Wednesday, April 22, 2020


[ पिछले दिनों मैंने मूर्खों और दुष्टों के माहात्म्य पर कई पोस्ट्स डालीं और उनके बारे में संस्कृत के प्राचीन आचार्यों के पर्यवेक्षणों एवं निष्कर्षों को सप्रसंग व्याख्या सहित प्रस्तुत किया ! उसी कड़ी में मैं कूपमंडूकों के बारे में संस्कृत के प्राचीन साहित्यकारों के मत-सम्मत को जानने के लिए कुछ संस्कृत ग्रन्थ उलटती-पलटती रही, पर एकदम सटीक कुछ नहीं मिला !

मुझे लगा कि संस्कृत के विद्रोही और विपथगामी, अनुभव-सिद्ध और ज्ञान-विदग्ध आचार्यों में भी वर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मणवाद की किसी हद तक छाया थी, 'वेद वाक्यम् प्रमाणं' के बद्धमूल संस्कारों से वे भी किसी हद तक प्रभावित थे ! इसीलिये, कूपमंडूकों की उन विशिष्टताओं को वे शायद न समझ सके जो कूपमंडूकों को मूर्खों से अलग करते हैं ! हालांकि अगर कूपमंडूक शब्द संस्कृत में मौजूद है, तो इस प्रजाति को समझने वाले कुछ विशेषज्ञ तो अवश्य ही प्राचीन काल में भी मौजूद रहे होंगे ! हो सकता है कि उससमय कूपमंडूकों को समझने वाले लोग उनकी विशाल आबादी से बैर लेने की हिम्मत न जुटा पाए हों ! कूपमंडूक शब्द का उद्गम इस तथ्य से हुआ है कि कूएँ में रहने वाला मेढक आकाश का महत्तम विस्तार कूएँ के मुँह बराबर ही समझता है ! कूपमंडूक पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने को सही समझता है और अपनी जानकारी के प्रति संतुष्ट रहता है ! उसकी छोटी सी दुनिया होती है और वह उसका अधिपति होता है I उसकी दुनिया गतिशून्य, एक बंधे हुए पोखर जैसी होती है ! किसी भी समाज में अगर लम्बे समय तक सामाजिक-बौद्धिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक तूफ़ान न उठें, तो उस शांत, ऊँघते हुए, गतिहीन समाज में कूपमंडूकों की भरमार हो जाती है ! जिन लोगों में सर्जना, प्रयोग और यायावरी की बेचैनी होती है, उन्हें कूपमंडूकता दमघोंटू लगती है ! कूपमंडूक के लिए अंग्रेज़ी में इसके निकट-निकट का अर्थ रखने वाला शब्द 'philistine' है !

बहरहाल, कूपमंडूकों के बारे में संस्कृत के आचार्यों से जब बहुत सहायता नहीं मिली तो फिर मैंने सोचा कि इस परिघटना पर प्रकाश डालने का काम मुझे स्वयं करना होगा ! तब मुझे याद आया कि डेढ़-दो वर्षों पहले मैंने कूपमंडूकों के बारे में एक टिप्पणी लिखी थी ! बेहतर हो कि उसी को खोजकर फिर से पोस्ट कर दूं ! उसे खोजने के दौरान ही आचार्य गूगल ने सूचित किया कि एक धार्मिक मठाधीश, भक्त टाइप कूपमंडूक मेरी उस पोस्ट को शब्दशः चुराकर अपने पेज पर डाले हुए है ! तब फिर इस काम को रोककर मुझे उस कूपमंडूक प्रोफ़ेसर की चोरी पर एक पोस्ट लिखने में वक़्त जाया करना पड़ा ! अब उस काम से फारिग होने के बाद वह पुरानी पोस्ट फिर से प्रस्तुत कर रही हूँ ! ]

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कूपमंडूकों द्वारा अमरत्व का प्रमाण-पत्र प्राप्त करने की अपेक्षा क्षणभंगुर जीवन लाखगुना बेहतर होता है I

(एक पुराना विचार फिर से प्रस्तुत, Kavita Krishnapallavi
18 December 2018 )

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अब इसमें कुछ बातें जोड़ी जाएँ ! मक़सद कुछ ख़ास नहीं, बस कुछ गप्प, कुछ गलचौर I कूपमंडूकता एक सार्वभौमिक परिघटना है, पर अलग-अलग देशों में इसकी अलग विशिष्टताएँ होती हैं I उन्नीसवीं शताब्दी में जर्मन महाकवि हाइने ने और युवा मार्क्स-एंगेल्स ने जर्मन कूपमंडूकता की खूब खिल्ली उड़ाई थी और हर्ज़ेन, चेर्नीशेव्स्की, दोब्रोलुबोव जैसे क्रांतिकारी जनवादी दार्शनिकों ने रूसी कूपमंडूकता से जमकर लोहा लिया था I पर इन महापुरुषों ने अगर भारतीय कूपमंडूकता, विशेषकर "हिन्दू" कूपमंडूकता के दर्शन किये होते तो उसके आगे उन्हें दुनिया की हर कूपमंडूकता पानी भरती नज़र आती I

कूपमंडूक के मानस का निर्माण निम्न-बुर्जुआ आत्मतुष्टि, पाखंडपूर्ण पारम्परिक नैतिकता, और चाटुकारिता की दासतापूर्ण वृत्ति से होता है I

कूपमंडूक महानगरीय जीवन की अच्छाई-बुराई के विराट फलक से डरता और चिढ़ता है और अपने भीतर कस्बाई सुस्ती और आत्मतुष्ट गँवारपन को लिए हुए मुम्बई-बंगलुरु ही नहीं बल्कि पश्चिम के शहरों तक में जी आता है I

कूपमंडूक हरदम अपने निजी अनुभवों की दुहाई देता है और तर्क और विज्ञान की बातों से नफ़रत करता है I कूपमंडूक हर जगह अपने हित ताड़ता रहता है, लेकिन कोई भी कदम उठाने से पहले नेवले की तरह सर उठाकर हवा को सूँघते हुए चौकन्नी निगाहों से चारो ओर देखता है कि कहीं कोई जोखिम तो नहीं !

कूपमंडूक हमेशा सोचता है कि नयी पीढ़ी बर्बाद हो गयी है और उससे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती I वह अपने बाल-बच्चों से हरदम असंतुष्ट रहता है और चाहता है कि जीवन में वह जो कुछ भी नहीं कर पाया वह सब कुछ उसके बच्चे कर डालें I वह हमेशा वर्तमान से खिन्न रहता है, भविष्य उसे अंधकारमय दीखता है और सारी अच्छाइयाँ अतीत में नज़र आती हैं !

वह हमेशा नैतिकता के बारे में बातें करता है पर खुद हमेशा अनैतिक ख्यालों में डूबा रहता है, पर डर के मारे अनैतिक काम करने से बचता है और कल्पना करता है कि काश, उसे ऐसी जगह जाने का अवसर मिले जहाँ वह जमकर लम्पटपना करे और उसे पहचानने वाला कोई न हो I कूपमंडूक धर्म को मनुष्यता के लिए अनिवार्य और विज्ञान को विनाशकारी मानता है I

कूपमंडूक अपने को आदर्शवादी बताता है और भौतिकवाद से घोर घृणा का प्रदर्शन करता है I उसके लिए भौतिकवाद का मतलब है, पेटूपन, पियक्कड़पन, दुर्वासनाएँ, दंभ, धनलिप्सा, लोलुपता, तृष्णा, मुनाफाखोरी आदि ! और आदर्शवाद शब्द का अर्थ वह सदाचार, लोकोपकार, संयम आदि समझता है जिसकी औरों के सामने वह खूब डींगें हाँकता है, पर उनमें विश्वास तभी करता है जब ज्यादा पीने से उसके सर में दर्द हो जाता है, या वह दिवालिया हो जाता है, यानी हर उस स्थिति में जिसे वह अपनी "भौतिकवादी" ज्यादतियों का नतीज़ा समझता है I

कूपमंडूक नाना प्रकार के अनुभवों से गुजरने वाली उन मोटी तोंदों के प्रति काफ़ी श्रद्धाभाव रखता है, जो कांट के अनुसार, पिचकती हैं तो अश्लीलता बन जाती हैं, और यदि फूलती हैं तो धार्मिक प्रेरणा बन जाती हैं I

कूपमंडूक हमेशा झुककर मजबूत के शासन को स्वीकार करता है और फिर उतनी ही निर्मम निरंकुशता के साथ अपने से कमजोर और बेबस को, जैसे कि अपनी पत्नी और बच्चों को दबाता है I कूपमंडूक अपने घर में एक छोटी सी रियासत के राजा जैसा होता है I

कूपमंडूक सत्ता को देवत्व-मंडित जैसा कुछ मानता है, सत्ता से पुरस्कृत-सम्मानित होने को मोक्ष-प्राप्ति सरीखा समझता है I कूपमंडूक यदि वामपंथी भी हो तो सरकारी अफसरों के आगे झुक कर कोर्निश बजाता है I सरकारी अफसर अगर लेखक हों तो उनके दरबार में पहुँचकर वह स्वयं को इन्द्रसभा में बैठा हुआ महसूस करता है और उस अफसर लेखक को प्रेमचंद और निराला का वारिस बताता रहता है I

कूपमंडूक ज्ञान से हमेशा आतंकित रहता है, पर उसकी कुंठा यह होती है कि वह लोगों के बीच ज्ञानी के रूप में प्रतिष्ठा भी चाहता है I वह इस स्थायी भय में जीता रहता है कि लोग उसकी मूर्खता पकड़ लेंगे, इसलिए वह विद्वानों की बातों पर जोर-जोर से सर हिलाता है I

कूपमंडूक को चुटकुले सुनने-सुनाने में बहुत मज़ा आता है I वह बेहद गैर-ज़रूरी बातें भी बेहद गंभीर मुद्रा में करता है I

कूपमंडूक हरतरह के आन्दोलन और सामाजिक अशांति से नफ़रत करता है I वह डंडे के अनुशासन से श्वानवत प्यार करता है और यह कहता रहता है कि लोगों के पिछवाड़े डंडे लगाकर सबकुछ ठीक कर देना चाहिए, पर अपना पिछवाड़ा वह हर सूरत में बचा लेना चाहता है I

कूपमंडूक अपने परिष्कृत और प्रांजल रूप में भी विवेकशील नागरिक का प्रहसन होता है I वह हमेशा मूल की जगह नक़ल को या कार्टून को तरजीह देता है I तूफ़ान से वह भय खाता है, लेकिन तूफ़ान अपने पीछे जो कीचड़-कचरा छोड़ जाता है, उसमें उसे स्वर्गिक सुख की अनुभूति होती है I

कूपमंडूक विचारों की जटिलता और अमूर्तता से घबराता है, हर चीज़ को सरल-संक्षिप्त रूप में जानना चाहता है और अपनी बात करने की जगह हरदम ऐसे जुमले बोलता रहता है कि यह बात आम लोगों की समझ में नहीं आयेगी I

मार्क्स ने कहीं लिखा था कि जर्मन कूपमंडूकता का दलदल इतना विराट है कि गोएठे और हेगेल जैसी महान हस्तियों के पैर भी कभी-कभी उस दलदल में फँस गए I भारतीय कूपमंडूकता का दलदल उससे भी कई गुना अधिक विराट है I यहाँ तो प्रसिद्ध लेकिन बौने क़द के ज्यादातर वाम बुद्धिजीवी और साहित्यकार भी इसी दलदल में लोटपोट होते रहते हैं और सत्ता उनके सामने चारा फेंकती रहती है I

मार्क्स ने 1863 में लिखा था :"यह सही है कि पुरानी दुनिया कूपमंडूक की है I लेकिन हमें कूपमंडूक को ऐसा भूत नहीं मानना चाहिए, जिससे भय खाकर पीछे हट जाएँ I इसके विपरीत, हमें उसपर नज़र रखनी चाहिए I दुनिया के इस मालिक का अध्ययन करना उपयोगी है I"

पुरानी दुनिया को नष्ट करने का प्रोजेक्ट सिर्फ़ अभाव, अत्याचार, शोषण, युद्ध, भुखमरी, व्यभिचार, विलासिता और अमानवीयता की दुनिया को नष्ट करने का ही प्रोजेक्ट नहीं है, बल्कि यह कूपमंडूक के साम्राज्य को तहस-नहस करने का भी प्रोजेक्ट है !

(फेसबुक पेज पर री-पोस्‍ट, 21अप्रैल, 2020))





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