डायरी का एक पन्ना
ज़िन्दगी के बीहड़ चढ़ावों-उतारों से गुज़रते हुए अक्सर कुछ प्रिय लोग, कुछ प्रिय चीज़ें पीछे छूट जाती हैं, या कहीं खो जाती हैं ! उन्हें लम्बे समय तक फिर से पा लेने की कोशिश का, या उन्हींकी स्मृतियों में डूबे रहने का कोई मतलब नहीं होता क्योंकि आपके पास असीमित समय नहीं होता और एक असंभव सी कोशिश में कई बार आप नए लोगों, नयी चीज़ों और नए परिवेश के सान्निध्य-सुख से, कुछ और अनूठे अनुभवों से वंचित रह जाते हैं !
पुरानी चीज़ें, पुराना प्यार और पुराने लोग अगर किसी मोड़-मुकाम पर आपको फिर से मिल भी जाएँ तो वे वैसे ही नहीं होते जैसेकि पहले थे ! लाख कोशिशों के बावजूद कहीं कोई गर्मी का संचार नहीं हो पाता, बस एक अजनबियत माहौल में थरथराती-काँपती रहती है !
बहुत पहले, मेरे होश सम्हालने से पहले, एक चलताऊ-सी फिल्म आयी थी, 'आपकी कसम', बस यूँ ही सी थी, कोई ख़ास बात नहीं थी ! पर उसके एक गीत की बस एक पंक्ति (एक पंक्ति ही, पूरा गीत नहीं) एक टीस की तरह याद आती है,"ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते !"
कई बार मैंने पाया है कि अक्सर बहुत पुराने दोस्त कहीं किसी महफ़िल में इकट्ठा होते हैं ! वे जीतोड़ कोशिश करके पुराने दिनों को फिर से जी लेना चाहते हैं, पुरानी दिलचस्प घटनाएँ याद करते हैं, नौजवानी के दिनों के रूमानी गाने गाते हैं, पुराने चुटकुले सुनाते हैं और फिर थककर थोड़ा और बूढ़े लगने लगते हैं ! बूढ़े लोग अक्सर युवा दिनों की याद में जीने की संजीवनी ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं और उनकी विफलता उन्हें मृत्यु के और निकट पहुँचा देती है ! ऐसी महफ़िलों में बस दारू वह अमृतदायिनी सुधा-वर्षण करती है कि लोग थोड़ा भावुक और तरोताज़ा होने की 'मिथ्या-चेतना' में जी लेते हैं I
बुर्जुआ समाज में जीते हुए चीज़ों को, रिश्तों को, भावनाओं को बोरिंग और रीपीटिटिव होने से बचा पाना कभी-कभी बहुत काव्यात्मक-वैचारिक गहराई वाले लोगों के लिए भी असंभवप्राय हो जाता है ! भारत में शायद युगों-युगों से संस्कारों के पोर-पोर में बैठा यह पूर्वाग्रह भी काम करता रहता है कि जो भी अच्छी दोस्ती या प्यार के रिश्ते बनते हैं वे जीवन भर के लिए होते हैं, या उन्हें ऐसा होना ही चाहिए ! रिश्तों के अमरत्व की चिंता में अक्सर हम उन्हें तसल्ली, चैन और गहराई से जी भी नहीं पाते ! भारतीय मन आज की खुशी सहेज लेने से ज्यादा हमेशा कल को लेकर चिंतित रहता है I ऐसे समाज में नए के संधान की उद्विग्नता तो अपने आप ही कम हो जायेगी !
मैंने बहुतेरे लोगों को देखा है जो जीवन में मित्रता का एक रिश्ता उदात्तता और कुर्बानी के जज्बे के साथ नहीं निभा सके, पर अब बुढ़ापे के निचाट अरण्य में भटकते हुए अतीत की मित्रताओं की, मित्रों की और मित्रता की अमूल्य मानवीय भावना की बहुत चर्चा करते हैं ! सारतः ये अपने अकेलेपन से भयभीत वे शुष्कह्रदय लोग होते हैं, जो 'ऑटो-सजेस्टिव' तरीके से स्वयं को यकीन दिलाते हैं कि वे अकेले नहीं पड़े हैं, पहले भी उनके पास मित्रता की संपदा थी और आज भी वह संपदा अक्षुण्ण है ! कई बार यह भी होता है कि मृत्यु की दहलीज़ पर खड़े, सुविधाजनक और सुरक्षित जीवन जीने वाले दो या दो से अधिक बूढ़े-बुज़ुर्ग एक-दूसरे के साथ मिलकर मित्रता की भावना में जीने की एक फंतासी रचते हैं और उस फंतासी में घूमते-टहलते अपनी अजनबियत और अकेलापन का बोझ थोड़ा हल्का कर लिया करते हैं !
मुझे तो लगता है कि बुर्जुआ समाज में प्यार और दोस्ती एक विरल और दुर्लभ चीज़ है ! दो लोगों का यदि कोई साझा सामाजिक-ऐतिहासिक जीवन-लक्ष्य हो जो उदात्त मानवीय आदर्शों से युक्त हो और जिसके लिए वे दोनों लोग पागलों की तरह कुछ भी कर गुज़रने को तैयार हों, तभी एक बुर्जुआ समाज में जीते हुए उनके बीच सच्चे प्यार या दोस्ती का रिश्ता बन सकता है ! इस मूल बात के साथ यह भी ज़रूरी है कि दोनों के बीच स्वभाव की भिन्नताओं के बावजूद, दार्शनिक-वैज्ञानिक और काव्यात्मक 'टेम्परामेंट' की काफी हद तक समानता हो ! इसके अतिरिक्त औसत 'गृहस्थ-चेतना' के दुनियादार टाइप बुर्जुआ नागरिकों में जो भी प्यार, दोस्ती या निकटता दिखाई देती है, वह या तो एक अल्पकालिक रिश्ता है, या मतलब का सौदा है, या उनकी 'मिथ्या-चेतना' है, यानी जीने के सहारे के तौर पर रचा गया मिथ्याभास है !
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(यह मेरी डायरी का पन्ना है, पर मेरे भावी उपन्यास में यह जेल में बंद मर रही एक बूढ़ी क्रांतिकारी संगठनकर्ता और लेखिका एक लम्बे स्वगत (या एकालाप) टाइप संवाद के बीच बोलेगी, जब उसके बेड के पास एक नर्स और एक युवा राजनीतिक स्त्री बंदी मौजूद होंगी !)
(20मई, 2020)
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