तो पब्लिक की प्रचंड माँग पर 'दुष्ट-महाख्यान' एक बार फिर शुरू करते हैं ! कल मैंने बताया था कि अंकलजी को दुष्टों के बारे में मैं 5-6 श्लोक और सुनाने वाली थी, लेकिन वह खिसक लिए ! फिर कुछ मित्रों ने कहा कि वे श्लोक हमलोगों को सुना ही डालिए, ताकि समय पर काम आवे ! मैं भी सोच रही हूँ कि परोपकार के इस पावन कृत्य से पीछे क्यों हटूं ! तो लीजिये, दुष्टों के बारे में संस्कृत के प्राचीन आचार्यों के मुँह से कुछ और सुनिए:
'बोधितोSपि बहु सूक्ति विस्तरै:किं खलो जगति सज्जनो भवेत् I
स्नापितोSपि बहुशो नदीजलै: गर्दभःकिमु हयो भवेत् क्वचित् II'
अर्थात्, सद्वचनों का उपदेश देने से क्या इस विश्व के दुष्ट जन सज्जन हो जायेंगे ? नदी के जल से बार-बार स्नान करने के बाद भी क्या गधा घोड़ा बन पायेगा ?
'अहमेव गुरु:सुदारुणानामिति हलाहल मा स्म तात दृप्य: I
ननु सन्ति भवादृशानि भूयो भुवनेस्मिन् वचनानि दुर्जनानाम् II'
अर्थात्, हे हलाहल ! मैं भयंकरों में सर्वाधिक भयंकर हूँ, ऐसा कदापि न सोचना ! इस जगत में तुमसे अधिक भयंकर दुष्ट के वचन हैं !
'अमरैरमृतं न पीतमब्धे: न च हलाहलमुल्बनं हरेण I
विधिना निहितं खलस्य वाचि द्वयमेतत् बहिरेकमन्तरान्यत् II'
अर्थात्, सागर में से जो अमृत देवताओं ने नहीं पिया और जो हलाहल शंकर ने नहीं पिया, उन दोनों को ब्रह्मा ने दुष्टों की वाणी में रख दिया -- अमृत को बाहर, और हलाहल को भीतर !
'वर्जनीयो मतिअमता दुर्जनः सख्यवैरयो: I
श्र्वा भवत्यपकाराय लिहन्नपि दशन्नपि II'
अर्थात्, विवेकवान मनुष्य को दुष्ट से न मित्रता करनी चाहिए, न शत्रुता ! कुत्ता चाटता है, या काटता है, दोनों ही स्थितियों में बुरा ही होता है !
'बहुनिष्कपटद्रोही बहुधान्योपधातकः I
रंध्रान्वेषी च सर्वत्र दूषको मूषको यथा II'
अर्थात्, दुष्ट चूहों की तरह होते हैं ! वे निष्कपट लोगों से द्रोह करते हैं जैसे चूहा कीमती चीज़ों को कुतर देता है, चूहों की ही तरह वे छिद्र ढूँढ़ते रहते हैं और गन्दगी फैलाते हैं !
'त्यकत्वापि निज प्राणान् परहित विघ्नं खलः करोत्येव I
कवले पतिता सद्यो वमयति खलु मक्षिकाSन्नभोक्तारम् II'
अर्थात्, दुष्ट अपने प्राण त्याग कर भी दूसरे के हित में विघ्न डालने को तैयार रहता है, जैसे भोजन में पड़ी हुई मक्खी भोजन करने वाले को उल्टी करने के लिए विवश कर देती है I
'रविरपि न दहति तादृग् यावत् संदहति वालिका निकर:I
अन्यस्माल्लब्धपदः नीचः प्रायेण दुस्सहो भवती II'
अर्थात्, बालू जितना जलाता है, उतना सूरज भी नहीं जलाता I दूसरों के प्रभाव से पद पाने वाला नीच मनुष्य प्रायः दुस्सह्य होता है I
'तुष्यन्ति भोजनैर्विप्रा:मयूरा घनगर्जितै: I
साधवः परकल्याणे: खला: परविपत्तिभिः II'
अर्थात्, ब्राह्मण भोजन से, मयूर मेघ-गर्जना से, सज्जन व्यक्ति परहित से और दुष्ट व्यक्ति परविपत्ति से संतुष्ट होता है !
'अहो दुर्जन संसर्गात् मानहानि: पदे पदे I
पावको लोहसंगेन मुद्ररैरभिहन्यते II'
अर्थात्, दुष्ट मनुष्य की संगत से पग-पग पर मानहानि होती है, वैसे ही जैसे, लोहे के साथ के कारण आग को भी हथौड़े से पिटना पड़ता है !
'क्वचित् सर्पोSपि मित्रत्वमियात् नैव खलः क्वचित्I
न शेषशायिनोSप्यस्य वशे दुर्योधनः हरे: II'
अर्थात्, कभी साँप भी मित्र बन सकता है, पर दुष्ट को कभी मित्र नहीं बनाया जा सकता ! हरि शेषनाग को शैय्या बनाकर सोते थे, पर दुर्योधन उनका मित्र न हो सका !
'गुणायंते दोषाः सुजनवदने दुर्जन्मुखे
गुणाः दोषायंते तदिदं नो विस्मयपदम् I
महमेघः क्षारं पिबति कुरुते वारि मधुरम्
फणी क्षीरं पीत्वा वमति गरलं दुस्सहतरं II'
अर्थात्, कोई आश्चर्य नहीं कि सज्जन पुरुष के मुँह में दोष भी गुण बन जाते हैं जबकि दुर्जन मनुष्य के मुँह में गुण भी दोष बन जाता है ! बादल खारा जल पीकर मीठे जल की वर्षा करते हैं, जबकि साँप दूध पीकर भी भयंकर विष उगलता है !
'न दुर्जनः सज्जनतामुपैति बहु प्रकारैरपि सेव्यमानः I
अत्यंतसिक्तः पयसा धृतेन न निम्बवृक्षः मधुतामुपैति II'
अर्थात्, बहुत प्रकार से सेवा करने के बाद भी दुर्जन को सज्जन नहीं बनाया जा सकता ! ढूध और घी में बहुत अधिक भिगोने के बाद भी नीम के पेड़ को मीठा नहीं बनाया जा सकता !
'पाषाणो भिध्यते टंके वज्रः वज्रेण भिध्यते I
सर्पोSपि भिध्यते मन्त्रैर्दुष्टात्मा नैव भिध्यते II'
अर्थात्, पत्थर को टंक से, वज्र को वज्र से और साँप को मन्त्र से भेदा जा सकता है, लेकिन दुष्ट को किसी भी तरह से नहीं भेदा जा सकता !
'सर्प क्रूरः खलः क्रूरः सर्पात् क्रूरतर: खलः I
मन्त्रेण शाम्यते सर्पः न खलः शाम्यते कदाII'
अर्थात्, साँप क्रूर होता है, दुष्ट भी क्रूर होता है, पर दुष्ट साँप से अधिक क्रूर होता है ! साँप को मन्त्र से शांत किया जा सकता है लेकिन दुष्ट को किसी भी तरह से शांत नहीं किया जा सकता !
'खलः सर्षपमात्राणि परछिद्राणि पश्यति I
आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन् अपि न पश्यति II'
अर्थात्, दुष्ट दूसरों का सरसों बराबर दोष भी तुरत देख लेता है, लेकिन अपने बेल के फल बराबर दोष को देखकर भी नहीं देखता है !
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तो हे विद्वज्जनो ! हे सुधी श्रोताओ ! दुष्ट जनों की महिमा इस भाँति अनादि-अनंत-अगाध हुआ करती है कि शेषनाग उन्हें अपने सहस्त्र मुखों से नहीं बता सकते, गणेश उनका वर्णन नहीं कर सकते और वेदव्यास उन्हें लिपिबद्ध नहीं कर सकते ! फिर भी किसी सीमा तक इस कार्यभार को मुझ अकिंचन ने संपन्न करने का तुच्छ प्रयास किया ताकि वर्तमान फासिस्ट तमस के घटाटोप में, दुष्टता के महासाम्राज्य में जीते हुए आप दुष्टों का अध्ययन कर सकें, उन्हें पहचान सकें, उनकी भयंकरता को समझें, उनसे सावधान रहें और अनुकूल अवसर आते ही उन्हें उनकी दुष्टता का यथोचित दंड दें ! इस प्रयोजन में संस्कृत के प्राचीन आचार्यों से तो इतनी ही सहायता मिल सकती थी ! शेष कार्य आपको स्वयं संपन्न करना होगा !
(11अप्रैल, 2020)
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