निर्णायक समय की विचारणीय चेतावनी
साहित्य के अनुष्ठानधर्मी अवधूतों,
कला-जगत और रंग-जगत के छिछोरे छैला बाबुओं,
अतिमहत्वाकांक्षी, आत्ममुग्ध, दारूकुट्टे कवियों,
विचाररिक्त सांस्कृतिक विदूषकों,
आभासी जगत के शब्दवीरों,
कॉफ़ीहाउसों के रणबाँकुरों,
पुस्तकालयों के तिलचट्टों,
अकादमिक दुनिया के विद्वान चमगादड़ों,
सभागारों में चबाकर थूके गए च्यूइंगमों,
और एक आहट पर बिल में दुबक जाने को तैयार चीखते झींगुरों को
थोड़ा प्यार से और थोड़ा डांटकर
यह बताने की ज़रूरत है कि बर्बरों के हमलों से
उनकी दुनिया भी सुरक्षित नहीं बचेगी !
उनके साहित्योत्सव, कला मेले, पुरस्कार, वजीफ़े, तमगे,
दोपहर की नींद, शाम की महफ़िलें, शास्त्रीय संगीत -- सबकुछ
विनाश के सैलाब में बह जाएगा
कचरे और मलबे के साथ !
यह जो गलियों में लहू बह रहा है रह-रहकर,
यह सड़कों पर बहेगा जब उफनती तेज़ धार की शक्ल में
तो उनके बच्चों का जीवन भी संकट में होगा !
यह जो राजमार्गों पर अनवरत यात्रारत दर-बदर मज़दूरों के सिर पर
मंडरा रही हैं और चील की तरह रह-रहकर
झपट्टा मार रही हैं भूख, मौत,बीमारियों
और आतंककारी सत्ता की शैतानी छायाएँ
ये उनके घरों पर भी धावा बोलेंगी
मार्शल लॉ के मनहूस सन्नाटे में किसी दिन
और अगर नहीं भी टूटेंगी ये विपत्तियाँ तो बर्बरों की भीड़
एक काली आँधी की तरह घुस आयेगी उनके घरों में
और उनसे यह भी नहीं पूछेगी कि
पिछले चुनावों में उन्होंने किसको वोट दिया था
और किसक़दर दीवानगी के साथ फ्यूहरर के आदेश का
अनुपालन करते हुए थाली और ताली बजायी थी !
ऐतिहासिक विस्मृति और अनैतिहासिक, क्षुद्र स्वार्थपरता के शिकार
इन लोगों को बताना तो होगा ही, याद तो दिलाना ही होगा,
अतीत में जो कुछ भी हुआ था
अराजनीतिक, सुविधाभोगी, शांतिप्रेमी, घोंसलानिवासी, शालीन-सुसंस्कृत
बुद्धिजीवियों, गत्ते की तलवार भाँजते नौटंकीबाजों और
सभी प्रकार के सोशल डेमोक्रेट्स और लिबरल्स के साथ !
उन्हें याद दिलाना होगा कि फासिज्म मध्यमार्गियों का भी
आनंदपूर्वक आखेट करता है !
उन्हें समझाना होगा कि अगर घरों में दुबके रहने पर भी
मारे जाने की ही संभावना अधिक हो
तो श्रेयस्कर होगा सड़कों पर लड़ते हुए
स्वेच्छा से यह जोखिम उठाना !
और अगर गुबरैला बनकर जीने और
स्वाभिमानी उसूलपरस्त इंसान की तरह
मरने के बीच चुनना हो तो बेशक
दूसरा ही विकल्प चुना जाना चाहिए !
(1अप्रैल, 2020)
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