, मतलबी, स्वेच्छाचारी, नौटंकीबाज़ और अपारदर्शी पाए जाते हैं ! 

भारत का मध्यवर्गीय बौद्धिक समाज ज्ञान-शत्रु, कूपमंडूक और अतार्किक तो है ही, वह पाखंडी, अपारदर्शी, खुडपेंची, चुगलखोर, गुटबाज़ और षडयंत्रकारी मिजाज़ का भी होता है !

मज़दूर वर्ग के संघर्षों में लगे लोगों का साथ यह अपनी शर्तों पर देना चाहता है, उनके जनवादी अधिकारों के संघर्षों में साथ देने के लिए अपनी उदारवादी-सुधारवादी  राजनीतिक सोच को स्वीकार करवाना चाहता है ! आश्चर्य नहीं कि ऐसे लोगों में से ज़्यादातर या तो एन जी ओ की राजनीति शीर्ष स्तर पर करते हैं (या करते रहे हैं), या ऐसे ही लोगों के साथ उनकी सोशल डेमोक्रेटिक राजनीति के नट-बोल्ट ठीक से फिट होते हैं !

(7सितम्‍बर, 2020)

***************************



कल मैंने दो पोस्ट डालकर उत्तराखंड में एक "वाम" मुखौटा धारी संस्कृतिकर्मी, पत्रकार के स्त्री उत्पीड़क कुकर्मों के बारे में लिखा था । समस्या यह है कि विक्टिम अपनी पहचान बताते हुए भी निजी-पारिवारिक कारणों से उस व्यक्ति का नाम नहीं ले रही हैं , हालांकि उत्तराखंड में तो अधिकांश के सामने उसकी पहचान जाहिर सी है । स्पष्ट कर दूँ कि मेरे लिए स्त्री उत्पीड़न का कोई भी मसला आवाज़ उठाने और विरोध प्रकट करने का एक उसूली सवाल है जब एक स्त्री सामने आकर कह रही है कि उसके साथ ऐसा हुआ । अब अगर वह अपराधी का नाम अभी खुले तौर पर नहीं ले रही है तो मैं वह लक्ष्मणरेखा नहीं लांघ सकती । फिर भी मैंने इस मसले को उठाया क्योंकि मेरा मानना है कि ऐसे मामलों पर बैठकों में खुसफुसाहटों की जगह खुलकर बात होनी चाहिए, सभ्य-सुसंस्कृत समाज में भी व्याप्त स्त्री उत्पीड़क प्रवृत्तियों की बेलागलपेट शिनाख़्त और चर्चा होनी चाहिए । जाहिर है, वह  उद्देश्य एक हद तक पूरा हुआ । बात जिनके बीच पहुँचनी थी, पहुँच भी गई। अब मेरी पोस्ट पर लोकल उखाड़-पछाड़ की राजनीति करने वाले पधारकर अपना हिसाब-किताब निपटा रहे हैं, निहित स्वार्थ वश कुतर्क और स्तरहीन बातें कर रहे हैं, परोक्षरूप में अपराधी के पक्ष में खड़े होकर हमारे सवाल उठाने पर ही सवाल उठा रहे हैं । इस स्टैण्डर्ड के लोगों से गैर-मुद्दों पर बहस में उतरना हमारा मक़सद कभी नहीं हो सकता । हमारा प्रयोजन सिद्ध हो चुका है । अब मैं अपनी कल की पोस्ट हटा रही हूँ। लेकिन मैं इंतज़ार करूँगी कि  कोई विक्टिम सामने आकर खुले तौर पर उस अपराधी शख़्स का नाम ले। फिर हम संघर्ष में हर तरह से जमकर उसका साथ देंगे ।

(9सितम्‍बर, 2020)

No comments:

Post a Comment