मुझे वह कहानी तो नहीं याद है जो बचपन में दादी से सुनी थी, पर उसमें आने वाली तुकबंदी की कुछ पंक्तियाँ आज भी याद हैं जो हम बच्चे कोरस में दुहराते थे I कथा में इंसाफ़ करने वाला क़ाज़ी बेईमान और भ्रष्ट है और ज़ालिम बादशाह का खुशामदी है।
क़ाज़ी की सवारी जब शहर की सड़कों पर निकलती थी, तो बच्चे उसके पीछे-पीछे तालियाँ बजा-बजाकर चिल्लाते थे:
"क़ाज़ी तू तो निकला पाजी "
"हाँ जी हाँ जी हाँ जी हाँ जी "
"छोड़ अदालत बेचो भाजी "
"हाँ जी हाँ जी हाँ जी हाँ जी "
"सोना-चाँदी लेकर कुत्ता
"बनने को तू हो गया राजी"
"हाँ जी हाँ जी हाँ जी हाँ जी
"हाँ जी हाँ जी हाँ जी हाँ जी"
सोचती हूँ कि दीपक मिश्रा, गोगोई, बेवड़े, अरुण मिश्रा आदि न्यायमूर्तियों को अगर यह किस्सा सुनाने का मौक़ा न मिले तो कुछ बच्चों को यह तुकबंदी सिखा दी जाए जो उनकी गाड़ियों के पीछे ताली पीटते हुए इसे गाते हुए भागें !
(27मई, 2020)
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