बरसों पुरानी बात है ! मैं नैनीताल के पास के एक कस्बेनुमा गाँव में रहती थी I मेरे बगल में एक सुखी परिवार रहता था I एक पंडीजी थे, कुमाऊँनी ब्राह्मणों की अंदरूनी ऊँच-नीच की व्यवस्था में 'ऊँची धोती वाले' थे, यानी निम्न कोटि के ब्राह्मण थे, खेती-बाड़ी करने वाले I थोड़े से खेत थे, कुछ पेड़ सेब, आडू और खूबानी के थे, तीन आज्ञाकारी भेड़ टाइप बेटे और एक गऊ टाइप पत्नी थी I पंडीजी डाकिये का काम भी करते थे I फिर बाग़ में और सब्ज़ी के खेत में कुछ करते रहते थे I बीच-बीच में आसपास से गुजरने वाले लोगों के अभिवादन का जवाब देते थे I पत्नी को कोई सामान, जैसे खुरपी, कुदाल या झोला लाने के लिए आवाज़ देते थे I बच्चों से मैंने बहुत कम ही संवाद होते देखा था I कभी अभी उनसे मद्धम आवाज़ में कुछ कहते थे, बेटे सिर झुकाकर सुनते थे और तत्क्षण आज्ञापालन में लग जाते थे I बड़े बेटे ने लबे-सड़क एक चाय का ढाबा खोल लिया था जिसपर घरेलू ज़रूरत की ज्यादातर चीज़ें भी मिल जाती थीं I उससे छोटा पास के एक प्राइवेट स्कूल में क्लर्क लग गया I छोटा वाला नैनीताल पढ़ने जाता था ! ग्रेजुएशन कर रहा था और बैंक और रेलवे के क्लेरिकल नौकरियों के लिए तैयारी कर रहा था I
मेरे लिए सबसे दिलचस्प बात यह थी कि इस परिवार में किसी भी सदस्य को मैंने कभी भी किसी व्यक्ति से या ज़िंदगी के हालात से असंतुष्ट नहीं देखा I कभी आपस में भी किसी को किसी से तेज़ आवाज़ में बात करते नहीं सूना I घर के तीनों नौजवानों को भी कभी कोई सपना देखते, मंसूबा बाँधते नहीं देखा I सभी व्यावहारिकता और कूपमंडूकता के मूर्त रूप थे ! उतना ही सोचते थे, जितना हो पाना एकदम सुगमता से संभव होता था I उनमें से छोटा वाला कभी मेरे कमरे में आता था तो किताबों की आलमारियों को चकित होकर निहारा करता था I मैंने अपने पढ़ने-लिखने और कुछ सामाजिक काम करने के बारे में अलग-अलग समयों में परिवार के हर सदस्य को बताया, पर किसी को कुछ समझ न आया ! उनके लिए मैं एक परग्रहीय प्राणी ही थी जो चुपचाप अपने काम में लगे होने के कारण अहानिकर लगती थी, इसलिए वे निश्चिन्त रहते थे I
एक दिलचस्प बात मैंने यह भी देखी कि उस परिवार की पूजा-पाठ में भी कोई रुचि नहीं थी I बस सुबह नहा-धोकर दीवारों पर टंगे कैलेंडरों के देवताओं को प्रणाम कर लेते थे और कपाल पर टीका लगा लेते थे I होली के दिन शाम को बस अबीर का टीका लगा लेते थे I कसबे में चंचल-चित्त कस्बाई कन्याएँ भी थीं, पर उनमें भी किसी भाई को दिलचस्पी नहीं थी I घर में अखबार भी नहीं आता था I बड़े भाई की शादी के लिए प्रस्ताव भी आने लगे थे I पर उससे इसके बारे में भी जब मैंने पूछा तो यूँ जवाब दिया जैसे सब्ज़ी मसाले के पैकेट की कीमत बता रहा हो !
मैं कभी-कभी सोचती थी कि ये लोग ज़िंदा किसलिए हैं ? ये जीते ही क्यों हैं ? इनके सपने क्या हैं ? राजनीति और समाज की कोई भी चीज़ इनके दिमाग़ में उत्सुकता पैदा करती है या नहीं ? ये कभी दुखी, असंतुष्ट या क्रुद्ध होते भी हैं या नहीं ? क्या इनको कभी भी शरारत या शैतानी करने को मन नहीं करता होगा ? पंडीजी ने अपनी पत्नी को कभी प्रेम से देखकर कोई ठिठोली भी की होगी या नहीं ? आश्चर्य यह भी होता था कि पंडित-पंडितानी ने तीन बच्चे किसप्रकार पैदा किये होंगे ?
मुझे लगता था कि यह एक अमरत्व का वरदान-प्राप्त परिवार है जो शायद मौर्य काल या गुप्त काल से यूँ ही जीता चला आ रहा है ! यह खुद तो कभी बूढा नहीं होगा, पर अच्छे-खासे जिंदादिल आदमी को भी मनहूसी और बोरियत का संक्रामक रोग लगाकर बूढा कर देगा I
उस परिवार से संपर्क के बाद मुझे शिद्दत से अहसास हुआ कि एकदम अपने-आप में रहने वाले, हर परिस्थिति में संतुष्ट रहने वाले, बस ज़िंदगी गुज़ार भर देने लायक छोटे-छोटे सपने देखने वाले और छोटी-छोटी एकदम अति-व्यावहारिक योजनाएँ बनाने वाले, मनहूस और कूपमंडूक टाइप लोग कितने भयानक होते हैं ! वे चेख़व के क्लर्कों से भी अलग किस्म के प्राणी होते हैं ! पता नहीं, चेख़व अगर भारत में भी पैदा हुए होते तो ऐसे किसी परिवार पर कोई कहानी लिख पाते या नहीं ! ऐसे लोग कितने डरावने होते हैं, यह वर्णन कर पाना भी सुगम नहीं है I जहाँ ज़िंदगी में कोई हरक़त नहीं, सपनों की कोई जुम्बिश नहीं, वहाँ कहानी कोई बनाएगा भी तो किस चीज़ से बनाएगा ?
(5मई, 2020)
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