Thursday, April 02, 2020

कोरोना काल में कुछ स्फुट बातें, बैठकर तसल्ली से, पूर्वाग्रहमुक्त होकर सोचने के लिए :


क्यूबा में समाजवाद की अपनी समस्याएँ, गतिरोध, अड़चनें और चुनौतियाँ रही हैं, निश्चित ही हैं; पर पूंजीवादी पुनर्स्थापना के बावजूद, अभी भी वहाँ समाजवाद का लोक-कल्याणकारी ढाँचा तृणमूल स्तर पर किसी न किसी रूप में क़ायम है, जिसके चलते व्यापक जन-समुदाय की पहलकदमी बनी हुई है और सत्ता बुर्जुआ देशों की तरह, समाज से 'एलियनेटेड' नहीं है ! जनता की सामूहिक शक्ति और सर्जनात्मकता जो शोषण, असमानता और एलियनेशन से क्रमशः मुक्ति के साथ निर्बंध होती जाती हैं, वही किसी समाजवादी देश की ताकत होती है ! यही वह ताक़त है जो अभी भी क्यूबा में पूरीतरह से निश्शेष नहीं हुई है और जिसकी बदौलत साठ सालों तक लगातार अमेरिका और उसके सहयोगी पश्चिमी देशों की सामरिक और आर्थिक घेरेबंदी के बावजूद महज एक करोड़ 13 लाख की आबादी वाला वह छोटा सा कैरीबियाई देश साम्राज्यवादी दैत्य के ऐन पिछवाड़े सीना ताने खड़ा है !

आम मध्यवर्गीय नागरिकों का दिमाग़ आम तौर पर समाजवाद के बारे में पश्चिमी बुर्जुआ लेखकों के घटिया प्रचारपरक लेखन, घटिया फिल्मों और डिस्कवरी,हिस्ट्री आदि चैनलों पर आने वाले ऐसे प्रोग्रामों से विषाक्त होता है जो समाजवाद के गौरवशाली इतिहास को मात्र तानाशाही, दमन और भ्रष्टाचार के इतिहास के रूप में पेश करते हैं ! और आज की जो नयी पीढी है, यह तो जानती ही नहीं कि आइन्स्टीन, बर्नार्ड शॉ, रसेल, एच.जी.वेल्स, टैगोर, नेहरू आदि-आदि ने तत्कालीन सोवियत संघ और समाजवाद के बारे में क्या लिखा है ! सोवियत संघ और माओकालीन चीन के बारे में जॉन रीड, रीस विलियम्स, लुई ब्रुयान्त, अन्ना लुईस स्ट्रोंग,एडगर स्नो, स्टुअर्ट स्क्रैम, हान सुइन, विलियम हिंटन, जोन रोबिन्सन आदि-आदि पश्चिम के सुप्रसिद्ध लेखकों के लेखन से भी वह परिचित नहीं है और समाजवाद की सैद्धांतिकी का तो वह 'क-ख-ग' भी नहीं जानती !

पर कभी-कभी कुछ ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं जो एकदम बंद दिमाग़ वाले दकियानूसों-कूपमंडूकों को छोड़कर सामान्य पूर्वाग्रहित नागरिकों को भी अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर चीज़ों पर सोचने के लिए मज़बूर करती हैं ! कोविड-19 के विश्वव्यापी महामारी का रूप लेने के बाद क्यूबा के व्यवहार ने दिखला दिया कि वैश्विक मानवतावाद क्या होता है और पूँजीवाद कितनी मानवद्रोही व्यवस्था है ! क्यूबा की आर्थिक नाकेबंदी में ब्रिटेन अमेरिका का निकटतम सहयोगी है ! उसी ब्रिटेन के एक क्रूज़ के यात्री और स्टाफ़ के कुछ लोग जब कोरोना वायरस से संक्रमित हो गए तो अमेरिका या किसी भी अन्य पूँजीवादी देश ने उस क्रूज़ को अपने बंदरगाह पर ठहरने की इजाज़त नहीं दी ! तब वही क्यूबा आगे आया जिसे नेस्तनाबूद करने की हर अमेरिकी योजना का ब्रिटेन भागीदार था ! क्यूबा ने ब्रिटिश शिप को अपने बंदरगाह पर रुकने की इजाज़त दी और सभी संक्रमित यात्रियों को इलाज के लिए भरती कर लिया गया !

इटली भी क्यूबा की आर्थिक नाकेबंदी में अमेरिका का हमेशा से सहयोगी रहा है ! पर इटली जब कोरोना महामारी से जूझ रहा था और उसके यूरोपियन यूनियन के पार्टनर्स तक ने उसे उसके हाल पर छोड़ दिया तो क्यूबा उसकी मदद के लिए आगे आया और उसने अपने 52 डॉक्टरों की टीम पैरामेडिकल स्टाफ और नर्सेज के साथ इटली भेज दिया ! ब्राजील में क्यूबाई डॉक्टर्स लूला के ज़माने से ही कार्यरत थे ! जब तानाशाह बोल्सेनारो अमेरिकी मदद से सत्ता में आया तो उसने क्यूबाई मेडिकल टीम को देश से बाहर कर दिया ! जब उस सनकी तानाशाह को कोरोना संक्रमण का फैलाव नियंत्रण से बाहर जाता दीखा तो फिर उसने अपना थूका चाटकर और दांत चियारकर क्यूबा से डॉक्टर्स की टीम भेजने का अनुरोध किया जिसे क्यूबा ने तत्क्षण स्वीकार कर लिया ! कोरोना-संक्रमण क्यूबा में भी फैला था, पर उसने उसे नियंत्रण से बाहर जाने ही नहीं दिया I इसका पूरा श्रेय वहाँ की समाजवादी स्वास्थ्य और चिकित्सा की व्यवस्था को जाता है ! यहाँ पर यह जानना भी बहुत ज़रूरी है कि क्यूबा के डॉक्टर्स अधिकांश लातिन अमेरिकी देशों में आज कार्यरत हैं और वहाँ के छात्रों को मेडिकल ट्रेनिंग देते हैं ! कैंसर की दवा से लेकर तमाम वायरस-जनित बीमारियों के क्यूबा ने खुद टीके विकसित किये हैं ! दवाओं पर शोध का उसका तंत्र किसी भी उन्नत पश्चिमी देश से पीछे नहीं है ! अमेरिका और यूरोपीय देशों द्वारा आर्थिक नाकेबंदी के कारण क्यूबा की इन दवाओं की पूरी दुनिया में पहुँच नहीं हो पाती ! अगर क्यूबा की ये दवाएँ विश्व-बाज़ार में पहुँचने लगें तो मुनाफाखोर पश्चिमी फार्मास्यूटिकल कंपनियों की चूलें हिल जायेंगी ! ऐसे में सभी मुनाफाखोर भला क्यूबा से और समाजवाद से नफ़रत क्यों न करें !

कोरोना-संक्रमण के वैश्विक संकट के प्रति एक ओर क्यूबा का मानवीय रुख था, तो दूसरी ओर साम्राज्यवादी भेड़ियों का रवैय्या देखिये I इटली और स्पेन की अमेरिका या किसी यूरोपीय देश ने कोई मानवीय मदद नहीं की ! जर्मनी में जब वैज्ञानिक कोरोना का टीका ईजाद करने के निकट पहुँच गए तो अमेरिका एडी-चोटी का पसीना एक कर रहा था कि उसका पेटेंट किसी अमेरिकी फार्मास्यूटिकल कंपनी को ही मिले ! ईरान में कोरोना-संक्रमण एक महामारी का रूप ले चुका है, लेकिन इस सूरत में भी अमेरिका उसकी व्यापारिक नाकेबंदी को ख़तम करने के लिए तैयार नहीं है ! कोरोना से गाजापट्टी में भी मौतें शुरू हो चुकी हैं ! बरसों से इस्राएली नाकेबंदी और बमबारी का सामना करने वाला फिलिस्तीन का यह हिस्सा शायद दुनिया की सबसे घनी बसाहट वाले इलाकों में से एक है ! इस असामान्य संकट की स्थिति में भी अमेरिकी टट्टू तानाशाह नेतन्याहू गाजा पर बमबारी जारी रखे हुए है और वहाँ किसी भी तरह की चिकित्सा-सहायता नहीं पहुँचने दे रहा है !

एक बात साफ़ समझ लेने की ज़रूरत है ! पूँजी रक्त और गंद में लिपटी हुई ही जन्म लेती है और पूँजीवाद मुनाफे के लिए बार-बार दुनिया को खून के दलदल और मौत की घाटी में तब्दील कर देने के लिए तैयार रहता है ! मुनाफे के इर्द-गिर्द घूमती दुनिया में जीवन का, मौत का, लाशों का, इज़्ज़त का, मनुष्यता का, बेबस बच्चों और स्त्रियों का, बीमारियों और महामारियों का और उनके निदानों का -- हर चीज़ का बस व्यापार होता है ! पूँजी युद्ध के दिनों में हिरोशिमा रचती है तो शान्ति के दिनों में भोपाल रचती है ! वह जिनकी हड्डियों को निचोड़कर अधिशेष हासिल करती है, उन्हें और उनके बच्चों को भूख और कुपोषण से तो मारती ही है, बीमारियों के संक्रामक फैलाव के दौर में उन्हें सड़कों पर असहाय मरने के लिए छोड़ देती है ! बीमारियों से मरते लोग सड़कों पर बगावत पर न उतर आयें और बुर्जुआ लोकतंत्र की इज़्ज़त किसी तरह से ढाँप-तोप कर बचाई जा सके, इसके लिए सरकारें (जो वस्तुतः पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी होती हैं) दवा-इलाज का कुछ इंतज़ाम ज़रूर करती हैं पर आम गरीबों तक इन सुविधाओं का लाभ बहुत कम ही पहुँच पाता है और ऐसे संकट के दौरों में भी फार्मा कंपनियों, दवा-विक्रेताओं और निजी नर्सिंग होमों और अस्पतालों की गृद्ध-दृष्टि मुनाफ़ा निचोड़ने के अवसरों पर ही टिकी होती है !

समाजवाद का बुनियादी सिद्धान्त यह है कि वह भोजन-आवास-चिकित्सा शिक्षा आदि जीवन की हर बुनियादी ज़रूरत मुफ्त और सामान रूप से सभी नागरिकों को मुहैय्या कराता है ! हर काम करने योग्य नागरिक को काम देना और उसकी सभी ज़रूरतों को पूरा करना राज्य की ज़िम्मेदारी होता है ! समाजवाद जबतक वास्तव में समाजवाद था (यानी 1954 तक सोवियत संघ में और 1976 तक चीन में), तबतक इस दिशा में उसकी प्रगति चमत्कारी थी ! इसपर बहुत सारा साहित्य आपको मिल जाएगा ! सोवियत संघ की चिकित्सा व्यवस्था के बारे में एक प्रसिद्ध पुस्तक है :'रेड मेडिसिन' ! डाइसन कार्टर की पुस्तक है,'पाप और विज्ञान!' चीन में भी क्रान्ति के बाद ही सभी जनता के लिए दवा-इलाज की सुविधा निःशुल्क कर दी गयी, पर उसमें कुछ असमानता थी और गाँव-गाँव तक उसकी पहुँच नहीं थी जो चीन जैसे विपन्न देश के लिए स्वाभाविक था ! 1966-76 के बीच कई युगांतरकारी अभियानों के द्वारा चिकित्सा के तंत्र को सुदूरवर्ती गाँवों तक के कम्यूनों में मज़बूत बनाया गया ! ऐसे ही एक मुहिम --'बेयरफुट डॉक्टर्स' के प्रयोग की उससमय पूरी दुनिया में चर्चा हुई थी ! उसपर सामग्री उपलब्ध है, कोई भी पढ़ सकता है ! एक बात और जो बहुत महत्वपूर्ण है, सोवियत संघ और चीन ने पूरी पूँजीवादी दुनिया की घेरेबंदी के बीच अपनी दवाओं का विकास खुद अपने वैज्ञानिकों के बूते किया था ! और ये दवाएँ अस्पतालों में हर नागरिक को निःशुल्क मिलती थीं !

1960 में एक बुर्जुआ जन-स्वास्थ्य विशेषज्ञ मार्क जी. फील्ड ने सोवियत जन-स्वास्थ्य-प्रणाली के बारे में लिखा था :"किसी भी अन्य गतिविधि की तरह स्वास्थ्य-सेवा भी नियोजित होनी चाहिए, इसमें समानता होनी चाहिए, स्वास्थ्य-रक्षा राज्य द्वारा वित्त-पोषित एक मुफ्त सामाजिक सेवा है, जनता का स्वास्थ्य सरकार की ज़िम्मेदारी है, और इसमें व्यापकतम जन-भागीदारी को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, सिद्धान्त और व्यवहार की एकता होनी चाहिए ... ... सोवियत शासन ने पिछले चार दशकों के दौरान जन-सेवा के तौर पर प्रदान की जाने वाली चिकित्सकीय उपचार और निरोधक चिकित्सा की एक व्यवस्था क़ायम की है जिसका विस्तार इस क्षेत्र में राष्ट्रीय पैमाने पर किये गए किसी भी प्रयास से अधिक व्यापक है !"

आज भारत ही नहीं, इटली, स्पेन और अमेरिका जैसे उन्नत देशों में कोरोना महामारी ने आम नागरिकों पर जो कहर बरपा किया है, वह पूँजीवादी व्यवस्था की अमानवीयता और मुनाफाखोरी को नंगा करके हमें एक चेतावनी भी दे रहा है ! भारत जैसे विपन्न, भ्रष्टाचारी और लुटेरी पूँजीवादी व्यवस्था लाख कोशिश कर ले, वह ऐसी किसी आपातकालीन स्थिति का सामना कर ही नहीं सकती ! इस समस्या का एक ही अंतिम समाधान है और वह है : समाजवाद के लिए संघर्ष ! केवल समाजवाद ही ऐसी व्यवस्था हो सकती है जिसमें हर वैज्ञानिक आविष्कार और खोज जनता के हित को केंद्र में रखकर होगा न कि मुनाफे को, और उसका फल समान और निःशुल्क रूप से आम जनता को हासिल करवाना सरकार की बुनियादी ज़िम्मेदारी होगी ! एक पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर भी हम दवा-इलाज की किसी हद तक की सुविधा तभी पा सकते हैं जब इसके लिए संगठित होकर संघर्ष करें ! चिकित्सा हमारा बुनियादी नागरिक अधिकार है और हमें सरकार से लड़कर यह हक़ हासिल करना होगा कि वह हर नागरिक के लिए समान और मुफ्त चिकित्सा-सेवा उपलब्ध कराये ! सभी अस्पतालों और नर्सिंग होम्स का सरकार को अधिग्रहण कर लेना चाहिए ! यही नहीं, समूची फार्मास्यूटिकल इंडस्ट्री का भी राष्ट्रीकरण कर लिया जाना चाहिए ! हालांकि वह भी राजकीय पूँजीवाद ही होगा और उसमें भी मुनाफाखोरी होगी, पर आज की स्थिति से वह बेहतर होगी और हमारी फौरी माँग तो यह होनी ही चाहिए ! वैसे इस पूरे प्रश्न का अंतिम हल समाजवाद ही है !

अब कोई ज़रूर यह सवाल उठा सकता है कि समाजवाद जब इतना ही अच्छा था तो वह फ़ेल क्यों हो गया ? भई, विश्व-इतिहास में समाजवाद के कुछ प्रारम्भिक प्रयोग बीसवीं सदी में हुए जो युगांतरकारी सिद्ध हुए ! पर एक मंजिल से आगे, कम्युनिज्म की दिशा में आगे बढ़ने के सिद्धान्त को विकसित करने और प्रयोग में उतारने में गलतियाँ हुईं और समय लगा ! यह एक विस्तृत चर्चा का विषय है कि सर्वहारा क्रांतियों के प्रथम संस्करणों में विकृतियाँ कैसे आयीं और पूँजीवाद की पुनर्स्थापना क्यों और कैसे हुई ! इसपर भी काफी वैचारिक साहित्य मौजूद है, बशर्ते कि फतवे देने और मर्सिया पढ़ने से पहले कोई व्यक्ति उन्हें पढ़ने की जहमत उठाये ! यहाँ मैं थोड़े में इतना ही कह सकती हूँ कि बीसवीं शताब्दी में समाजवादी क्रांतियों के जो प्रथम संस्करण निर्मित हुए थे, उनकी पराजय इतिहास का अंत नहीं है 1 पूँजीवाद इतिहास का अंत नहीं है ! इस ज़रा-जीर्ण, रुग्ण, मानवद्रोही सामाजिक व्यवस्था का एक ही विकल्प संभव है और वह है समाजवाद ! बाकी सब यूटोपियाई चिंतन करने वाले महात्माओं, सुधारवादियों, संविधानवादियों, लिबरलों और सोशल-डेमोक्रेट्स की पैबंदसाज़ियाँ हैं, इससे अधिक कुछ भी नहीं हैं !

समाजवादी क्रान्ति के नए संस्करण -- संशोधित और उन्नत संस्करण इसी सदी में निर्मित होंगे ! और अगर नहीं निर्मित होंगे तो यह दुनिया अंधी मुनाफाखोरी और होड़ से जन्मे युद्धों, गृहयुद्धों, आतंकवाद और पर्यावरण के विनाश से तबाह हो जाएगी ! कोरोना वायरस मनुष्यता के लिए फिर याददिहानी भरा एक सन्देश लेकर आया है ! अभी, आसन्न तौर पर इसका मुकाबला तो करना ही है, इसकी दूरागत चेतावनियों को भी गौर से सुनना है !

(26मार्च, 2020)

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