Wednesday, May 06, 2020

क्या आपको कभी तबीयत से गालियाँ बकने को जी नहीं चाहता ?


एक दुविधा अक्सर सताती रहती है I गाँव की पृष्ठभूमि वाली मज़दूर स्त्रियों से जब बातचीत होती है तो उनकी सहज अभिव्यक्तियों में जो रूपक और बिम्ब होते हैं, फुर्सत के समय में उनके जो हँसी-मज़ाक होते हैं, वे कभी-कभी बेहद अश्लील होते हैं ! वैसी भाषा और अभिव्यक्तियाँ हम सुनने के भी आदी नहीं होते ! या उनके जो आख्यान होते हैं, उनमें भी बेहद अश्लीलता होती है, काफ़ी 'ग्राफ़िक डीटेल्स' होते हैं !

उनकी ऐसी बातों में अक्सर मर्दवादी 'जेंडर बॉयस' भी होता है जो उनके मुँह से झर-झर झरती गालियों में भी होता है ! एकाध बार समझाने के बाद मुझे लगा कि यही उनकी नैसर्गिक अभिव्यक्तियाँ हैं, इनके बिना वे अपनी बात पूरे वज़न के साथ रख ही नहीं पातीं ! और उनके 'जेंडर बॉयस' का तो उन्हें कोई अहसास ही नहीं होता ! सबसे दबंग औरतें जोश में आते ही सबसे मरदाना गालियों के साथ बात करने लगती हैं आपस में, हमलोगों के सामने तो फिर भी थोड़ा संकोच-लिहाज करती हैं ! उनकी बातें सुनते-सुनते कभी-कभी तो हमलोगों को भी जमकर, तबीयत से गालियाँ बकने को जी चाहता है ताकि दिल थोड़ा हल्का हो जाये और थोड़ी ताज़गी आ जाये !

लेकिन महत्वपूर्ण बात जो मैंने नोटिस की, वह यह कि उनके अश्लील रूपकों-बिम्बों में जितनी प्रभावी अभिव्यक्ति हुआ करती है, उनकी व्यंजनाओं और लक्षणाओं में, उनके गँवई मुहावरों और लोकोक्तियों में जो ताक़त होती है, वह तो कई बार कालिदास और भवभूति को भी मात कर देती है ! हम शरीफ़ाना जुबान में वह बात उतने प्रभावी ढंग से कभी नहीं कह पाते ! और जिस भाषा में मज़दूर स्त्रियाँ वह बात कहती हैं, उस भाषा में लिखा नहीं जा सकता ! ऐसा लगता है कि हिन्दी भाषा का जैसा विकास हुआ है उसमें बोलियों और लोक-भाषाओं का वह मुँहफटपन और बेलागलपेटपन नहीं है और यौनिक मामलों में बहुत संकोच बरतते हुए बोलने की संस्कृति है ! अंग्रेज़ी के साथ ऐसा नहीं है ! वहाँ एक विद्वान भी बेलागलपेट उस भाषा में बात करता है जो हूबहू अनुवाद कर देने पर हिन्दी में फूहड़ गाली बन जाती है ! इसका एक कारण तो यह है कि यूरोपीय समाज में मध्य वर्ग का ऐतिहासिक तौर पर उत्पादक वर्गों से अधिक जैविक जुडाव रहा है और वहाँ के सामाजिक ताना-बाना में जनवादी मूल्य काफी रचे-बुने हैं ! इसीके समान्तर वहाँ की भाषाएँ अपने उद्गम की बोलियों और लोक-भाषाओं से गहराई से जुड़ी हुई हैं (हालाँकि शास्त्रीय उद्गमों से भी उतनी ही जुड़ी हुई हैं) ! भारत में लगानजीवी, सवर्ण परजीवियों के बीच से जिस मध्य वर्ग और बौद्धिक तबके का विकास हुआ वह उत्पादक मेहनतक़श वर्गों से एकदम सामाजिक पार्थक्य में जीता था I उसमें ब्राह्मणीय शास्त्रीयता के प्रति रुझान तो थी ही, एक ओढी गयी, पाखंडपूर्ण 'विक्टोरियन नैतिकता' और आचार शास्त्र का भी वह स्वामिभक्ति से पालन करता था ! इस विकृत आभिजात्य ने , जाहिर है कि चिंतन के साथ भाषा के मिजाज़ को भी प्रभावित किया तथा शब्द-भण्डार और अभिव्यक्ति-रूपों में हिन्दी ने पूरी कथित हिन्दी-पट्टी की बोलियों, लोक-भाषाओं, वर्ग-उपभाषाओं, इलाकाई उपभाषाओं, नृजातीय उपभाषाओं आदि (डायलेक्ट, लिंगो, वर्नाकुलर, जोर्गन, एथनिक डायलेक्ट आदि) से उतना नहीं लिया जितना मिसाल के तौर पर, यूरोपीय भाषाओं ने लिया !

शायद, उत्तर मध्यकाल से लेकर उपनिवेशीकरण के शुरुआती दौरों तक भारत में जो लोक-एकेश्वरवादी भक्ति आन्दोलन और जाति व धार्मिक रूढ़ि-विरोधी सामाजिक आन्दोलन चल रहे थे, वे अपनी नैसर्गिक गति से चलते रहते, उन्हें अपनी तार्किक परिणति तक पहुँचने का अवसर मिलता , और उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया उनका गला नहीं घोंट देती तो भारतीय समाज और संस्कृति के साथ भाषाओं के भविष्य पर, विशेषकर हिन्दी भाषा की निर्मिति और प्रकृति पर, इसका महत्वपूर्ण सकारात्मक प्रभाव पड़ता ! तब शायद एक ख़ास प्रकार की बनावटी पंडिताऊ हिन्दी की वह शैली अस्तित्व में नहीं आती जो स्वस्थ अर्थों में शास्त्रीयता से अनुप्राणित भी नहीं है ! एक स्वस्थ भाषा जो दार्शनिक-वैचारिक-वैज्ञानिक विमर्श की सटीकता और अमूर्तन की गहराइयों में जाती है और दूसरी ओर एक औसत चेतना के आम नागरिक से जीवन के विविध मुद्दों पर सरस-सहज संवाद करती है, वह जितना लोक से लेती है, उतना ही शास्त्र से भी लेती है ! वह इन दोनों में से किसी की भी उपेक्षा नहीं कर सकती ! भाषा की ऐतिहासिक निर्मिति में समाज-विशेष की वर्गीय संरचना और बौद्धिक मानस की निर्मिति परावर्तित होती है और भाषा का इतिहास समाज के इतिहास से अविच्छिन्न होता है !

इतनी ऐतिहासिक त्रासदियों और विकृतियों के बावजूद, उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत के विशाल भूभाग की सत्तर-अस्सी बोलियों, लोक-भाषाओं और सहोदरा भाषाओं से जीवंत आदान-प्रदान के चलते, संस्कृत की शास्त्रीयता से एक जैविक सम्बन्ध के चलते तथा ऐतिहासिक विकास के क्रम में अरबी और फारसी से भी सुदीर्घ संबंधों के चलते, दार्शनिक-वैचारिक-वैज्ञानिक अमूर्तन और अभिव्यक्ति की सटीकता की दृष्टि से हिन्दी अपार संभावना-संपन्न भाषा है, तथा साथ ही, सहज सम्प्रेषणीय लोकपरक शैलियों में भी लेखन की इसमें अनंत संभावनाएं हैं ! इस भाषा-समृद्धि की ओर राहुल और सुनीति कुमार चाटुर्ज्या जैसे दर्ज़नों भाषाविद तथा राष्ट्रीय आन्दोलन के कई गैर-हिन्दीभाषी नेता बार-बार इंगित कर चुके हैं ! हिन्दी का सर्वाधिक नुक्सान गधे नौकरशाहों द्वारा गढ़ी गयी प्रशासकीय हिन्दी ने किया है ! दूसरे नंबर पर हिन्दी भाषा और साहित्य के पाठ्यक्रमों की पढाई आती है, जो नीरस बेजान, अवैज्ञानिक और मूर्खतापूर्ण होते-होते, विगत करीब 50 वर्षों के दौरान पतन के रसातल तक जा पहुँची है ! इसी विडम्बना के चलते, विज्ञान और दर्शन में अध्ययन, चिंतन और अभिव्यक्ति का माध्यम आज भी अंग्रेज़ी बनी हुई है और हिन्दी पट्टी का बौद्धिक तबका बिना झेंपे-शर्माए या चिंतित हुए इस यथास्थिति को स्वीकार किये हुए है ! स्वातंत्र्योत्तर भारत के कुलीन वर्गों के लिए अंग्रेज़ी आज भी स्टेटस सिंबल है, औए इसने भी हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं की स्थिति को प्रभावित किया है ! जनता की भाषा और साहित्य-संस्कृति की प्रगति जनता के मुक्ति-संघर्षों से जुड़ी होती है ! भाषा-साहित्य की प्रगति जन-समुदाय के द्वारा होती है न कि सत्ता-तंत्र के द्वारा !

(6मई, 2020)

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