... जहाँ प्रेम है वहाँ विश्वास भी होना चाहिए...
... जो आदमी किसी विचार में विश्वास करता है और जीवित है वह यदि स्वयं अपने विचार को तिलांजलि नहीं दे देता, तो वह बेकार नहीं हो सकता। केवल मृत्यु ही, जब भी वह आये, उसे बेकार बना सकेगी। किन्तु जबतक जीवन की धीमी-सी प्रकाश-रेखा मेरे अन्दर मौजूद है और विचार स्वयं जीवित है, तबतक मैं ज़मीन खोदूँगा, कठिन से कठिन कार्य करूँगा, जो कुछ भी दे सकता हूँ देता रहूँगा। यह विचार ढाँढस देता है, यन्त्रणाओं को सहने की सामर्थ्य प्रदान करता है। आदमी को अपना कर्तव्य करना चाहिए, अपने मार्ग पर अन्त तक डटा रहना चाहिए। और तब यदि आँखें दुनिया के सौन्दर्य को देखना बन्द कर दें और अन्धी हो जायें तब भी आत्मा में इस सौन्दर्य की अनुभूति भरी रहती है और वह उसकी उपासक बनी रहती है। अन्धेपन की यन्त्रणा ज़रूर बनी रहती है, किन्तु इस यन्त्रणा से भी ऊपर कुछ होता है -- वह है जीवन और जनता में आस्था, तथा आज़ादी, और अपने सतत कर्त्तव्य की चेतना...
-- फेलिक्स ज़र्जिस्न्की (जेल से पत्नी के नाम पत्र, 6 जनवरी, 1914)
(ज़र्जिन्स्की बोल्शेविक पार्टी के एक शीर्ष नेता और लेनिन तथा स्तालिन के अनन्य सहयोगी थे। ज़ारशाही के जेलों में लम्बे समय तक यातना झेली। क्रांति के बाद वे 'चेका' के स्थायी अध्यक्ष थे, जो क्रांति विरोधी कार्रवाईयों में लिप्त प्रतिक्रांतिकारियों को कुचलने के साथ ही क्रांति और गृहयुद्ध के दौरान यतीम हुए बच्चों की देखरेख भी करती थी)
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यह सच है कि हमारी संस्कृति इस समय अँधियारे के बीच से गुज़र रही है, परन्तु इतिहास-दर्शन के ऊपर यह दायित्व है कि वह इस बात का निर्णय ले कि जो अँधियारा इस समय छाया हुआ है वह हमारी संस्कृति की, और हमारी अन्तिम नियति है, अथवा भले हम तथा हमारी संस्कृति एक लम्बी, अँधेरी सुरंग के बीच से गुज़र रहे हों, अन्तत: हम उससे बाहर आयेंगे और प्रकाश के साथ हमारा साक्षात्कार एक बार फिर होगा। बुर्जुआ सौन्दर्यशास्त्रियों का विचार है कि इस अँधियारे के चंगुल से उबरने का कोई भी रास्ता शेष नहीं बचा, जबकि मार्क्सवादी इतिहास-दर्शन मनुष्यता के विकास की व्यवस्था के क्रम में हमें यह निष्कर्ष देता है कि ऐसा हो ही नहीं सकता कि मनुष्य की यह विकासयात्रा निरुद्देश्यता या निरर्थकता में ही समाप्त हो जाये। वह एक निश्िचत, सार्थक गन्तव्य तक अवश्य पहुँचेगी।
-- जार्ज लुकाच (स्टडीज़ इन यूरोपियन रियलिज्म)
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