आज से तीस-चालीस साल पहले तक विचार और कला-साहित्य-थियेटर-सिनेमा की दुनिया में ऐसे बहुतेरे लोग हुआ करते थे, जिनकी दार्शनिक अवस्थिति और विचारधारा भले ही प्रतिक्रियावादी हो, लेकिन वे मानवतावादी और लोकतांत्रिक चेतना के व्यक्ति हुआ करते थे, उसूलपरस्त हुआ करते थे, उनमें वैचारिक गहराई भी होती थी और न्याय-अन्याय के प्रश्न पर वे कई बार सत्ता के ख़िलाफ़ मुखर स्टैंड भी ले लिया करते थे ! अब इस किस्म के बुर्जुआ इंटेलेक्चुअल एक विलुप्तप्राय प्रजाति हो चुके हैं ! जो कुछ गाँधीवादी, टैगोरवादी टाइप, शांतिवादी टाइप, सामाजिक जनवादी टाइप, लिबरल टाइप यूटोपियाई आदर्शवादी टाइप कन्फ्यूज्ड और खोखले नमूने दिखाई देते हैं, वे ज्यादातर अतिसुविधाजीवी अकादमिक, एन.जी.ओ. ब्रांड धन्धेबाज़ और तरह-तरह के हवा मिठाई बेचने वाले "वामाचारी कर्मकांडी" हुआ करते हैं ! इनमें न वैचारिक गहराई होती है, न ही जेनुइन जन-सरोकार ! ये सभी विचारों और कुछ अनुष्ठानिक "ज़मीनी कामों" का 'पार्टटाइम बिज़नेस' करते हैं ! अपवादों की बात मत कीजिए ! कुछ अपवाद तो होते ही हैं !
बुर्जुआ इंटेलेक्चुअल मर चुका है !
सत्ता और पूँजी-प्रतिष्ठानों की मोटी-मोटी आतंककारी पत्रिकाओं, अखबारी स्तंभों, न्यूज़ चैनलों के स्टूडियोज़ और पुस्तकालयों के शेल्फों में पड़ी किताबों में उसकी लाश के अवशेष पड़े बदबू मार रहे हैं !
वित्तीय पूँजी के लकदक शॉपिंग मॉल्स में फासिस्ट 'एंटी-इंटेलेक्चुअलिज्म' और 'पॉपुलिज्म' की दुकानें सजी हैं ! इन मॉल्स के बाहर पुराने ज़माने के बहुतेरे वामपंथी सोशल डेमोक्रेसी की बोरिया ओढ़े, "कीन्सियन वेल्फेयरिज्म" की गुदड़ी बिछाए, मनुष्यता के नाम पर बुर्जुआ जनवाद की भीख माँग रहे हैं !"दे-दे, दे-दे बाबा, इंसानियत के नाम पर, संविधान के नाम पर, थोड़ा-सा जनवाद दे दे ! तेरी बड़ी बरक़त होगी !" वहीं किनारे पर कुछ लोग 'आइडेंटिटी पॉलिटिक्स' के गुब्बारे बेच रहे हैं !
कहीं आग लग रही है, कहीं गोली चल रही है ! कहीं उन्मादी भीड़ किसी बेगुनाह का पीछा कर रही है ! कहीं दर-बदर हो रहे मेहनतकशों पर कीटनाशक स्प्रे किया जा रहा है ! कहीं नागरिकता की नयी परिभाषा गढ़ी जा रही है और सबूत के काग़ज़ माँगे जा रहे हैं ! इतिहास की अँधेरी सड़कों पर मार्च करते हुए फासिस्ट बूटों की धमक एकदम सिर पर सुनाई दे रही है, पर जहाँ साहित्योत्सवों और कला-मेलों का शोर है, वहाँ लोग इसे सुन नहीं पा रहे हैं !
नवउदारवादी उल्लास में डूबे, खाए-अघाए-डकारते-पादते खुशहाल मध्य वर्ग के ऐतिहासिक विश्वासघातों की, धुंधली सी रोशनी में, इतिहास के पीले पन्नों पर, कहीं चुपचाप इन्दराज़ी हो रही है !
सामने सघन अँधेरे का विस्तार है ! दूर-दूर तक कहीं रोशनी नज़र नहीं आती ! लेकिन मुसीबतज़दा लोगों की जिन बस्तियों से धुआँ उठता दीख रहा है, वहाँ ज़रूर आग होगी ! उसी आग से घरों में चिराग जलाने होंगे और मशाले भी जलानी होंगी, फिर से !
वहीं से थोड़ी आग विचारों और कला-साहित्य की दुनिया में भी लानी होगी !
(30मार्च, 2020)
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