आज हम मूर्खों पर कुछ वार्ता करेंगे, हालाँकि 'मूर्ख दिवस' बीत चुका है और ऐसा भी नहीं कि आज प्रातः किसी मूर्खाधिराज ने हमसे मन की बातें की हों, या आज रात को आठ बजे या नौ बजे कोई उच्च-पदासीन, आत्मधर्माभिमानी, नार्सिसस-ग्रंथि पीड़ित, आत्ममुग्ध, प्रचण्ड मूढ़मति, अत्याचारी, गगनविहारी दुर्मानव टी.वी. के परदे पर अवतरित होकर सहसा कोई सन्देश देकर पूरे राष्ट्र को विपत्ति में डालने वाला हो (सो तो वह पहले ही डाल चुका है ) I बात यह है कि हम जितना दुष्टता के ऐतिहासिक युग में जी रहे हैं, उतना ही मूर्खता के ऐतिहासिक युग में भी जी रहे हैं ! जो हमारे भाग्य-नियंता हैं, जन-गण-मन-अधिनायक हैं, वे या तो दुष्ट मूर्ख हैं, या मूर्ख दुष्ट हैं ! अतः दुष्टता के महाख्यान के बाद यदि मूर्खता का महाख्यान न प्रस्तुत किया जाए तो एक असंतुलन हो जायेगा, देव-गन्धर्व-यक्ष आदि कुपित हो जायेंगे और विमर्श-यज्ञ में विघ्न पड़ जाएगा ! दूसरी बात यह है कि दुर्योगवश, आज मुझे कुछ मूर्खों ने अप्रत्याशित कष्ट दिया, अतः मैं मूर्खों से कुपित हूँ, क्रुद्ध और क्षुब्ध हूँ !
आप कहेंगे कि मूर्ख के मूर्ख होने में मूर्ख का भला क्या दोष ? जी, यह तो सर्वथा उचित बात है ! मूर्ख यदि अपनी राह जाए, आपके किसी कार्य में व्यवधान न डाले, किसी गहन-गंभीर विचार-विमर्श में हाहाकारी ढंग से फेंटा कसकर कूद न पड़े, किसी विषय पर बिन मांगे राय-सुझाव न देने लगे, किसी बात को न समझते हुए समझने के भ्रम में जीकर, या समझने का दिखावा करके आपको क्लेश न दे, साहित्य-कला से लेकर क्वांटम भौतिकी और कामशास्त्र से लेकर सौन्दर्यशास्त्र तक, वेद-वेदांग से लेकर पर्यावरण विज्ञान तक पर अपनी मौलिक प्रस्थापनाएं देकर आपको आत्महत्या या हत्या के लिए न उकसाए; तो किसी मूर्ख से किसी को भला क्या परेशानी हो सकती है ? लेकिन दुर्भाग्य से ऐसे सुअवसर विरल ही आते हैं कि मूर्ख ऐसा न करें ! समस्या यह है कि शायद ही कोई मूर्ख ऐसा मिले जो इस बात को समझता हो कि वह मूर्ख है ! अतः मूर्ख हर विषय में हस्तक्षेप करना, हर मामले में टांग अड़ाना, हर चर्चा-प्रवाह में पोंछिटा कसकर कूदना अपना परम धर्म -- परम कर्तव्य और परम अधिकार-- दोनों समझता है !
दूसरी बात, मूर्ख को साक्षात् आचार्य वृहस्पति और आचार्य शुक्राचार्य भी मिलकर यह नहीं समझा सकते कि वह गलत है, या उसके जो गुरु या आराध्य हैं, वे गलत हैं ! आदर्श मूर्ख स्वयं को सदा-सर्वदा सही तो मानता ही है, अपने गुरु, आराध्य या नेता को वह शाश्वत सही और निर्भूल मानता है ! वह मानता है कि वह (यानी उसका गुरु या नेता) है तो कुछ भी मुमकिन है I मूर्ख प्रायः धर्मप्राण होता है I वह प्रायः अपने गुरु, आराध्य या नेता से सुनकर ऐसे प्राचीन धर्म-ग्रंथों के हवाले देता रहता है, जिनकी शक्ल तक उसने नहीं देखी होती है I उसके विचार से, जीवन में जो कुछ भी नए संधान और आविष्कार होते हैं, वे हमेशा अतीत में हो चुके होते हैं ! उसके लिए दुनिया में नया कुछ भी नहीं होता I मात्र खोये हुए अतीत की पुनर्प्राप्ति को ही वह अपने जीवन का परम लक्ष्य मानता है I वह भविष्य को अतीत का पुनरागमन मानता है I मूर्ख की एक और विशिष्टता यह होती है कि वह अपनी संस्कृति और अपने राष्ट्र को विश्व में सर्वश्रेष्ठ मानता है I मूर्ख जब भक्त बन जाता है (और प्रायः बन ही जाता है) तो उस राक्षस सेवक के समान होता है जिसे हमेशा कोई काम चाहिए होता था और उसके स्वामी ने उसे चढ़ने-उतरने के लिए एक खम्भा दे दिया था ! मूर्ख जब भक्त हो जाता है तो उसे हमेशा घृणा करने के लिए एक काल्पनिक शत्रु की आवश्यकता होती है और मूर्ख का नेता उसे समझा देता है कि अमुक देश, अमुक धर्म के लोग या अमुक नस्ल या क्षेत्र के लोग जो तुमसे अलग हैं, 'अन्य' हैं, वे तुम्हारे शत्रु हैं ! इसतरह भक्त जीवन-पर्यंत एक काल्पनिक शत्रु से घृणा करता हुआ जीता है ! यह घृणा उसकी खुराक होती है ! यह घृणा दासता और पिछड़ेपन के अतीत और वर्त्तमान से उपजी उसकी हीनता-ग्रंथि होती है, जो प्रायः अहम्मन्यतापूर्ण श्रेष्ठता-ग्रंथि के भ्रामक बोध के रूप में अभिव्यक्त होती है ! अगर दुर्लभ आपवादिक संयोगवश, आपने किसी मूर्ख को अपनी कुछ बातों का कायल कर दिया, तो आपके साथ एक भयंकर दुर्घटना घट जायेगी ! होगा यह कि वह मूर्ख फिर आपका भक्त बन जाएगा I किसी भी तर्कशील और लोकतांत्रिक प्रकृति के व्यक्ति को यदि कोई भक्त मिल जाए तो चार परिणाम सामने आ सकते हैं : या तो वह व्यक्ति तर्कशील रह ही नहीं जाएगा और कालान्तर में स्वयं चाटुकारों और भक्तों से घिरा हुआ एक गधा बन जाएगा, या वह आत्महत्या कर लेगा या भागकर कहीं अज्ञातवास में चला जाएगा, या उस अपने भक्त का ही गला घोंट देगा !
एक ज़माना था जब ऐसे भी मूर्ख हुआ करते थे जो अपने काम से काम रखते थे और अपने निकटवर्तियों और परिवारी जनों के अतिरिक्त किसी को कष्ट नहीं पहुंचाते थे ! पर अब ऐसा नहीं है ! मूर्ख प्रदूषण की तरह दिग-दिगंत में फ़ैल गए हैं ! राजनीति, समाज और संस्कृति को चलाने वाले लोग ज़रायमपेशा अपराधी, हत्यारे और लम्पट हैं, जिनका प्रयोजन मूर्खों की विशाल अक्षौहिणी सेना तैयार किये बिना सिद्ध ही नहीं हो सकता ! इसलिए उन सत्ताधारियों ने बड़े पैमाने पर मूर्खों को भक्त बना लिया है I इतने बड़े स्तर पर सामाजिक-राजनीतिक कार्यों में मूर्ख कभी नहीं लगाए गए थे ! आज की दुनिया में पूँजी की सत्ता को कुछ आततायी नर-पशु शासकों और कुछ क्षुद्र किस्म के खरीदे गए मान-सम्मानहीन, आत्मा से रिक्त बुद्धिजीवियों के अतिरिक्त मूर्ख भक्तों की विशाल अक्षौहिणी वाहिनियाँ चाहिए ! इसतरह इतिहास में पहली बार, लाखों-लाख मूर्खों को सामाजिक-राजनीतिक दायरे में ऐसे काम दे दिए गए हैं जिनमें वे अहर्निश व्यस्त रहते हैं और इसे देश-सेवा समझकर गौरवान्वित होते रहते हैं ! कुछ सौ समझदारों के निर्देशन में लाखों मूर्ख सड़कों-पार्कों से लेकर सोशल मीडिया, आई.टी. सेल, व्हाट्सअप आदि पर निरंतर घृणा के अतिरिक्त मूर्खता का प्रचार-प्रसार करते रहते हैं ! मूर्खता का ऐसा मानव-द्रोही चरित्र इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया था !
आज मूर्ख जितने विकट संकट हैं, उतना पहले कभी नहीं थे, पर फिर भी मूर्खों से दुखी संस्कृत की प्राचीन आचार्यों ने मूर्खों के बारे में पीड़ा और क्लेश के साथ काफी कुछ लिखा है ! इनमें भर्तृहरि सबसे ऊपर आते हैं ! अपनी कृति 'नीति-शतकम्' में उन्होंने मूर्खों को लेकर कई श्लोक लिखे हैं ! उनपर दृष्टि डालना पर्याप्त रोचक होगा !
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'अज्ञः सुखमाराध्यः
सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः I
ज्ञानलवदुर्विदग्धं
ब्रह्मापि नरं न रंजयति II'
अर्थात्, हिताहितज्ञानशून्य नासमझ को समझाना बहुत आसान है, उचित और अनुचित को जानने वाले ज्ञानवान को राजी करना और भी आसान है; किन्तु थोड़े से ज्ञान से अपने को पंडित समझने वाले को स्वयं विधाता भी संतुष्ट नहीं कर सकता I
'प्रसह्य मणिमुद्धरेन्मकरद्ष्ट्रांंतरात्
समुद्रमपि संतरेत् प्रचलदुर्मिमालाकुलाम् I
भुजंगमपि कोपितंशिरसि पुष्पवद्धारयेत्
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् II'
अर्थात्, अगर मनुष्य चाहे तो मगरमच्छ की दाढ़ से मणि निकालकर ला सकता है, चंचल लहरों से आलोड़ित समुद्र को अपनी भुजाओं से तैरकर पार कर सकता है, क्रोधित सर्प को पुष्पहार की तरह अपने सिर पर धारण करने का साहस कर सकता है, लेकिन हठ पर अड़े मूर्ख के चित्त को गलत से सही रास्ते पर कदापि नहीं ला सकता I
'लभेत् सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन्
पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः I
कदाचिदपि पर्यटन् शशविषाणमासादयेत्
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् II'
अर्थात्, कदाचित् कोई किसी विधि से बालू में से भी तेल निकाल ले, कदाचित् कोई प्यासा मृग-मरीचिका के जल से भी अपनी प्यास बुझा ले, कदाचित् कोई घूमते-घूमते खरगोश के सींग भी खोज ले, लेकिन हठ पर अड़े मूर्ख के चित्त को गलत से सही रास्ते पर कदापि नहीं ला सकता I
'व्यालं-बाल-मृणाल-तंतुभिरसौरोद्धं समुज्ज्रिम्भते,
भेत्तुं वज्रमपि शिरीषकुसुम -प्रान्तेन सन्नह्यते I
माधुर्यं मधुबिन्दुना रचयितुं क्षाराम्बुधेरीहते,
ने तुं वांछति यः खलान्पथि सतां सुक्तै:सुधासंदिभिः II'
अर्थात्, जो मनुष्य अपने अमृतमय उपदेशों से दुष्ट मूर्ख को सही रास्ते पर लाना चाहता है, वह मानो कोमल मृणाल के डोरों से मदमत्त हाथी को बांधना चाहता है, शिरीष के फूलों की नोक से हीरे को छेदना चाहता है, या शहद की एक बूँद से खारे महासागर को मीठा करना चाहता है I
'स्वायत्तमेकांतगुनं विधात्रा
विनिर्मितं छादनमज्ञताया: I
विशेषतं सर्वविदां समाजे
विभूषणं मौनमपण्डितानाम् II'
अर्थात्, मूर्खों को अपनी मूर्खता छिपाने के लिए विधाता ने मौन धारण करने का अच्छा उपाय सुझा दिया है I मौन मूर्खता का ढक्कन है I इतना ही नहीं, विद्वानों की मंडली में वह मूर्खों का आभूषण भी है I
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कहा गया है,'हरि अनंत हरि कथा अनंता !' मूर्खों की कथा भी अनंत है ! पर आपके धैर्य की परीक्षा न लेते हुए मूर्ख-महाख्यान को फिलहाल हम यहीं विराम देते हैं !
मूर्खों ने समझदार विचारवान लेखकों, कलाकारों, विचारकों को युगों-युगों से व्यथित और प्रताड़ित किया है, नाना विधि से दुःख दिए हैं, यंत्रणाएं दी हैं ! आगे हम जल्दी ही, तुलसी से लेकर उर्दू शायरों तक ने, तथा मार्क ट्वेन से लेकर आइन्स्टीन तक ने, मूर्खों की महिमा किन शब्दों में बयान की है, उसे भी प्रस्तुत करने की कोशिश करेंगे !
II इतिश्री मूर्खमहाख्यानम् समाप्तं भवति II
(12अप्रैल, 2020)
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