भोजपुरी क्षेत्र के लोग 'दाढ़ीजार' शब्द से भली-भाँति परिचित होंगे ! गाँवों में स्त्रियाँ जब किसी पुरुष से बहुत नाराज़ होती हैं तो उसे 'दाढ़ीजार' कहकर गरियाती हैं I दाढ़ीजार मतलब जिसकी दाढ़ी जला दी गयी हो, या जिसके कुकर्म ऐसे हों कि उसकी दाढ़ी में आग लगा दी जाए ! इसी गाली का 'एक्सटेंशन' है,'दहिजरा के पूत'! यानी जिसके बाप की दाढ़ी जला दी गयी हो I
दाढ़ीजार का समानार्थक एक और शब्द् है,'मुँहझौंसा' यानी जिसका मुँह झुलस (भोजपुरी में 'झंउस') दिया गया हो !
चलिए, अब आपको 'दाढ़ीजार' शब्द की उत्पत्ति का किस्सा सुनाते हैं !
किसी गाँव में एक बेहद लम्पट-निखट्टू किस्म का व्यक्ति रहता था I पराई स्त्रियों पर कुदृष्टि रखता था, दिन में उठाईगीरी करता था और रात में सेंधमारी I गाँव वालों ने कई बार उसे दुराचार की कोशिश करते हुए या चोरी-उठाईगीरी करते हुए रंगेहाथों पकड़ा था और खूब कुटम्मस भी की थी I फिर उसे यह आख़िरी चेतावनी दी गयी कि अगर वह अपनी आदतों से बाज नहीं आयेगा तो उसे गाँव से निकाल दिया जाएगा !
चिंतित उस चोर-लम्पट ने सोचा कि अब क्या करें ! अगले दिन लोगों ने पाया कि वह गाँव से खुद ही गायब हो गया है I पूरे दो साल बाद वह दाढ़ी और जटा-जूट बढाए हुए, गेरुआ वस्त्र पहने, चिमटा-कमंडल लिए गाँव में वापस लौटा I पूरे गाँव में शोर मच गया और लोग उसे देखने के लिए इकट्ठा हो गए I उस व्यक्ति ने लोगों को बताया कि सपने में आकर देवाधिदेव महादेव ने उसे संन्यास लेने और हिमालय में जाकर तपस्या करने का निर्देश दिया था और कहा था कि,'मेरा जन्म जन-कल्याण के लिए हुआ है, अतः मुझे अपनी भटकन से मुक्ति पाकर सन्मार्ग पर आना होगा, तपस्या करके सारे पाप धोने होंगे और फिर संन्यासी बनकर लोगों की सेवा करनी होगी, उन्हें मुक्ति का मार्ग दिखाना होगा!'
भोले-भाले गाँव वालों ने उसके कहने पर सहज ही विश्वास कर लिया I गाँव के तालाब के पास आश्रम बनाकर उस आदमी ने अपना आसन जमाया I कभी वह पूजा-पाठ करता दीखता था तो कभी मोरों और बत्तखों को चारा चुगाते हुए ! हर शनिवार को रात आठ बजे उसका विशेष प्रवचन होता था, जिसे सुनने दूर-दूर से लोग आते थे I
कुछ ही दिनों में 8-10 और संन्यासी उसके आश्रम में आ गए I अपना परिचय उन्होंने हरिद्वार से आये 'स्वामीजी' के शिष्यों के रूप में दिया I आश्रम में आसपास के गाँवों से भी काफी चढ़ावा आने लगा I लेकिन लोगों ने गौर किया कि इधर रात-बिरात राहजनी और सेंधमारी की घटनाएँ भी लगातार बढ़ती जा रही थीं I फिर एक दिन विस्फोट हुआ ! गाँव की एक स्त्री ने बताया कि आश्रम में इलाज या पुत्र-प्राप्ति के अनुष्ठान के लिए जिन स्त्रियों को कुछ दिनों के लिए रोका जाता है, रात में उन्हें दवा के नाम पर नशीली चीज़ खिलाकर उनके साथ दुराचार किया जाता है I भेद इसलिए खुला कि उस स्त्री ने कुछ शक़ हो जाने के कारण दवा नहीं खाई थी और ऐन मौक़े पर खुद को छुडाकर वहाँ से भाग निकली थी I फिर क्या था ! गाँव वालों ने उस लम्पट को चेलों सहित दौड़ाकर पकड़ा और गाँव के चौपाल में लाकर रस्सों से बाँधकर खूब सेवा की I तब यह भी भेद खुला कि आसपास जितनी भी चोरी-रहजनी हो रही थी, उसमें भी इसी गिरोह का हाथ था I
फिर गाँव की स्त्रियों ने इकट्ठा होकर उस लम्पट-चोर और उसके चेलों की दाढ़ी में आग लगा दिया I उसके बाद गधों पर बैठाकर जुलूस निकालने के बाद पूरी मंडली को इलाके से खदेड़ दिया गया I
तभी से 'दाढ़ीजार' शब्द गाँव में चोरों-लम्पटों के लिए गाली के रूप में इस्तेमाल होने लगा I कालान्तर में उसका चलन बढ़ते हुए दूर-दूर तक फ़ैल गया !
कहानी से शिक्षा -- अगर कोई चोर-लम्पट-ठग-बटमार दाढ़ी बढ़ाकर संन्यासी जैसा भेस-बाना बनाकर लोगों की आँख में धूल झोंके तो लोगों को उसकी दाढ़ी में आग लगा देना चाहिए और उसे इलाके से खदेड़ देना चाहिए I
(डिसक्लेमर : इस कहानी में आज के राजनीतिक परिदृश्य और किसी भी राजनीतिक व्यक्ति का रूपक नहीं प्रस्तुत किया गया है I इसलिए कृपया बात का बतंगड़ न करें !)
(17sep.2020)
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