अक्सर कुछ पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ भी उन पूजा-स्थलों में प्रवेश और पूजा-उपासना के अधिकार का सवाल उठाती हैं जहाँ धर्म-विधानों या परम्परा के हिसाब से स्त्रियों का जाना वर्जित रहा है । जनवादी अधिकार और स्त्री-पुरुष समानता की यह लड़ाई मुझे तो कुछ विचित्र ही लगती है ! हालाँकि जो इस अधिकार के लिए लड़ना चाहता है, लड़े, उसकी आज़ादी है, कोई कर भी क्या सकता है !लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि अंधविश्वासों और धार्मिक कर्मकांडों में भागीदारी में बराबरी की माँग से स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में क्या बदलाव आयेगा? क्या देवगण प्रसन्न होकर स्त्रियों को जनवाद और बराबरी का वर दे देंगे ? स्त्रियों की पराधीनता और पुरुष-वर्चस्ववाद के मूल में सामाजिक-वर्गीय संरचना की जो ऐतिहासिक निर्मिति है, वह उनके लिए एक "अदृश्य सत्ता" होती है I उसी "अदृश्य सत्ता" का परावर्तन तथा अपनी पराधीनता को स्वीकारने की मानसिकता की अभिव्यक्ति स्त्रियों में धार्मिक कर्मकांडों के प्रति अत्यधिक आग्रह के रूप में होता है ! स्त्रियों को उनकी सामाजिक दुरवस्था और पराधीनता के मूल कारणों से तथा उनसे मुक्ति के रास्ते से अवगत कराकर, उन्हें अपने अधिकारों के लिए संगठित होकर लड़ने के लिए प्रेरित करके तथा उन्हें दिमागी गुलाम बनाने वाले धर्म और धार्मिक कर्मकांडों की सच्चाई लगातार बताते हुए ही उनकी मुक्ति की लड़ाई आगे बढ़ाई जा सकती है !
सच पूछें तो समय के हिसाब से धार्मिक रीतियों में बदलाव की माँग ही बेतुकी है I समय के साथ निरंतर परिवर्तन विज्ञान का नियम है I धर्म तो धर्मशास्त्रों में विहित क्रियाओं-विधियों-आदेशों को शाश्वत, अटल और अपरिवर्तनीय मानता है I अब जब धर्मग्रंथों की बात चल ही पड़ी है, तो हमारे "पवित्र" धर्मग्रंथों में स्त्रियों की हैसियत और कर्तव्यों आदि के बारे में सैकड़ों स्थानों पर जो कुछ भी उल्लिखित है, उनमें से महज कुछ का उल्लेख ही अकल की मारी उन स्त्रियों के लिए काफ़ी होगा जो धार्मिक पोथियों को देखे-पलटे बिना ही धार्मिक भावना में विह्वल-विभोर-विगलित होकर लोटती-पोटती-झूमती-रेंकती-रंभाती रहती हैं ! पता नहीं, हिन्दुत्व का झंडा उठाये नेत्रियाँ और साध्वियाँ धर्म-ग्रंथों के इन हवालों से परिचित भी हैं या नहीं !
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स्त्री यदि पुरुष की कामेच्छा पूर्ति न करे तो पुरुष पहले उसे द्रव्य, आभूषण आदि का प्रलोभन दे, फिर भी यदि वह न माने तो उसे दंड का भय दिखाए और हाथों से अथवा छड़ी से पीटे, इसपर भी वह न माने तो वह बलपूर्वक समागम करे और उसे बदनाम कर देने का शाप दे I इस शाप के फलस्वरूप वह बाँझ और अभागी के रूप में बदनाम हो जायेगी !
(वृहदारण्यक उपनिषद्, 6/4/7)
हे गौतम ! स्त्री अग्नि है, उसका उपस्थ (नाभि के नीचे का भाग) ईंधन है, वहाँ की केशराशि धुँआ है, योनि ज्वाला है, सम्भोग-क्रिया अंगारे है, और आनंद- प्राप्ति छिटकती चिंगारियाँ हैं I इस अग्नि में देवगण वीर्य का होम करते हैं और उस आहुति से पुरुष उत्पन्न होता है । वह जबतक जीवन है, तबतक जीता है, फिर मर जाता है।
(वृहदारण्यक उपनिषद्, 6/2/13)
हे गौतम ! स्त्री अग्नि है, उसका उपस्थ समिधा है, रति-संभाषण धुँआ है, योनि शिखा है, पुरुष उसके भीतर जो करता है, वह अंगारे है, और आनंद अग्नि-कण है I इस अग्नि में देवता वीर्य का होम करते हैं और उस आहुति के छोड़ने से गर्भ होता है ।
(छान्दोग्य उपनिषद्, 5/8/1-2)
पति अगर गरीब, रोगी या मूर्ख हो, उसपर भी यदि स्त्री उसका ज़रा भी तिरस्कार करती है तो मृत्यु के उपरांत वह साँपिन का जन्म लेती है और बार-बार विधवा होती है ।
(पराशर स्मृति, 4/16)
जो स्त्री पति के साथ सती होती है, वह शरीर में जितने रोम होते हैं, उतने वर्षों तक, यानी साढ़े तीन करोड़ वर्षों तक, स्वर्ग में निवास करती है I जैसे सँपेरा साँप को बिल से निकाल लेता है, वैसे ही वह स्त्री भी नरक से अपने पति को खींच लाती है I जिसके साथ वह जलती है, वह स्वर्ग में उसके साथ आनंद उठाता है !
(पराशर स्मृति, अध्याय- 4)
(दक्ष स्मृति, 4/18-19)
(ब्रह्म पुराण, 10/76)
स्त्री जबतक पति के शव के साथ स्वयं को नहीं जलाती तबतक स्त्री के रूप में जन्म लेती रहेगी तथा स्त्री जीवन में मिलने वाले दुःख-कष्ट और उपेक्षा झेलती रहेगी। अतः इस सबसे एक ही बार छुटकारा पाने के लिए उसे सती हो जाना चाहिए । इससे न केवल छुटकारा मिलेगा, बल्कि स्वर्ग में वह ऋषि-पत्नी अरुंधती के समान पूजा की पात्र भी बनेगी । वहाँ अप्सराएँ उसकी स्तुति करेंगी I अपने पति के साथ वह चौदह इन्द्रों की आयु तक आनंद मनायेगी, सूर्य के समान चमकने वाले विमान में विहार करेगी, सूर्य-चन्द्रमा के विद्यमान रहने तक पतिलोक में निवास करेगी और बाद में उसका जन्म बहुत ही अच्छे कुल में होगा ।
(गरुण पुराण,10/28,49, 52, 53)
स्त्री अपने को सुहागिन की तरह ब्राह्मणों को दान कर दे और गुरु को नमस्कार करके घर से चले, देव मंदिर में जाकर भक्ति से प्रणाम करे, सारे आभूषण मंदिर में चढ़ा दे । वहाँ से फल लेकर लज्जा-मोह को त्यागती हुई श्मशान की ओर चले । वहाँ सूर्य को नमस्कार करके चिता की परिक्रमा करे, फिर चिता पर बैठकर पति का सर अपनी गोद में रख ले । फिर फल सहेलियों को देकर आग लगाने को कहे और उस आग में अपने आप को इसतरह जला दे, जैसे गंगा के शीतल जल में डुबकी लगा रही हो ।
(गरुड़ पुराण,10/45, 40)
यदि कन्या रजस्वला हो जाए और उसका विवाह न हो गया हो तो उसे देखने मात्र से उसके माता-पिता और बड़ा भाई नरक के अधिकारी बन जाते हैं ।
(पराशर स्मृति, अध्याय-7)
कन्या की आयु बारह वर्ष हो जाने पर भी जो पिता उसका विवाह नहीं करता, वह वह हर माह उस कन्या के रज-स्राव का रक्त पीता है ।
(पराशर स्मृति, अध्याय-7)
जो स्त्री मदिरा पी ले, वह पतिता हो जाती है । उसका आधा शरीर पतित होता है और नरक में गिरने पर भी उसका पाप नहीं छूटता !
(पराशर स्मृति, अध्याय-10)
रजस्राव के दौरान स्त्री से दूर रहने वाले मनुष्य के बुद्धि, तेज, बल, नेत्र और आयु -- इन सबमें वृद्धि होती है ! स्त्री के साथ एक थाल में भोजन न करें, और भोजन करती हुई, छींकती हुई, जम्हाई लेती हुई या सुख से बैठी हुई स्त्री को न देखें I
(मनु स्मृति, 4/42-43)
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ये तो प्राचीन हिन्दू धर्म-ग्रंथों के स्त्री-विषयक अनेकशः "अनमोल विचारों" में से मात्र कुछ हैं ! तुलसीदास के रामचरितमानस के स्त्री-विषयक उद्धरणों-प्रसंगों पर कभी अलग से चर्चा करेंगे ! तुलसीदास स्त्रियों को प्रकृति से ही कुटिल, कपटी, जड़, अज्ञानी, दुष्ट,मनचली, स्वतन्त्रता मिलने पर बिगड़ जाने वाली, अपवित्र, चंचलचित्त, बात छिपाने वाली, झूठी, अविवेकी और निर्मम मानते हैं ! ये सामान्य वक्तव्य तुलसी अलग-अलग प्रसंगों में अलग-अलग पात्रों के मुँह से दिलवाते हैं ! इनकी चर्चा कभी अलग से करेंगे !
(8अप्रैल, 2020)
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