Thursday, May 14, 2020


प्रधानमन्त्री का 'राष्‍ट्र' के नाम नया सम्‍बोधन : झूठ, जुमलेबाज़ी और अर्थहीन तुकबन्‍दी की आड़ में पूंजीपति वर्ग की सेवा और जनता से धोखाधड़ी की एक और मिसाल


प्रधानमन्त्री मोदी ने कोरोना महामारी के बीच 12 मई को अपना छठा भाषण दिया। हर बार की तरह इस बार के भाषण में भी जनता के लिए कुछ भी ठोस और प्रभावी नहीं था। ताली-थाली, दीया-बाती, फूल-पत्तों के बाद इस बार आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था पर जमकर लन्तरानी हाँकी गयी है। अनियोजित लॉकडाउन ने देश के करोड़ों मेहनतकशों को भुखमरी और लाचारी में धकेल दिया है और व्‍यापक पैमाने पर टेस्टिंग, क्‍वारंटाइनिंग व ट्रीटमेण्‍ट के अभाव ने इस आबादी को कोरोना संक्रमण के समक्ष भी मरने के लिए छोड़ दिया है, जिसके कारण लॉकडाउन का उद्देश्‍य ही पराजित हो गया और कोई लाभ होने की बजाय उससे हानि हुई। लेकिन मेहनतकश आबादी को मोदी के भाषण से सिवाय जुमलों के कुछ भी नसीब नहीं हुआ।

लाखों प्रवासी श्रमिक इस समय अपनी जान जोखिम में डालकर पैदल ही सड़कों को नाप रहे हैं लेकिन मोदी जी अपने पूरे भाषण में आत्मनिर्भरता की जलेबी ही पारते रहे। यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि लॉकडाउन के पूरे लक्ष्य को भाजपा सरकार ने मिट्टी में मिला दिया है। भारत में कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को आया था किन्तु यहाँ इसे फैलने के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए सरकार ने जनता पर योजनाविहीन लॉकडाउन थोपने के अलावा और कोई ठोस कदम नहीं उठाया। कोरोना लॉकडाउन में मोदी सरकार की स्थिति प्याज भी खाये, जूते भी खाये और पैसे भी दिये वाली हो गयी है।

लॉकडाउन खोलने के लिए इस वक़्त मोदी सरकार पर पूरे पूँजीपति वर्ग का दबाव है। नया मूल्य श्रम से पैदा होता है और यदि श्रम प्रक्रिया व उत्पादन ही थम जायेगा तो न तो नया मूल्य पैदा हो सकता है, न बेशी मूल्य और न मुनाफा। पूंजीपति वर्ग की खुली दलाली, नाकारेपन व जनद्रोही चरित्र के चलते मोदी सरकार शेखचिल्ली की तरह हाथ पर हाथ धरे बैठे रहकर ही लॉकडाउन के भरोसे ही कोरोना को काबू करने के चक्कर में थी! जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन, दुनिया के तमाम वैज्ञानिकों, एपिडेमियॉलजिस्‍ट, अतीत के अनुभवों और दुनिया भर के अन्य देशों के वर्तमान अनुभवों ने यह साफ बता दिया था कि लॉकडाउन अपने आप में कोई समाधान नहीं है, बशर्ते कि इसे पूरी तैयारी और योजना के लागू किया जाय और इस दौरान मास स्‍केल पर टेस्टिंग व ट्रीटमेंट की व्‍यवस्‍था की जाय। सिवाय जाँच, क्वारण्टाइन व उपचार के लिए थोड़ी मोहलत के और स्‍वास्‍थ्‍य ढांचे को चरमरा जाने से कुछ समय के लिए रोकने के, लॉकडाउन और कुछ नहीं दे सकता है। दुनिया के अनुभव ने पहले ही बता दिया था कि यदि लॉकडाउन के समय व्‍यापक स्तर पर टेस्टिंग, क्वारण्टाइनिंग और ट्रीटमेण्ट नहीं किया जाता है तो इससे कोरोना संक्रमण के फ़ैलने की दर में कोई खास फ़र्क़ नहीं पड़ना है, बस वह कुछ विलम्बित हो सकती है। घोषित आँकड़ों के हिसाब से ही भारत में इस समय कोरोना के 74,281 मामले सामने आ चुके हैं और 2,415 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। असल संख्या का किसी को कोई अनुमान नहीं है। जो सैंकड़ों लोग अनियोजित लॉकडाउन के कारण दुर्घटनाओं और भुखमरी से मारे जा चुके हैं, वह संख्‍या अलग है। अब जब लॉकडाउन के क़रीब 50 दिन बीत चुके हैं तो मोदी सरकार के हाथ पाँव फूल चुके हैं। पूंजीपति वर्ग मुनाफ़े के लिए बिलबिला रहा है। ऐसे में पूंजीपति वर्ग के मुनाफे को ध्‍यान में रखते हुए बिना व्‍यापक टेस्टिंग व ट्रीटमेण्‍ट के उतनी ही योजनाविहीनता के साथ लॉकडाउन से निकलने का माहौल बनाना ही 12 मई के 'राष्ट्र के नाम सम्बोधन' का मक़सद था। अगर 'वायरस के साथ ही जीना सीखना' था, तो फ़िर लॉकडाउन किसलिए था? फिर अनियोजित लॉकडाउन के कारण पैदा हुई आफतें मेहनतकश जनता पर क्यों थोपी गयी जब अन्‍तत: व्‍यापक परीक्षण के बिना उन्‍हें संक्रमण के लिए अरक्षित ही छोड़ना था?

इस अनियोजित लॉडाउन के कारण पहले से जारी आर्थिक संकट और भी गहरा गया है। वैश्विक एजेंसियाँ भारत की आर्थिक वृद्धि दर के शून्य तक जाने की सम्भावना जता रही हैं। आर्थिक वृद्धि दर बेशक़ मुनाफ़े की दर का सटीक प्रतिबिम्बन नहीं करती है लेकिन यह मुनाफ़े की दर का एक प्रतिबिम्‍बन तो होती ही है। पिछले एक दशक से दुनिया भर में मुनाफ़े की गिरती दर का संकट पूँजीपति वर्ग को लगातार सता रहा था और भारत समेत दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाएँ आर्थिक मन्दी में हिचकोले खा रही थी। कोविड-19 संकट ने आर्थिक संकट को महासंकट में तब्दील कर दिया है।

यही वजह है कि पूरी दुनिया का पूँजीपति वर्ग किसी भी कीमत पर अपने-अपने देशों की सरकारों पर उत्पादन के रूप में मुनाफ़े की मशीनरी को चालू करने के लिए दबाव बना रहा है। और यही काम भारत का शोषक-शासक वर्ग भी कर रहा है। इसी के लिए सारे श्रम क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं, ऑर्डिनेन्स लाकर असंवैधानिक तरीके से श्रमिकों के श्रम अधिकारों पर ही नहीं बल्कि मानवाधिकारों पर हमले हो रहे हैं और उनके हक़ों पर डाके डाले जा रहे हैं। यह सब इसीलिए हो रहा है ताकि उत्पादन चालू होते ही मुनाफ़े की दरों को तेजी से बढ़ाया जा सके। इस संकट के समय पूंजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग के श्रमिक अधिकार ही नहीं बल्कि सभी नागरिक अधिकार और मानवाधिकार भी छीन रहा है। पूंजीवादी व्यवस्था का एक नियम होता है कि कानूनी व औपचारिक तौर पर इसमें कोई भी मज़दूर किसी भी मालिक के हाथों अपनी "श्रम शक्ति बेचने के लिए स्वतन्त्र" होता है, क्‍योंकि, जैस कि मार्क्‍स ने बताया था, पूंजी व श्रम का कमोबेश मुक्‍त प्रवाह पूंजीवादी व्‍यवस्‍था के लिए अनिवार्य होता है, कम-से-कम कानूनी और औपचारिक तौर पर इन पर कोई रोक नहीं होती है। लेकिन इस समय मज़दूर वर्ग से उसका यह "अधिकार" भी छीना जा रहा है और श्रम की आवाजाही में डण्डे के दम पर रोड़े अटकाये जा रहे हैं। फासीवाद पूंजीपति वर्ग की तानाशाही का एक विशिष्‍ट रूप (एक्‍सेप्‍शनल फॉर्म) होता है और मज़दूरों के हकों पर असंवैधानिक तौर पर किये जा रहे मौजूदा हमले इसी तथ्‍य को दिखला रहे हैं।

यह बात अब साफ़ है कि मोदी सरकार की पूंजीपति वर्ग की दलाली, जनद्रोही चरित्र, नाकारेपन और निकम्‍मेपन के कारण लॉकडाउन का असल मक़सद ही धूल-धूसरित हो चुका है। एक तो यह योजनाविहीन व तानाशाहाना तरीके से थोपा गया लॉकडाउन था जिसकी भारी कीमत देश की गरीब मेहनतकश जनता ने चुकाई और कोरोना महामारी पर नियंत्रण के लिए इस लॉकडाउन के दौरान भी जो-जो क़दम उठाये जाने थे वो नहीं उठाये गये, जिससे कि लॉकडाउन का भी मूल उद्देश्‍य ही बेकार हो गया। यानी मोदी ने हमेशा कि तरह 'खाया-पिया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारह आना' के अपने मंत्र पर अमल किया, और यह हरजाना भी हमेशा की तरह आम जनता से भरवाया जा रहा है। करोड़ों प्रवासी श्रमिकों के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं थी, करोड़ों गरीबों को भुखमरी की दलदल में धकेल दिया गया (वैसे मोदी शाह की फ़ासीवादी सरकार से जनवादी तरीके से लॉकडाउन की उम्मीद ही बेकार है)।

अब जब मोदी सरकार ने लॉकडाउन के मक़सद पर पानी फ़ेर दिया है तो अपने निक्कमेपन और नकारेपन को छिपाने के लिए मोदी ने अपने भाषण में 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज की घोषणा की है। पिछले तमाम पैकेजों की तरह इस बार के पैकेज का लाभ भी पूँजीपति वर्ग के ही विभिन्न संस्तरों को मिलने वाला है, क्‍योंकि मोदी ने साफ शब्‍दों में बताया कि इससे आम जनता के साथ-साथ कारपोरेट घरानों, मंझोले पूंजीपति वर्ग, व्‍यापारी वर्ग सभी के लिए राहत का इंतज़ाम किया जायेगा। मोदी सरकार के अभी तक के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए दावे से कहा जा सकता है कि इस 20 लाख करोड़ का 90 प्रतिशत से भी ज्‍यादा हिस्‍सा देश का खाया-पिया-अघाया पूंजीपति वर्ग डकार जाने वाला है और आम जनता के नसीब केवल जूठन लगने वाली है। दूसरी बात, देश की जनता को सार्वजनिक वितरण प्रणाली से खाद्य राशनिंग की सुविधा, सभी मूलभूत वस्तुओं और सेवाओं की सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा आपूर्ति और सार्वभौमिक स्वास्थ्य व्यवस्था उपलब्ध कराये बिना किसी भी राहत पैकेज की बाँसुरी बजाना केवल हवा-हवाई है। 20 लाख करोड़ का भी ज्यादातर हिस्सा भी पूँजीपतियों के टैक्स माफ़ करने, उन्हें नगण्य कीमत पर ऋण उपलब्ध कराने और अन्य छूटें देने में ही ख़र्च होना है।

आत्मनिर्भरता के नाम पर जुमलेबाजी ही हुई है इस बात को हम पुराने अनुभवों से भी पुष्ट कर सकते हैं। पांच साल के 'मेक इन इण्डिया' के दौरान क्‍या देश आत्‍मनिर्भर नहीं बना!? और नहीं बना तो उसमें हुआ क्‍या? एक समय आरएसएस और उसका पालतू स्वदेशी जागरण मंच "स्वदेशी" का झुनझुना बजाया करता था। उसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी के काल में बनी भाजपा सरकार ने देश के इतिहास में पहली बार विनिवेश मन्त्रालय खोल दिया! 2014 से पहले मोदी सरकार भी एफडीआई यानी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के ख़िलाफ़ दमगजे भरती नहीं थकती थी, सरकार बनते ही इसने भी विदेशी पूँजी के सामने पलक पाँवड़े बिछा दिये और भारतीय पूँजी के वैश्विक अर्थव्‍यवस्‍था में समेकन के काम को अभूतपूर्व तरीके से आगे बढ़ाया और साम्राज्‍यवाद के 'जूनियर पार्टनर' के रूप में अपनी भूमिका को और रेखांकित किया। अब इस आत्मनिर्भरता की नौटंकी के पीछे की असल हकीकत भी चार दिन बाद सामने आ ही जानी है। कथनी और करनी में फर्क करना भाजपा की पुरानी फ़ितरत है।

प्रधानमन्त्री मोदी के पूरे भाषण से आप समझ सकते हैं कि पूँजीपति वर्ग के दबाव के फलस्वरूप सरकार उत्पादन चालू कर मुनाफ़े की मशीनरी को चालू करने के लिए बेचैन है। योजनाविहीन और बिना किसी तैयारी के किये गये लॉकडाउन की पूरी कीमत जनता से वसूल की गयी है और उसके द्वारा कोरोना संक्रमण को नियंत्रित करने के मक़सद को व्यापक पैमाने पर जाँच, क्वारण्टाइनिंग और उपचार न करके पहले ही पलीता लगाया जा चुका है। करोड़ों श्रमिकों का जीवन संकट में डालने के बाद अब सरकार के पास सिवाए जुमलों के कुछ भी नहीं रह गया है। नौटंकी, झूठ, लफ्फाजी, बड़बोलेपन और जुमलेबाजी के मामले में भारत का प्रधानमन्त्री भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के इतिहास में अद्वितीय है। यह नयी जुमलेबाजी भी उतनी ही खोखली सिद्ध होगी जितनी खोखली तमाम पिछली जुमलेबाजियाँ सिद्ध हुई थी। गोदी मीडिया और बीजेपी आईटीसेल झूठों के सहारे मोदी के प्रभामण्डल को जितना भी चमका लें किन्तु देश के असल हालात इसके पीछे छुप नहीं सकते।

('मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान')

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