Saturday, April 11, 2020


क्या ख़याल है ! दुष्टों के बारे में थोड़ा और गलचौर किया जाए ? अगर कभी दुष्टों के पाले पड़े होंगे, और आप खुद दुष्ट नहीं होंगे, तो मज़ा ज़रूर आयेगा !

एक गाँधीवादी टाइप अंकलजी हैं ! मुझे तो, जो गाँधी टोपी वह पहने रहते हैं, साक्षात वैसे ही लगते भी हैं ! जो भी हो, आदमी भले हैं ! मुझे बहुत दुर्विनीत और क्रोधी स्वभाव का मानते हैं ! सच्चे शुभचिंतक हैं ! डरते हैं कि इतना क्रोध करने औए तनाव में रहने से मुझे उच्च रक्तचाप हो सकता है, हृदयगति भी रुक सकती है, बुढ़ापा जल्दी आ सकता है और बहुत सारे लोग मेरे शत्रु हो सकते हैं जो मुझे हानि पहुँचा सकते हैं ! वे मुझे समझाते हैं और मैं उनको समझाती हूँ और अंततः हम एक-दूसरे को समझाने में कभी सफल नहीं हो पाते !

अंकलजी लगातार मुझे दुष्टों की दुष्टताओं को भूल जाने और उन्हें क्षमा कर देने और उनपर ध्यान ही न देने की कोशिश करने के लिए कहते हैं ! और मेरी आदत यह है कि कोई दुष्ट मिल जाए और उसका टारगेट मैं न भी होऊँ, तो भी मैं रुककर उसका बारीकी से अध्ययन करने लगती हूँ कि अब यह कौन सी दुष्टता करेगा, किसको निशाना बना रहा है, अभी यह क्या सोच रहा है, आदि-आदि ... ! उच्च कोटि के दुष्टों की एक खासियत होती है ! वे काहिल और सुस्त या मनहूस नहीं होते ! लगातार खुराफात के बारे में सोचते रहते हैं या करते रहते हैं ! दुष्ट लोग सक्रिय लोग होते हैं ! उन्होंने अपने को इस दुनिया में जीने लायक बना लिया है ! जो सुस्त और काहिल भलेमानस होते हैं वे सिर्फ़ सरकारी दफ्तरों में नौकरी करने के लिए ही इस धरती पर आये हैं ! न वे बिंदास-बेलौस जी पाते हैं, न ज़िंदगी को बदलने की लड़ाई में कुछ तूफानी अंदाज़ में शिरक़त ही कर पाते हैं !

तो पिछली बार जब अंकलजी मिले, तो बोले,"तुम संस्कृत के शास्त्रीय आचार्यों के अनुभव और अभिव्यक्तियों की सूक्ष्मताओं का तो बहुत ख़याल करती हो ! देखो, एक आचार्य क्या कहते हैं:

'क्षमा शस्त्रं करे यस्य दुर्जन: किं करिष्यति |
अतॄणे पतितो वन्हि: स्वयमेवोपशाम्यति ||'

अर्थात्, क्षमा रूपी शस्त्र जिसके हाथ में हो , उसे दुर्जन क्या कर सकता है ? अग्नि , जब किसी जगह पर गिरता है जहाँ घास न हो , अपने आप बुझ जाता है I"

मैंने अंकलजी से कहा," इन वाले आचार्य के जीवनानुभव शायद कुछ कम हैं ! अब मैं आपको कुछ दूसरे आचार्यों की वाणी सुनाती हूँ:

'सर्प दुर्जनयोर्मध्ये वरं सर्पो न दुर्जनः I
सर्पो दशति कालेन दुर्जनास्तु पदे -पदे II'

अर्थात्, सर्प और दुर्जन के बीच सर्प को चुनो, न कि दुर्जन को क्योंकि सर्प तो समय आने पर डंसता है, पर दुर्जन तो कदम-कदम पर डंसता है I

'खलानां कंटकानां च द्विविधैव प्रतिक्रिया I
उपानन्मुखभंगो वा दूरतो वा विसर्जनम् II'

अर्थात्, दुष्ट मनुष्य और कांटे से छुटकारा पाने के दो ही उपाय हैं -- या तो जूते से मुँह तोड़ दो, या फिर दूर से ही भगा दो I

'दुर्जस्नन सज्जनं कर्तुमुपायो नही भूतले I
अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत्II'

अर्थात्, इस पृथ्वी पर दुर्जन को सज्जन बनाने का कोई उपाय नहीं है I अपान इन्द्रिय को सौ बार धोकर भी उसे श्रेष्ठ इन्द्रिय नहीं बनाया जा सकता I

'दुर्जनः स्वस्वभावेन परकार्य विनश्यति I
नोदरतृप्तिमायाति मूषकः वस्त्रभक्षकः II'

अर्थात्, दुर्जन अपने स्वभाव से ही दूसरे के कार्य को हानि पहुंचाता है I वस्त्रभक्षक चूहा उदर-तृप्ति के लिए वस्त्र नहीं काटता I

'यथा परोपकारेषु नित्यं जागर्ति सज्जनः I
तथा परापकारेषु जागर्ति सततं खलः II'

अर्थात्, जैसे सज्जन परोपकार करना के लिए नित्य जाग्रत रहता है, वैसे ही दुष्ट व्यक्ति दूसरों का अपकार करने के लिए सतत जाग्रत रहता है I

'तक्षकस्य विषं दन्ते मक्षिकायाश्व मस्तके I
वृश्चिकस्य विषं पृच्छे सर्वांगे दुर्जनस्य तत् II'

सांप का विष उसके दांत में, मक्खी का उसके मस्तक में और बिच्छू का पूँछ में होता है, लेकिन दुर्जन का तो पूरा शरीर ही विष से भरा होता है I

'दुर्जनो नार्जवं याति सेव्यमानोSपि नित्यशःI
स्वेदनाभ्यंजनोपायै:श्वापुच्छमिव नामितम II'

अर्थात्, जैसे कुत्ते की पूंछ स्वेदन-अंजन आदि उपायों से सीधी नहीं होती, उसीप्रकार चाहे जितनी भी सेवा करें, दुर्जन को सीधा नहीं बनाया जा सकता !"

मैं अंकलजी को दुष्टों के बारे में अभी पाँच-छः श्लोक और सुनाने वाली थी, पर अंकलजी अबतक मुझे रास्ते पर लाने के मिशन से पर्याप्त निराश हो चुके थे I उन्होंने कहा कि मैं दुष्टों से शत्रुता मोल लेने के खतरों को समझ नहीं रही हूँ, इसीलिये संघियों और भक्तों से अक्सर बैर मोल लेती रहती हूँ ! मैंने अंकलजी से कहा कि गाँधी से मैं चाहे जितनी असहमति रखूँ, पर उनकी एक बात ठीक थी कि वह पतली गली से बच निकलने की टैक्टिस नहीं अपनाते थे ! अंकलजी के असंतोष में अब कुछ नाराज़गी भी घुलने लगी थी ! कुछ कारण बताकर वह तुरत चलते बने !

(11अप्रैल, 2020)

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