एक बेहद ज़ालिम बादशाह था ! फिर वह और ज़्यादा, और ज़्यादा ज़ालिम होता चला गया !
अदालतों में बैठे हुए क़ाज़ी और मुंसिफ़ हालांकि इन्साफ़ करते हुए इस बात का पूरा ख़याल रखते थे कि उनका कोई फ़ैसला सीधी-सीधे हुकूमत के ख़िलाफ़ न जाये, मगर बादशाह और उसके वज़ीरों को उनपर पूरा भरोसा नहीं जमता था ! कोई न कोई ऐसा सिरफ़िरा क़ाज़ी या मुंसिफ़ निकल ही आता था जो इन्साफ़ के बारे में वाक़ई सोचने लगता था और कभी-कभी तो कुछ ज़्यादा ही सोचने लगता था ! ऐसे लोगों को मजबूरन कभी-कभी ठिकाने भी लगाना पड़ता था और लोग इशारों-इशारों में कहते थे कि फ़लां का तो लोया हो गया !
फिर बादशाह ने वज़ीरों से गुफ़्तगू किया और सभी क़ाज़ियों और मुंसिफ़ों को बर्खास्त कर दिया और उनकी जगह रियासत की तमाम रण्डियों के कोठों के दल्लों को क़ाज़ी और मुंसिफ़ की कुर्सियों पर बिठा दिया !
अब इन्साफ़ एकदम बादशाह के मान-मुआफ़िक होने लगा ! अदालतों की रौनक बढ़ गयी और दल्लों के बिना रण्डियों के कोठों की रौनक कुछ फीकी पड़ गयी !
(8मार्च, 2020)
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